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नवरात्र से दीवाली तक ऐसा समय है जिसकी राह सब देखते हैं। बच्चे, महिलाएं, वृद्ध, युवा सब। सदियों से यह सिलसिला चल रहा है लेकिन पिछले कुछ साल से चीन भी इसकी राह देखने लगा है, क्योंकि यह साल का वह समय है जब भारत के बाजार सबसे ज्यादा आबाद रहते हैं। वैसे भारत समेत सारी दुनिया से हो रहे मोटे मुनाफे के कारण चीन सालभर दीवाली मनाता है। आइये, दीये की रोशनी में ड्रैगन और युआन की समीक्षा करें।
यह कहानी है अभावों की बदरंग सचाई और सूखे हुए खून के स्याह रंग से शुरू होकर आज दुनियाभर में छाए चमकीले विज्ञापनों की। इसके पीछे की जटिल मानवीय त्रासदियों की चर्चा हम आगामी अंकों में करेंगे। फिलहाल, परमाणु बम बनाने की सनक को पूरा करने के लिए बच्चों के मुंह से निवाला छीनकर अनाज का व्यापार करने वाले इस देश ने हर 8 वर्ष में अपनी अर्थव्यवस्था को दोगुना करने का कीर्तिमान बनाया है। विश्व की 20 प्रतिशत आबादी के साथ चीन अपने सीमेंट उत्पादन का आधा, अपने इस्पात का एक तिहाई और अपने एल्युमिनियम का एक चौथाई खर्च करता है। अत्यंत विविधतापूर्ण चीन के औद्योगिक उत्पादन का 60 फीसदी उसके निर्यात पर आधारित है। अमेरिका भी उससे होने वाले व्यापार घाटे को लेकर चिंतित है। भारत का दुनिया के 27 देशों से 106 अरब डॉलर का व्यापार घाटा है, उसमें से 51 अरब डॉलर से अधिक का घाटा अकेले चीन के साथ है। सरल शब्दों में कहें, तो चीन को हम जितने मूल्य का निर्यात करते हैं, उससे 52 अरब डॉलर अधिक मूल्य का आयात हमारे यहां चीन से होता है। अर्थात् हमारी मुद्रा के वर्तमान अवमूल्यन में लगभग 50 प्रतिशत का योगदान अकेले चीन का है। परिणामस्वरूप आज चीनी मुद्रा युआन की कीमत हमारे रुपए से लगभग दस गुनी है।
चीनी माल के अंधाधुंध आयात की मार छोटे उत्पादक, हस्तशिल्प बनाने वाले से लेकर भारत के आर्थिक साम्राज्य की हैसियत रखने वालों तक पर पड़ रही है। इसकी चपेट में आए उद्योगों में साइकिल, साइकिल के पुर्जे, पीवीसी, बिजली संयंत्र, कांच, कांच का सामान, टेलीफोन, मोबाइल, मोबाइल उपकरण, मशीन टूल्स, रंग-रसायन, कृषि-रसायन, टायर, फाईबर, ऑप्टिक केबल, हाई टेंशन इन्सुलेटर, सौर ऊर्जा, स्टेशनरी, इस्पात, इलेक्ट्रॉनिक्स, दवाइयां, एंटीबायोटिक्स, फर्नीचर, क्रॉकरी, टाइल, प्लास्टिक का सामान, खिलौने, कपड़े, कंबल, चादर, हस्तशिल्प, मूर्तियां, मिक्सर-ग्राइंडर, डीजल पंप, पटाखे, प्रिंटिंग का सामान, कृषि उपकरण, भवन निर्माण उपकरण, टिन कंटेनर्स, प्लाईवुड आदि शामिल हैं। एक छोटी सी बिजली की लड़ी यदि चीन से आकर हमारे बाजार में बिकती है तो उससे भारत में होने वाली रोजगार हानि का अंदाज इस बात से लगाएं कि कुछ साल पहले भारत में बिजली की लड़ी बनाने वाली 40 हजार इकाइयां थीं, जिसमें से लगभग सभी आज बंद हो चुकीं हैं। दुर्भाग्य से चीन भारत के बाजारों में अपना दोयम दर्जे का माल खपाकर मोटी कमाई कर रहा है। इससे हजारों छोटी-बड़ी औद्योगिक इकाइयां बंद हो चुकी हैं और हजारों बंद होने के कगार पर हैं, जिससे बड़ी संख्या में रोजगार की हानि हो रही है। विडंबना यह है कि कुछ वर्षों से हमारे देवी-देवताओं की मूर्तियां, होली के रंग, दीवाली के पटाखे और राखियां तक चीन से आने लगी हैं।
पीढ़ी का अंतर
चीन ने दशकों पहले दुनिया के बाजारों का विस्तृत अध्ययन करना शुरू कर दिया था। एक और उदाहरण बर्तन के बाजार का। आपसे यदि पूछा जाए कि स्टील के बर्तनों में सबसे अधिक क्या बिकता है, तो थाली-कटोरी आदि गिनाएंगे, लेकिन चीनियों ने अध्ययन किया कि ये सब तो आम भारतीय साल में एक बार खरीदता है, पर पूजा-अनुष्ठान और इसी प्रकार के विधि-विधानों के लिए कलश साल भर बिकते हैं। उन्होंने भारत के बाजारों में हल्के से हल्का कलश न्यूनतम मूल्य में उतारकर बर्तन उद्योग में भी पैठ जमाई।
ऑनलाइन कारोबार भी ड्रैगन की लपेट में दिखता है। 2016 में अक्तूबर के पहले हफ्ते में तीन सबसे बड़े ऑनलाइन रिटेलर्स पर चीनी उत्पादों की बिक्री ने नया रिकॉर्ड बनाया। चीनी मोबाइल कंपनी शियोमी ने आश्चर्यजनक रूप से भारत में फ्लिपकार्ट, अमेजन इंडिया, स्नैपडील और टाटा क्लिक के जरिए तीन दिन में पांच लाख स्मार्टफोन बेचे। तकनीकी क्षेत्र की समस्या तो और भी गंभीर है। दूरसंचार उपकरण निर्माण के क्षेत्र में भारत पिछले 30 वर्ष से लगभग ठहरा हुआ है जबकि चीन बहुत आगे जा चुका है। कांग्रेस के चुनावी दावे कि 'हम कम्प्यूटर लाये, मोबाइल लाये, इंटरनेट लाए' आदि के बावजूद, सचाई यह है कि कंप्यूटर हार्डवेयर, दूरसंचार आदि में हम बहुत पीछे छूट चुके हैं। आधुनिक दूरसंचार के साजो-सामान में हम स्विच तक नहीं बना रहे। चीन ने इस पर बहुत पहले काम शुरू कर दिया था ।
तकनीक के साथ दिक्कत यह है कि इसका ढांचा रातोरात खड़ा नहीं होता। यह पीढ़ी का अंतर है, जिसे पाटने में कई वर्ष लगेंगे। मशीन टूल्स उद्योग पर भी चीनी आयात से जो मार आज पड़ रही है, इसे यदि रोका नहीं गया तो देश में, भविष्य में नयी तकनीक का विकास रुक जाएगा और हम चीन पर निर्भर होकर रह जाएंगे। वहीं दूसरी ओर भारत से चीन को बड़ी मात्रा में कच्चा माल निर्यात होता है, जिसमें तांबा, तांबे की मिश्रधातुएं, कपास, धागे, ग्रेनाइट, बेसाल्ट सैंडस्टोन, लोहे के अयस्क, इस्पात, वनस्पती घी और तेल, कच्चा रबर, ऊन, कपड़ा, विग बनाने का सामान आदि शामिल हैं। इस स्थिति को बदलने की आवश्यकता है।
व्यापार नहीं, ये हमला है
चीन के आर्थिक तौर-तरीकों में युद्ध सी आक्रामकता और खुरपेच देखा जा सकता है। चीन भारत समेत विश्व के अनेक देशों में स्थानीय उद्योगों को ध्वस्त करने की रणनीति पर काम कर रहा है। इसके लिए वह लागत से भी काफी कम मूल्य पर, यानी खुद नुक्सान उठाकर भी, चीजों को उपभोक्ताओं के सामने परोस रहा है। उदाहरण के लिए, सोलर पैनल निर्माण उद्योग। न्यूयॉर्क टाइम्स में 8 अप्रैल 2017 को छपी खबर 'वैन सोलर पैनल्स बिकेम जॉब किलर्स' के अनुसार, चीनियों ने सोलर पैनल्स के दामों में भारी कटौती करके यूरोप और अमेरिका के निर्माताओं के लिए गंभीर संकट खड़ा कर दिया है। इसके कारण जर्मनी से लेकर मिशिगन और टैक्सास तक नौकरियां जा रही हैं। राष्ट्रपति ट्रंप ने भी चीन के ऊपर अनैतिक आर्थिक हथकंडों का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया है। 1999 से 2011 तक चीन 24 लाख अमेरिकी नौकरियां खा चुका था। जबकि औसत अमेरिकी श्रमिक की मजदूरी में 213 डॉलर सालाना (लगभग 14 हजार रुपए) की कमी आ चुकी थी। इसलिए चुनावों में ट्रंप ने चीन के साथ व्यापार असंतुलन को भुनाया और अमेरिकी मतदाताओं ने राजनीति में बिल्कुल नए, एक बड़े कारोबारी को देश का राष्ट्रपति चुन लिया। उधर अर्थशास्त्री और बड़े व्यापार समूह चेतावनी दे रहे हैं कि चीन की आर्थिक महत्वाकांक्षाएं भविष्य की तकनीक और अक्षय ऊर्जा के स्रोतों पर एकाधिकार करने की दिशा में बहुत आगे जा चुकी हैं। अब चीन अक्षय ऊर्जा, बिग डेटा और स्वचालित कारों के भविष्य के बाजार पर कब्जा करने की नीयत से कदम बढ़ा रहा है। आज वह दुनिया के दो तिहाई सोलर पैनल्स का उत्पादन कर रहा है। ध्यान देने की बात यह है कि चीन दुनिया भर में बिकने वाले कुल सोलर पैनल्स के आधे का खरीदार भी है। इस प्रकार वह सोलर पैनल के बाजार को पूरी तरह नियंत्रित करने की स्थिति में आ गया है। 2007 से 2012 तक उसने सोलर पैनल का उत्पादन 10 गुना कर लिया था। आज दुनिया के 10 शीर्ष पैनल उत्पादकों में से 6 चीनी हैं। यही रणनीति वह रोबोट, इलेक्ट्रॉनिक चिप्स और सॉफ्टवेयर क्षेत्र में भी अपना रहा है। इन्ही हथकंडों के चलते वह पवन ऊर्जा में विश्व शक्ति बन चुका है।
मुनाफे के लिए जहर परोसने को तैयार
सस्ता बेचकर दुनिया के बाजारों को अपनी मुट्ठी में करने की सनक में चीन ने अनेक उत्पादों में स्वास्थ्य मानकों की गंभीर उपेक्षा की। उदाहरण के लिए चीनी खिलौने बच्चों के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक सिद्ध हो रहे हैं। इस ओर विश्व का ध्यान तब गया जब विश्व की सबसे बड़ी खिलौना कंपनी मेटल ने चीनी खिलौनों की 2 बड़ी खेप वापस भेज दीं, और 9 करोड़ खिलौने बाजार से वापस बुलाए। इसमें खिलौनों के अलावा चेन्जिंग पैड्स, चटाइयां, नहाने के उपकरण आदि शामिल थे। पाया गया कि इसमें पीवीसी का उपयोग किया गया था। बेल्जियम, इटली, फिलीपींस, डेनमार्क, स्वीडन, हॉलैंड, ऑस्ट्रिया, जर्मनी, स्पेन आदि ने संवेदनशील वस्तुओं में पीवीसी का उपयोग बंद कर रखा है। इसी प्रकार इन खिलौनों के रंगों में सीसे का स्तर घातक स्तर से 900 गुना ज्यादा पाया गया। इन खिलौनों से बच्चों में कैंसर, प्रतिरक्षा तंत्र की कमजोरी, मानसिक विकास का अवरुद्ध होना, समय से पहले रजस्वला होना, नपुंसकता, यकृत एवं किडनी की बीमारियों का होना पाया गया। इसी प्रकार चीनी पटाखों में सल्फर की घातक मात्रा पाई गई।
सस्ता बेचें और मुनाफा भी आये, इसके लिए चीन खाने में जहर बेचने को भी तैयार रहता है। इसका एक उदाहरण है मेलामाइन। मेलामाइन कोयले से प्राप्त होने वाला एक रसायन है, यह कार्बन, हाइड्रोजन और नाइट्रोजन का मिश्रण है। इसका प्रयोग प्लास्टिक की थैलियां, लेमिनेट फ्लोरिंग, फर्नीचर चमकाने, सफाई के उत्पादक, उर्वरक और कीटनाशकों तक में किया जाता है चंूकि कई खाद्य पदार्थों का मूल्य उनमें विद्यमान प्रोटीन परिमाणों के आधार पर तय होता है अत: चीन द्वारा इस जहरीले रसायन को (नाइट्रोजन के कारण) प्रोटीन की मात्रा बढ़ाने के नाम पर खाद्य में मिलाया जाता है। ट्राईग्लाइकॉल, जो कि एक औद्योगिक जहर है इसे चीन द्वारा निर्मित टूथपेस्ट में इसलिए मिलाया जाता रहा, क्योंकि इसकी कीमत मेडिकल आधार पर स्वीकृत प्रोपेलीन से आधी है।
कमर कसता भारत
2016 में लोकसभा में श्री भोला सिंह एवं कुछ अन्य सदस्यों के पूरक प्रश्नों के उत्तर में तत्कालीन वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था, ''डब्ल्यूटीओ नियमों के कारण अब किसी देश से आयात पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना संभव नहीं है चाहे उस देश के साथ हमारी राजनयिक, क्षेत्रीय या सैन्य समस्याएं क्यों न हो।'' स्पष्ट है कि भारत सरकार समेत विश्व की कोई भी सरकार अंतरराष्ट्रीय समझौतों और कानूनों के चलते किसी भी देश के आयात पर सीधे रोक नहीं लगा सकती। लेकिन 2014 के बाद भारत सरकार ने चीन के आर्थिक आक्रमण से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय व्यापार कानून के तकनीकी पेच ढूंढने शुरू किये और धीरे-धीरे रास्ते निकलने लगे। जैसे, चीन से आ रहे पटाखों ने अपने शिवकाशी के पटाखा उद्योग को तबाह कर एक लाख लोगों को बेरोजगार कर दिया था, लेकिन विस्फोटकों/ बारूद पर रोक लगाने के अधिकार का उपयोग करते हुए भारत सरकार ने चीनी पटाखों को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया है। इससे 80,000 रोजगार वापस लौटे। इसी प्रकार चीन से आ रहे सस्ते स्टील के कारण अकेले पंजाब के गोविन्दगढ़ में ही लगभग 1500 छोटी स्टील निर्माता इकाइयां बंद हो गईं। जमशेदपुर की टाटा स्टील मिल भी दिक्कत में आ गई थी। पर 2016 में चीनी स्टील पर 18 प्रतिशत तक एंटी डंपिंग ड्यूटी लगाकर सरकार ने स्वदेशी स्टील मिलों को संरक्षण दिया है। किसी अन्य देश से आने वाले किसी उत्पाद पर एंटी डंपिंग ड्यूटी या शुल्क तब लगाया जाता है जब उस विदेशी उत्पाद की कीमत सामान्य से भी कम हो और उसके कारण देशी उत्पाद या उद्योग के विनाश का खतरा हो। चीनी टायरों के आयात ने भारत के टायर उद्योग को बर्बाद कर दिया था। 2017 में चीन के टायरों पर 23 प्रतिशत एंटी डंपिंग ड्यूटी लगा दी गई है। अब तक कुल 93 चीनी उत्पादों पर एंटी डंपिंग शुल्क लगाया गया है। ऐसे ही घटिया गुणवत्ता को आधार बनाकर (क्वालिटी स्टैण्डर्ड) रेलवे और ऊर्जा क्षेत्र में चीनी कंपनियों का प्रवेश रोका गया है। यद्यपि कुछ मेट्रो रेल के डिब्बे आदि के आर्डर लेने में कुछ चीनी कम्पनियां सफल हो गई हैं लेकिन उसके भी विकल्प खोजे जा सकते हैं।
अब अनुबंध भारतीय कंपनी से
सरकारी कंपनी गेल (गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड) का 3000 करोड़ रुपए का अनुबंध पहले चीनी कंपनी को मिलना तय हो चुका था, लेकिन बाद में सुरक्षा कारणों के आधार पर इसे भारतीय कंपनी को दिया गया। भारत सरकार हर साल 2 लाख करोड़ से अधिक का सामान खरीदती है। मई 2017 में भारत सरकार ने जनरल फाइनेंशियल रूल में संशोधन करते हुए सरकारी खरीद केवल भारतीय कंपनियों द्वारा ही किये जाने का नियम बना दिया है, इससे चीन समेत सभी विदेशी कंपनियों का भारत की सरकारी खरीद में प्रवेश अवरुद्ध हो गया है। प्लास्टिक से होने वाली पर्यावरण हानि के चलते चीन से आने वाले प्लास्टिक उत्पादों पर प्रतिबन्ध लगाया गया है। इससे भारत का मृतप्राय खिलौना उद्योग फिर से खड़ा हो सकेगा। इसी तरह बंदरगाहों की भी कड़ी निगरानी की जा रही है, इससे गलत तरीके से या कम कीमत के चीनी माल आने पर काफी हद तक रोक लगी है।
स्वदेशी निर्माता की शक्ति
भारत के उत्पादक यदि ठान लें तो चीन को परास्त कर सकते हैं। इसके कुछ अत्यंत प्रेरक उदाहरण पिछले 2-3 वर्षों में सामने आए हैं। 2000 से 2013-14 तक पानीपत का प्रसिद्ध कम्बल-दरी-चादर उद्योग चीन से आ रहे सस्ते मिंक कम्बल और थ्री डी चादर की मार से चरमरा गया था। इससे 80,000 कर्मचारियों की छंटनी हो गई थी। फिर वहां के उत्पादक चीन और ताईवान से वही मशीन खरीद लाये। इतना ही नहीं, उस 6 करोड़ की मशीन की नकल 4 करोड़ में तैयार कर बड़े पैमाने पर चीन से भी सस्ते कम्बल-चादर बनाने शुरू कर दिए। इसी प्रकार अलीगढ़ का ताला उद्योग, कानपुर का जूता उद्योग, मोरवी का टाइल उद्योग, शिवकाशी का पटाखा और प्रिंट मशीन उद्योग, फगवाड़ा का इलेक्ट्रिकल वस्तु उद्योग और नोयडा का सोलर उपकरण उद्योग, सब चीनी माल को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। देश भर में लाखों रोजगार वापस आए हैं। भारत में आधारभूत ढांचा तेजी से विकसित हो रहा है, रक्षा उत्पादन में तेजी आई है अत: रोजगार के अवसर बढ़ रहे हैं।
एक आम भारतीय की ताकत
हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। जहां एक ओर चीन आज सारी दुनिया में अपना निर्यात बढ़ाता जा रहा है वहीं दूसरी ओर, उसका ऋण आसमान छू रहा है।
दरअसल अपनी अर्थव्यवस्था के अंधाधुंध फैलाव की महत्वाकांक्षा में चीन ने खुद को कर्ज के भंवर में फंसा लिया है। ऐसे में
यदि उसके विश्वव्यापी बाजार पर चोट पड़ गई तो उसकी अर्थव्यवस्था इस कर्ज के बोझ के नीचे चरमरा जाएगी। लहर चल पड़ी है, जो दिन पर दिन ताकतवर होती जा रही है। खरीदार दुकान पर 'चीनी माल तो नहीं है', ऐसा पूछने लगे हैं।
ये सोशल मीडिया का जमाना है। उपभोक्ता बाजार में असर दिख रहा है। संभावनाएं बहुत हैं। जिस दिन भारत में चीनी माल के विरोध में उठ रहे स्वर यूरोप, अमेरिका और अफ्रीका तक पहुंचने लगे, उस दिन आर्थिक आतंकवाद के इस लाल दुर्ग के ध्वस्त होने में देर नहीं लगेगी, क्योंकि चीन के खिलाफ असंतोष हर तरफ है। उसके पुराने साथी म्यांमार और शक्तिशाली 'आसियान' तक। उसकी चर्चा अगले अंकों में। -प्रशांत बाजपेई
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