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गोवंश का संरक्षण तथा अपनी रक्षा का दायित्व सभी भारतवासियों का है, चाहे हिंदू हों या मुसलमान। हिंदुओं के रीति-रिवाज तथा त्योहार की परंपरा में 'गाय-बछड़ा' की पूजा शामिल है। जो परंपरा में पूज्य बन जाता है, उसकी रक्षा के प्रति हमें सचेष्ट एवं जागरूक रहना ही पड़ता है। दीपावली के छह दिवसीय त्योहार में कार्तिक कृष्ण द्वादशी को 'गोवत्स' द्वादशी के रूप में मनाने की परंपरा है। इस दिन गाय तथा बछड़े की पूजा का विधान है यानी गाय ही नहीं सम्पूर्ण गोवंश ही पूज्य तथा रक्षा का अधिकारी है, यह हमारा कर्तव्य भी है। 1857 की क्रांति के काल में मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने गोवंश वध करने वाले को मृत्युदंड देने का फरमान जारी किया था। राष्ट्रीय स्तर के मुस्लिम कवियों ने भी गाय की उपयोगिता तथा महत्व को रेखांकित करते हुए गाय को 'अल्लाह की नियामत' माना था। उसके लिए रब का शुक्रिया अदा करने के साथ उसका अहसान मानते हुए कविता भी लिखी थी। उस समय के प्रसिद्ध बाल साहित्यकार व उर्दू कवि इस्माइल मुहम्मद मेरठी (1844-1917) ने हमारी गाय शीर्षक से एक कविता लिखी थी, 'रब का शुक्र अदा कर भाई, जिसने हमारी गाय बनाई।' यह कविता बाल साहित्य के रूप में छोटी कक्षाओं के सभी वर्गों के विद्यार्थियों को पढ़ाई जा रही थी। वे बेहद सरल भाषा में कविताएं लिखते थे जो लोगों के हृदय पर अंकित हो जाती थी। वे शेख मीर के पुत्र थे तथा रुड़की विश्वविद्यालय से डिप्लोमा लेने के बाद सरकारी सेवा में रहे। उनके कविता संग्रह बाल साहित्य की निधि माने जाते हैं। ये हैं-रजा-ए-जवाहर, कुल्लिमात-ए-इस्माइल। हिंदुओं का त्योहार दीपावली एक धर्म तक सीमित न रहकर राष्ट्रीय त्योहार है, जिसे सभी मजहब, संप्रदाय के लोग मनाते हैं। है। गोवत्स द्वादशी के अगले दिन धनतेरस आता है जो धन प्राप्ति तथा धन्वंतरि जयंती स्वास्थ्य प्राप्ति का दिन है। इसका अर्थ यह भी हुआ कि यदि किसी को धन या अच्छा स्वास्थ्य चाहिए तो पहले गोवंश की पूजा करे। उसकी पूजा तथा संरक्षण से ही स्वास्थ्य एवं धन लाभ हो सकता है। इस्माइल मेरठी ने लिखा है कि गाय हमें दूध देती है, अत: यह 'रब की इनायत है।' इसके बछड़े बैल बनते हैं जो खेती के काम आते हैं।
जफर की क्रांति संबंधी नज्में
बहादुरशाह जफर का जीवन त्याग, सदाचार और सादगी से भरा था। उनके कवि हृदय में भारत के लिए अगाध प्रेम था और इसे स्वतंत्र कराने के लिए उन्होंने समस्त परिवार और शासन को उत्सर्ग कर दिया। परतंत्रता में सुखी रहना उन्हें स्वीकार न हुआ। वे कितने दु:खी थे, इन पंक्तियों में देखंे—
न तंग क्यूं हमें तैयार कफस में करे।
खुदा किसी को किसी के यहां न बस में करे।
उन्हें रंगून कारागार में स्वदेश की बराबर याद आती रही। उनकी देश प्रेम से ओत-प्रोत पंक्तियां देखें-
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में
बुलबुल को बागबां से न सैय्याद से गिला
किस्मत में कैद थी लिखी फस्ले बहार में
उम्र-ए-दराज मांग कर लाये थे चार दिन
दो आरजू में कट गये दो इंतजार में
दिन जिंदगी के खत्म हुए शाम हो गई
फैला के पांव सोयेंगे कूए यार में
कितना है बदनसीब 'जफर', दफ्न के लिये
दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में
भरोसे के दुश्मनों का आज कर दिया जाए खात्मा
हर जड़ और शाख नष्ट हो उन फिरंगियों की।
ईद की कुर्बानी पर मनाएं कत्ल-ए-आम का त्योहार
न बख्शो दुश्मनों को रखो तलवारों की नोंक पर!
दूरी में जो दिन है काढ़ा, बच्चे को किस प्यार से चाटा।
गाय हमारे हक में है नेमत, दूध है देती, खा के वस्मत।।
बछड़े उसके बैल बनाए, जो खेती के काम में आए।।
इसकी हम्द ओ सनाकर भाई, जिसने ऐसी गाय बनाई।।
एक कवि की इन भावनाओं के साथ हम बहादुर शाह के फरमानों की भी चर्चा करेंगे। क्रांतिकारियों द्वारा मेरठ पर विजय के बाद दिल्ली जीत ली गई। बहादुरशाह जफर को क्रांतिकारी विचारों के कारण बादशाह घोषित कर दिया गया। उसने क्रांति में हिंदू तथा मुसलमान सभी वर्गों की सहभागिता के लिए सांप्रदायिक सद्भाव की घोषणा की और चार फरमान जारी किए ताकि हिंदू-मुसलमान मिलकर आजादी की जंग में भाग लें।
ये थे चार फरमान
एक-ऐ हिंदुस्थान के लोगों, अगर हम इरादा कर लें तो बात ही बात में दुश्मन का खात्मा कर देंगे। हम दुश्मन को नेस्तोनाबूद कर डालेंगे। मजहब और अपने वतन तो हमें जान से भी ज्यादा प्यारे हैं।
दो- तमाम हिंदुओं व मुसलमानों के नाम हम मजहब को अपना फर्ज समझकर अवाम के साथ शामिल हुए हैं। इस मौके पर जो कोई बुजदिली दिखाएगा या दगाबाज फिरंगियों के वादों पर एतबार करेेगा वह जल्द ही शर्मिंदा होगा। इंगलिस्तान के साथ वफादारी का उसे वैसा ही इनाम मिलेगा जैसा लखनऊ के नवाबों को मिला। इस बात की जरूरत है कि इस जंग में तमाम हिंदू-मुसलमान मिलकर काम करें और किसी मोतबर रहनुमा की हिदायतों पर अमल करें, अपनी अमान पर कायम रहें। नादार (अत्यंत गरीब) लोग भी मुतमईन रहें, जहां तक मुमकिन हो सबको चाहिए कि इस एलान की नकल करके आम जगह पर चस्पां कर दें।
तीन- हिंदुस्थान के हिंदुओ और मुसलमानो, उठो भाइयो, उठो। खुदा ने जिंदगी बरकत-ए-इनसान की अता की है। उसमें सबसे कीमती बरकत आजादी है। क्या वह जालिम जिसने धोखा देकर यह बरकत हमसे छीन ली है, हमेशा के लिए हमें उससे महरूम रख सकेगा? खुदा की मर्जी के खिलाफ ऐसा काम हमेशा जारी रह सकता है? नहीं। नहीं। फिरंगियों ने इतने जुल्म किए कि उनके गुनाहों का प्याला लबरेज हो चुका है। यहां तक कि अब हमारे एक मजहब को बर्बाद करने की नापाक ख्वाहिश भी उनमें पैदा हो गई है। क्या तुम अब भी खामोश बैठे रहोगे? खुदा नहीं चाहता कि तुम खामोश रहो, क्योंकि उसने हिंदू-मुसलमानों के दिलों में अंग्रेजों को मुल्क से बाहर निकालने की ख्वाहिश पैदा कर दी है। खुदा के फजल और तुम लोगों की बहादुरी के जोर से जल्दी ही अंग्रेजों को इतनी कामिल शिकस्त मिलेगी कि हिंदुस्थान में उनका जरा भी निशान न रह जाएगा। इस पाक जंग में अपने मजहब की हिफाजत के लिए जितने लोग तलवार खीचेंगे वे सब इज्जत के हकदार होंगे। उनमें छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं। मैं फिर अपने तमाम हिंदी भाइयों से कहता हूं- उठो और परमात्मा के इस अजीम फर्ज को पूरा करने के लिए मैदाने जंग में कूद पड़ो।
चार- जो भी गाय, बैल, बछड़ा काटेगा उसे सजा-ए-मौत दी जाएगी।
इसके कुछ दिनों बाद, जुलाई 1857 में बकरीद पर बादशाह ने बाकायदा घोषणा की कि जिस भी मुसलमान के घर में गाय है, उसे लाकर कोतवाली में बांधा जाए या उससे बाण्ड भरवाया जाए। इस बात का मुचलका लिया जाए कि वह गाय को न बेचेगा, न काटेगा और न किसी प्रकार का नुकसान पहुंचाएगा। बात केवल दिल्ली तक सीमित नहीं रही, बरेली या अवध के क्षेत्रों में भी, जहां-जहां क्रांतिकारियों ने सत्ता स्थापित की, वहां गोवंश के वध पर पूर्ण प्रतिबंध लागू किया।
आज जब गोसंरक्षण एक सामयिक मुद्दा है, शासन से निम्नांकित अपेक्षाएं हैं- बहादुर शाह जफर की तर्ज पर गोवंश संरक्षण, संवर्धन के लिए शासनादेश जारी हो। गोवंश के वध पर पूर्ण पाबंदी लगे, वध में लिप्त लोगों व उन्हें प्रोत्साहित करने वालों को मृत्युदंड की व्यवस्था हो। बच्चों में गाय के प्रति सद्भाव, श्रद्धा जागरण के निमित्त इस्माइल की कविता 'हमारी गाय' पाठ्यक्रम में शामिल हो। बाल साहित्यकारों से कविता लिखने का आग्रह किया जाए, प्रतिस्पर्धाओं द्वारा कविता या लेख लिखने के लिए प्रोत्साहित एवं पुरस्कृत किया जाए। ऐसी कविताओं को बाल-पाठ्यक्रमों में भी शामिल किया जाए। -अयोध्या प्रसाद गुप्त 'कुमुद'
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