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सूरत के लवजी भाई बादशाह पटेल समुदाय में पैदा होने वाली बच्चियों को 2,00000 रु. का बॉण्ड देते हैं। यह पैसा उन बच्चियों की पढ़ाई आदि में काम आता है। अब तक 200 करोड़ रुपए के बॉण्ड दिए जा चुके हैं
लवजी भाई बादशाह पटेल
आयु : 47 वर्ष
व्यवसाय : भवन निर्माण
प्रेरणा : गरीबी से निजात पाने की ललक
अविस्मरणीय क्षण : कई दिनों तक भूखे रहना
अरुण कुमार सिंह
कन्या भ्र्रूणहत्या अमूमन देश के अनेक हिस्सों में आज भी जारी है, लेकिन गुजरात में पटेल समुदाय में इसका चलन कुछ ज्यादा ही दिखता है। इस समुदाय में लड़के और लड़कियों का अनुपात असंतुलित हो गया है। लोगों को अपने बेटों के लिए बहुएं नहीं मिल रही। कुछ युवाओं को 40-45 साल तक कुंआरा रहना पड़ रहा। इससे समाज के अनेक लोग बहुत चिंतित हैं। कई लोगों ने इस समस्या को समाप्त करने के लिए पहल की है। उन्हीं में से एक हैं लवजी भाई बादशाह। वे कहते हैं, ‘‘अनेक माता-पिता गरीबी के कारण बेटी पैदा नहीं करना चाहते। इसलिए मैंने तय किया है कि जिस भी परिवार में जितनी भी बेटियां पैदा होंगी, उन सबको 2,00000 रु. का बॉण्ड दिया जाएगा।’’
विज्ञान का दुरुपयोग कर हमारे समाज ने महिला और पुरुष के अनुपात को बिगाड़ दिया है। समाज के अस्तित्व को बचाने के लिए लड़के और लड़कियों के अनुपात को ठीक करना ही होगा।
इसके लिए उन्होंने 2015 में ‘बादशाह सुकन्या बॉण्ड योजना’ शुरू की। अब तक 200 करोड़ रुपए के बॉण्ड दिए जा चुके हैं। इसके अलावा वे सामूहिक विवाह आयोजनों में भी आर्थिक सहयोग देते हैं। उन आयोजनों में खान-पान पर होने वाले खर्च को बादशाह भाई खुद उठाते हैं।
लवजी भाई सूरत में ‘अवध’ नाम से भवन निर्माण कंपनी चलाते हैं और लगभग 30 स्वयंसेवी संगठनों से जुड़कर अनेक प्रकार के सेवा कार्य भी करते हैं। उनका सालाना कारोबार लगभग 1,000 करोड़ रु. का है। यहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने जो संघर्ष किया है, उस पर सहसा विश्वास नहीं होता, लेकिन यह तथ्य सोलह आने सच है। उन्होंने 11 वर्ष तक सूरत में मजदूरी की है। वे भावनगर जिले के सहजलिया गांव के रहने वाले हैं। 1984 में वे गांव के स्कूल में छठी कक्षा में पढ़ते थे। एक दिन स्कूल से लौटे और मां से खाना मांगा तो उन्होंने कहा, ‘‘बेटा! आज खाने के लिए कुछ नहीं है।’’ यह बात उन्हें अंदर तक हिला गई। इसके बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़कर कुछ काम करने का निर्णय लिया, लेकिन गांव में ऐसा कोई काम नहीं था। संयोग से उन्हीं दिनों गांव के कुछ लोग मजदूरी करने के लिए सूरत जा रहे थे। उस बालक ने भी सूरत जाने का निर्णय लिया, लेकिन गांठ में भाड़े के लिए भी एक पैसा नहीं। किसी रिश्तेदार से भाड़े का इंतजाम किया और चल पड़े सूरत के लिए। यहां वे गांववालों के साथ ही रहकर हीरे के एक कारखाने में मजदूरी करने लगे। उस समय उनके पास दो कपड़ों के अलावा कुछ नहीं था। उन्हें यह भी नहीं पता था कि नहाने और कपड़े धोने के साबुन अलग-अलग होते हैं। उन्हें बाल मजदूर मानकर एक सामान्य मजदूर से कम ही पैसा दिया जाता था। इस कारण कई बार वे भूखे ही रहना पड़ता था। कुछ महीने बाद जब वे कुछ काम सीख गए तो पैसा थोड़ा ज्यादा मिलने लगा। इससे उन्हें थोड़ी राहत मिली।
वे बताते हैं, ‘‘जो मजदूरी मिलती थी, उसी में से कुछ गांव भेजता था और कुछ अपने पास रखता था। कई वर्ष तक सूरत में फटेहाल जिंदगी बिताई। न खाने का ठिकाना था और न ही रहने का। पैसा बचाने के लिए कभी पानी पीकर दिन काटा, तो कभी भूख से कम खाना खाया। इस तरह 11 साल में करीब 3,00000 रु. जमा कर पाया। इसके बाद कुछ अपना ही काम करने का मन बनाया।’’ वे कहते हैं, ‘‘कुछ पढ़ा-लिखा तो था नहीं, इसलिए ऐसा कोई काम तो कर नहीं सकता था। कुछ दोस्तों से पूछा कि क्या करें तो उन्होंने कहा कि भवन निर्माण का काम कर सकते हो, लेकिन इतनी कम पंूजी में यह काम तो शुरू भी नहीं हो सकता था।’’
इसके बाद उन्होंने अपना काम करने का विचार कुछ दिनों के लिए छोड़ दिया। पर कुछ दोस्त उनकी मदद के लिए आगे आए और 1995 में मामूली पंूजी से भवन निर्माण का काम करना शुरू किया। आज उनकी कंपनी सूरत ही नहीं, देशभर में जानी-पहचानी कंपनी बन चुकी है। उनकी कंपनी में प्रत्यक्ष रूप से 3,000 लोग काम करते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से कई हजार लोगों की रोजी-रोटी चलती है। वे सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यों में बढ़-चढ़कर योगदान करते हैं। उनका मानना है कि देश में जो भी संपन्न और प्रभावशाली लोग हैं, उन्हें गरीबी समाप्त करने के लिए मिल-जुल कर काम करना चाहिए। गरीबी कोढ़ है, जिसका इलाज करना ही होगा।
वे कहते हैं, ‘‘सूरत आया था तब बहुत लोगों को कड़ी जब मेहनत करते हुए देखता था। उन लोगों को देखकर मुझे भी मेहनत करने की प्रेरणा मिली और मैं दिन-रात काम करने लगा। उसी मेहनत की वजह से यहां तक पहुंचा हूं।’’ यानी कड़ी मेहनत ने एक मजदूर को अरबों रुपए का ‘मालिक’ बना दिया। अब वे सच में ‘बादशाह’ हैं।
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