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उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से पलायन कर दिल्ली आकर बसे डॉ. विनोद बछेती ने एक अलग पहचान बनाई है। 1996 में न्यू अशोक नगर जैसे पिछड़े इलाके में उन्होंने दो कमरों से दिल्ली पैरामेडिकल एंड मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट (डीपीएमआई) की नींव डाली, जो बहुत कम लागत पर व्यावसायिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण दे रहा है।
नाम : डॉ. विनोद बछेती (46 वर्ष)
व्यवसाय : डीपीएमआई के चेयरमैन
प्रेरणा : नाना से कुछ नया करने की सीख जिससे लोगों को रोजगार मिले
अविस्मरणीय क्षण : एक दशक के संघर्ष के बाद मिलने वाली सफलता
10 वर्षों में पैरामेडिकल क्षेत्र में 1.25 लाख कुशल तकनीकी सहयोगी तैयार करने का लक्ष्य
नागार्जुन
डॉ. विनोद बछेती का जन्म पौड़ी गढ़वाल के कांडा गांव में एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ। उन्होंने आठ साल की उम्र तक गांव में ही पढ़ाई की। पिता केंद्रीय कर्मचारी थे और दिल्ली में सरकारी आवास मिला तो 1979-80 में पूरा परिवार सरोजिनी नगर इलाके में आ गया। पिता चाहते थे कि चारों बेटों में से कोई एक भी सरकारी नौकरी करे ताकि भविष्य में उसे भी सरकारी आवास मिल जाए। डॉ. बछेती ने मेडिकल क्षेत्र में चार वर्षीय बीएमएस डिग्री हासिल की, लेकिन शुरू से ही उनकी इच्छा कुछ अलग करने की थी। शिक्षा और रोजगार के अभाव में 1980 से 90 के बीच उत्तराखंड से बड़े पैमाने पर होने वाला पलायन उनके मन को मथ रहा था। इसलिए उन्होंने व्यावसायिक शिक्षा पर जोर दिया ताकि पढ़ाई के तुरंत बाद बच्चों को रोजगार तो मिले ही, देश को भी कुशल कर्मी मिल सकें। इस सोच के साथ 1996 में उन्होंने डीपीएमआई की नींव रखी, जिसमें बेहद किफायती दर पर पैरामेडिकल एवं तकनीकी प्रबंधन तथा होटल प्रबंधन की शिक्षा दी जाती है। पैरामेडिकल में सर्टिफिकेट और डिप्लोमा के लिए शुल्क क्रमश: 30,000 व 45,000 रुपये है, जो अन्य संस्थानों के मुकाबले लगभग आधा है। वर्तमान में डीपीएमआई की देशभर में दो दर्जन से अधिक शाखाएं हैं। यह आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों को भी मामूली शुल्क पर शिक्षा दे रहा है। इसके लिए इसमें सर्टिफिकेट से लेकर डिप्लोमा तक की पढ़ाई होती है और नेपाल, भूटान, नाईजीरिया और दुबई से भी बच्चे पढ़ने आते हैं। संस्थान में कैंपस चयन की भी व्यवस्था है। उनके विद्यार्थी दिल्ली एम्स, वेदांता, फोर्टिस, मैक्स और एस्कॉर्ट जैसे प्रसिद्ध अस्पतालों में बतौर तकनीशियन सहायक के तौर पर काम कर रहे हैं। शिक्षा की गुणवत्ता पर डीपीएमआई की एमडी और डॉ. बछेती की पत्नी एमडी पूनम बछेती निगाह रखती हैं।
सपने देखने चाहिए। लेकिन उन्हें साकार करने के लिए प्रयास भी जरूरी है। लक्ष्य स्पष्ट हो तो हिम्मत और मेहनत से उसे पाया जा सकता है।
डॉ. बछेती कहते हैं, ‘‘दिल्ली आने के बाद मैंने जो सपने देखे थे, उनके पीछे दौड़ना शुरू कर दिया। पहाड़ के लोग अमूमन जोखिम नहीं उठाना चाहते। उनकी सोच कभी व्यावसायिक रही ही नहीं। वे सरकारी या अच्छी प्राइवेट नौकरी के बारे में ही सोचते हैं। मुझे इस सोच को बदलना था। मैंने जो काम शुरू किया, वह घरवालों, खासकर पिताजी को पसंद नहीं था। उन्हें लगता था कि इसमें कोई भविष्य नहीं है। आलम यह था कि काम शुरू करने के आठ वर्ष तक घर से मेरा नाता सिर्फ खाने और सोने तक ही रहा। लेकिन जब सफलता मिली तो परिवार के लोगों का भी नजरिया बदला। मेरे नाना व्यवसायी थे। वे कहा करते थे कि कुछ नया करो। कोई ऐसा रोजगारपरक काम करो जिससे बड़े पैमाने पर लोगों को रोजगार मिले। उनकी इस सीख ने मेरे सोचने की दिशा बदल दी।’’ डॉ. बछेते बताते हैं कि पहाड़ों में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव को देखते हुए उन्होंने डॉक्टर बनने का सपना छोड़कर ऐसी शिक्षा देने पर ध्यान केंद्रित किया जिससे नई पीढ़ी को तुरंत नौकरी मिले। वे कहते हैं, ‘‘मैं देखता था कि उस समय हर माता-पिता का एक ही सपना होता था कि उनका बच्चा डॉक्टर या इंजीनियर बने। एक सामान्य परिवार बच्चों को मेडिकल या इंजीनियरिंग की कोचिंग कराने पर ही पूरी जमा-पूंजी खर्च कर देता है। बदकिस्मती से अगर बच्चा प्रवेश परीक्षा पास नहीं कर पाता तो आगे के रास्ते जैसे बंद से हो जाते हैं। मैंने यह भी देखा कि स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं केवल उत्तराखंड में ही नहीं हैं, बल्कि देशभर में हैं। देश में केवल एमबीबीएस, बीएमएस, बीयूएमएस पर ही ध्यान दिया जाता है, पर डॉक्टरों को जिन सहयोगी कर्मचारियों की जरूरत होती है, उस तरफ किसी का ध्यान ही नहीं है। मेडिकल क्षेत्र से जुड़ा होने के कारण मेरा ध्यान इसी तरफ गया। 50 बिस्तरों वाले एक अस्पताल में अगर पांच डॉक्टर चाहिए तो 50 नर्सिंग असिस्टेंट, लैब तकनीशियन, ओ.टी. तकनीशियन आदि की भी जरूरत होती है। अभी पैरामेडिकल के क्षेत्र में 80 फीसदी योगदान निजी क्षेत्र का ही है। चूंकि यह क्षेत्र नया था और इसमें रोजगार के अवसर भी भरपूर थे, इसलिए मैंने इसी दिशा में काम करने के बारे में सोचा। बाद में होटल प्रबंधन जैसे पाठ्यक्रम भी शुरू किए जो 10वीं या 12वीं पास बच्चों के करियर को नई दिशा दे सकें।’’ डीपीएमआई ने ‘राष्ट्रीय कौशल विकास निगम’ के साथ एक करार किया है, जिसके तहत संस्थान को एनएसडीसी के लिए अगले दस वर्ष में पैरामेडिकल के क्षेत्र में 1.25 लाख दक्ष तकनीकी सहयोगी तैयार करने हैं। इसके लिए एनएसडीसी डॉ. बछेती के संस्थान को आर्थिक सहयोग भी देगा।
इतनी बड़ी सफलता के बावजूद डॉ. बछेती विनम्र और संवेदनशील हैं। अपने राज्य और देश के लिए उनका प्रेम बहुत प्रगाढ़ है। वे उत्तराखंड के सामाजिक सरोकारों से भी जुड़े हुए हैं और वहां के लोगों को एक-दूसरे से जोड़े रखने के लिए समय-समय पर कार्यक्रमों का आयोजन करते रहते हैं। साथ ही, पहाड़ की संस्कृति और भाषा को भी संरक्षण दे रहे हैं। इसके लिए वे गर्मी की छुट्टियों में उत्तराखंड के बच्चों के लिए गढ़वाली एवं कुमाऊंनी भाषा की कक्षाएं चलाते हैं। उनके इस प्रयास से लगभग पांच सौ बच्चे ये भाषाएं सीख चुके हैं। इतना ही नहीं, डीपीएमआई 60 साल से अधिक उम्र के बुजुर्गों को मुफ्त खून जांच और मधुमेह जांच जैसी सुविधाएं भी मुहैया कराता है। इतना काम करने के बावजूद डॉ. बछेती ने अपनी पढ़ाई बराबर जारी रखी है। पहले बीएमएस, फिर व्यापार प्रबंधन में डिग्री के बाद अब वे एमबीए कर रहे हैं।
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