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जीना शान से, जूझना जान से

by
Oct 16, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 Oct 2017 13:15:27


दिल्ली के प्रिंटिंग व्यवसायी गोपाल रतूड़ी ने गांव की जिंदगी को करीब से जाना-समझा और आर्थिक रूप से सबल होने के बाद भारत के गांवों तक स्वास्थ्य सेवाएं ले जाने का संकल्प लिया। आज दूर-दराज के अनेक गांवों के लोग उन्हें और दया मेमोरियल चैरिटेबल ट्रस्ट की सेवाभावी टीम को दिल से दुआएं दे रहे

नाम : गोपाल रतूड़ी (50 वर्ष)
व्यवसाय : प्रिंटिंग
प्रेरणा : यूरोप की चकाचौंध के सामने अपने गांवों की स्थितियों को याद किया तो सिहर उठे
अविस्मरणीय क्षण : जड़ीपानी की वृद्धा से आशीर्वाद पाना
10 चिकित्सा शिविरों में करीब 1500 लोगों का इलाज

चंबा के जड़ीपानी गांव के लोग शिविर से बड़ी राहत महसूस कर रहे हैं, और खुश हैं कि कोई उनके बीच आकर उनकी हारी-बीमारी की चिंता कर रहा है, दुख-तकलीफ समझ
रहा है।

 

आलोक गोस्वामी

सन् उन्नीस सौ सत्तासी में नई दिल्ली के वाईएमसीए में ‘एडवरटाइजिंग एंड पब्लिक रिलेशन’ के डिप्लोमा कोर्स में दाखिला लेते वक्त गोपाल रतूड़ी ने सोचा तक नहीं था कि यहां सीखे गुर उनकी जिंदगी की राह बदल देंगे। महज दो साल बाद ही, एक एडवरटाइजिंग कंपनी की बेकायदा-सी नौकरी से शाम को थक-हारकर डीटीसी बस से घर लौटते हुए उन्हें यकायक लगा कि बस, बहुत हुआ, अब अपने मन की राह चलेंगे। अगले दिन नौकरी से इस्तीफा देकर उन्होंने बचपन के दोस्त और प्रकाशन व्यवसाय में माहिर दीपक केसरी के साथ मिलकर उस ‘मल्टीप्लैक्स इंडिया’ की बुनियाद डाली जो अपनी गजब की छपाई और नवाचार की बदौलत आज सिर्फ दिल्ली ही नहीं, पूरे देश की चुनिंदा अव्वल प्रिंटिग कंपनियों में शुमार हो चुकी है।
गोपाल का 1989 से शुरू हुआ यह सफर सीधा-सरल तो कतई नहीं रहा। दीपक के साथ धूप-ताप-आंधी-तूफान में भी अपने दुपहिया पर सुबह से देर शाम तक क्लाइंट्स का सामान पहुुंचाना, आॅर्डर लेना, नए क्लाइंट्स बनाना और फिर तमाम प्रिंटिग प्रेस में जाकर काम करवाना पड़ता था। लेकिन दोनों ने साथ मिलकर हर मुश्किल का सामना किया, और हताशा या उत्तेजना को कभी पास फटकने नहीं दिया। गोपाल एक पुराना वाकया बताते हैं, ‘‘काम शुरू ही किया था। हमें दूसरे शहर के एक क्लाइंट से बड़ा आॅर्डर मिला। काम करके सामान ट्रक से भेज दिया। अगले दिन खबर मिली कि ट्रक पलट गया। मुझे एकबारगी झटका लगा कि अब कैसे करेंगे? क्या होगा? लेकिन दीपक को जब यह बात बताई तो वे जोर से हंस पड़े और बोले, ‘कोई नहीं, जो होगा, देखेंगे।’ दीपक के उस रिएक्शन से हौसला मिला। वह दिन है और आज का दिन, मेरा यही मानना रहा है, जियो तो शान से और जूझो तो जान से।’’    
तिमारपुर की बी.डी. एस्टेट कॉलोनी में छोटे स्तर से शुरू करके आज उनकी कंपनी का कामकाज नरेला इंडस्ट्रियल एरिया में खुद की 4 मंजिला इमारत से चलता है। 1995 में पहली दुरंगी छपाई मशीन लगाने के बाद मल्टीप्लैक्स में आज एक चार रंगी छपाई, एक दो रंगी छपाई और दो डिजिटल छपाई की मशीनें हैं। आज दिल्ली में स्थित तमाम दूतावासों का सारा छपाई का काम मल्टीप्लैक्स ही संभाल रही है। इतना ही नहीं, फिक्की, एसोचैम, सीआईआई, पीएचडी चैंबर आॅफ कॉमर्स, आइसीआरसी, यूएनडीपी, यूनेस्को, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ, रोटरी इंटरनेशनल, जीआईजेड, आईएफआरसी, यू.एस.ऐड जैसी ख्यातिप्राप्त संस्थाओं के लिए काम करना उनके लिए कोई कम सम्मान की बात नहीं है। नेशनल अवार्ड फॉर प्रिंटिंग एक्सिलेंस का लगातार दो बार सम्मान पाना भी छपाई के क्षेत्र में उनकी कंपनी के परचम को ऊंचा फहराता है।
  लेकिन इतनी ख्याति और आर्थिक रूप से बेहतर होने के बाद भी समाज के दुख-दर्द को करीब से समझने वाले गोपाल के मन में हमेशा से यह था कि कैसे समाज के लिए कुछ किया जाए, क्या करें कि दूसरों के दुख-तकलीफ को बांट सकें। उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल में रैंडोल गांव में जन्मे 50 वर्षीय गोपाल रतूड़ी गांव के तमाम अभावों से ग्रस्त जीवन के बारे में वाकिफ थे। 2004 में यूरोप दौरे से भारत लौटते हुए हवाई जहाज में उनके दिमाग में कुछ ऐसे ही ख्याल घुमड़ रहे थे। सोच रहे थे कि कहां यूरोप की चकाचौंध और कहां हमारे गांव, जहां बुनियादी इलाज तक नहीं मिल पा रहा। भारत लौटते ही गोपाल ने अपने परिचित डॉ. आर. के. कपूर से संपर्क किया और उनके दया मेमोरियल चेरिटेबल ट्रस्ट के चिकित्सा शिविरों को हर तरह की सहायता देने की पेशकश की। फिर क्या था, एक के बाद एक, दूर-दराज के गांवों में ट्रस्ट की तरफ से चिकित्सा शिविर लगाए जाने लगे। गोपाल अपनी भागदौड़ से भरी जीवनचर्या में से कैसे भी इन शिविरों के लिए न सिर्फ वक्त निकालते हैं बल्कि उन्होंने कई और सेवाभावियों को अपने साथ जोड़ा है। पैसे, दवा, स्थान और पूरी टीम को जगह-जगह शिविरों में ले जाकर सारी व्यवस्था की जिम्मेदारी गोपाल संभालते हैं। अभी 30 सितम्बर-1 अक्तूबर को उनका 10वां चिकित्सा शिविर चंबा जिले के जड़ीपानी गांव में संपन्न हुआ। जड़ीपानी के लोग शिविर से बड़ी राहत महसूस कर रहे हैं, और खुश हैं कि कोई उनके बीच आकर उनकी हारी-बीमारी की चिंता कर रहा है। इस गांव के 70 साल के भोला सिंह तो दुआएं देते नहीं थकते। वे कहते हैं,‘‘ये लोग जिस तरह हम गांववालों की चिंता करते हैं, उसके लिए हम सबकी दुआएं इनके साथ हैं।’’ और शिवभक्त गोपाल के साथ आशीष है नीलकंठ का, जिसके वे 2015 में कैलाश मानसरोवर जाकर साक्षात् दर्शन कर आए हैं। समाज सेवा के इस काम को आगे किस स्तर तक ले जाएंगे? इस सवाल के जवाब में गोपाल कहते हैं, ‘‘हमने रूरल इंडिया मेडिकल क्लीनिक यानी आरआईएमसी योजना के तहत देश भर में ऐसे केन्द्र स्थापित करने का काम शुरू कर दिया है जहां महीने में एक बार डॉक्टर जाएंगे और गांववालों  के तमाम रोगों का इलाज करेंगे। हमारी एक्स-रे वगैरह की मशीनें और अन्य चीजें केन्द्र में ही रखी रहेंगी।’’  
ऐसा नहीं है कि गोपाल चिकित्सा के क्षेत्र में ही अपना समय और पैसा लगाते हैं, बल्कि 2013 में उत्तराखंड में आई भयंकर बाढ़ और भूस्खलन के दौरान सबसे पहले राहत सामग्री ले-जाकर वहां लोगों की मदद करने वालों में शामिल थे गोपाल। वहां उन्होंने बाढ़ में फंसे लोगों को खुद रस्सी के सहारे सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाया। जुझारू प्रवृत्ति के गोपाल ने जीवन में किसी चीज से समझौता न करते हुए, अपनी पत्नी रीना और दो  बेटों, पराक्रम और प्रत्यक्ष को भी ऐसे ही संस्कार दिए हैं। शायद यही कारण है कि रीना खुद भी दिल्ली की एक गैर सरकारी संस्था से जुड़कर गरीब-गुरबों के बच्चों को पढ़ाने जाती हैं, और समय-समय पर उन्हें पढ़ने-लिखने की चीजें देती रहती हैं। गोपाल का जीवन सच में एक मिसाल है, जो बताता है कि हमें जो मिला है, वह सब समाज से ही तो मिला है, इसलिए हम जितना हो, समाज के साथ वह सब बांटें। सच्चे सुख का रास्ता इससे अलग कैसे हो सकता है।

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