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- प्रमोद कुमार
लोकनायक अस्पताल दिल्ली सरकार का सबसे बड़ा अस्पताल है जहां अनेक राज्यों से मरीज आते हैं। इस साल 7 जून को एक लावारिस मानसिक रोगी को गंभीर हालत में यहां भर्ती कराया गया। उसकी नाजुक हालत को देखकर अस्पताल की एक नर्स को लगा कि यहां उसकी देखभाल नहीं हो पाएगी। इसलिए उसने बाहरी दिल्ली के पूठ खुर्द गांव में बेसहारा लोगों की सेवा हेतु संचालित एक आश्रम को उसे ले जाने हेतु फोन किया। फोन कॉल जाते ही आश्रम की एंबुलेंस आई और उसे ले गई। सेवा और उपचार के तीन सप्ताह बाद उसने अपना नाम पूरनमल बताया। परन्तु वह अपना पता बताने में असमर्थ था। एक दिन उसे अचानक याद आया कि वह राजस्थान के अजमेर स्थित केकड़ी गांव का रहने वाला है। उसके बताये पते पर जब स्थानीय पुलिस की मदद से संपर्क किया गया तो उसके परिवारजनों का पता चल गया। सूचना मिलते ही पूरनमल की बूढ़ी मां और परिवार के आठ लोग उसे लेने 1 जुलाई को दिल्ली आ पहंुचे। बेटे को 17 साल बाद जीवित देखकर बूढ़ी मां के आंसू थम नहीं रहे थे। पूरनमल जैसे करीब 800 अन्य लोग, जो विभिन्न कारणों से अपने परिवार से सालों पहले बिछड़ गये थे, इस आश्रम की सेवा और उपचार के बाद स्वस्थ होकर पुन: अपने परिवारजनों से मिल सके। यह आश्रम है 'अपना घर'—बेसहारा व लावारिस बुजुर्गों, निशक्तजनों, मनोरोगियों तथा घायलों को सहारा देना वाला 'घर'।
साधारणतया एक मनोरोगी को समाज में हर कोई नजरअंदाज करता है। गंदगी के ढेर पर तिरस्कृत जिंदगी गुजारते ऐसे लोग सभी नगरों एवं महानगरों में भी दिख जाते हैं। उन्हें पता ही नहीं होता कि वे कौन हैं और कहां से आए हैं? वे न मांगकर खा सकते हैं, न छीनकर। न उन्हें अपनी बीमारी का पता होता है, न ही शरीर के घावों और उनमें रेंगते कीड़ों का। गंदगी और बदबू के कारण कोई उनकी तरफ देखना तक पसंद नहीं करता। लेकिन 'अपनाघर' ऐसे सभी लोगों को 'प्रभुजी' मानकर उनकी सेवा करता है। गंदगी के कारण जिन मरीजों का इलाज करने से सरकारी अस्पताल भी इनकार कर देते हैं, ऐसे सभी लोगों की सेवा में 'अपना घर' के सेवासाथी 24 घंटे लगे रहते हैं।
अपने ही घर से की शुरुआत
'मां माधुरी ब्रज वारिस सेवा सदन अपनाघर' की विधिवत् शुरुआत तो 29 जून, 2000 को राजस्थान के भरतपुर जिले मेंं स्थित बझेेरा गांव में हुई, परन्तु इसके सूत्रधार होम्योपैथी के चिकित्सक डॉ. ब्रजमोहन भारद्वाज और उनकी पत्नी डॉ. माधुरी ने 1994-95 में ही अपने दो कमरों के मकान से कर दी थी। बाद में डॉ. भारद्वाज ने पत्नी के गहने गिरवी रखकर और ब्याज पर कुछ पैसे उधार लेकर पांच बीघा जमीन खरीदी और बडे़ भवन का
निर्माण किया।
अब 'अपनाघर' के राजस्थान में 11 और अन्य राज्यों में कुल 20 आश्रम हैं। डॉ. भारद्वाज और डॉ. माधुरी ने इस संकल्प के साथ विवाह किया था कि वे संतान पैदा नहीं करेंगे और सड़कों पर तिरस्कृत जिंदगी जी रहे मनोरोगियों तथा असहाय लोगों की सेवा में अपना जीवन समर्पित करेंगे। उनके इस संकल्प की बदौलत ही अभी तक 11,000 से अधिक मनोरोगी व अन्य लोग स्वस्थ होकर पुन: अपने परिवारजनों से मिल सके हैं। सभी आश्रमों में इस समय करीब 3,500 रोगियों की सेवा की जा रही है।
ऐसे मिली प्रेरणा
डॉ. भारद्वाज मूल रूप से अलीगढ़ की खैर तहसील के सहरोई गांव के रहने वाले हैं। उन्होंने 11 साल की आयु में अपने गांव में ही चिरंजी बाबा नाम के एक असहाय बुजुर्ग को गंभीर घावों के कारण कष्ट भोगते हुए देखा। जब तक चिरंजी बाबा के हाथ-पांव सलामत थे, तब तक वे गांववालों के पशुओं की देखभाल करते रहे और गांववाले भी उनके भोजन आदि की जरूरतों का ख्याल रखते रहे, लेकिन जैसे ही उनके शरीर ने साथ देना बंद किया, गांववालों ने भी उन्हें नजरअंदाज करना शुरू कर दिया। उस हालत में बालक ब्रजमोहन ने उनकी सेवा की। आयु की अधिकता और बीमारी के कारण चिरंजी बाबा तो बच नहीं सके, परन्तु उस घटना ने बालक ब्रजमोहन को इतना झकझोर दिया कि उसने निश्चय कर लिया कि अब जीवन में किसी को असहाय नहीं जीने दूंगा। बाद में भरतपुर के भारतीय होमियोपैथिक कॉलेज से बीएचएमएस करने के बाद जब उन्होंने बझेरा गांव के एक 'क्लीनिक' पर अपने वरिष्ठ साथी डॉक्टर के साथ 'प्रैक्टिस' शुरू की तो थोडे़ ही दिन में वे बचपन के संकल्प की ओर मुड़ गए। पड़ोस के गांव में लोगों को पत्थर मारते और धमकाते घूमते एक 50 वर्षीय मनोरोगी रामदीन को वे अपने घर ले आए। उसके शरीर पर गहरे जख्म थे, जिनमें कीड़े रंेग रहे थे। पत्नी माधुरी को साथ लेकर पहले उन्होंने उसके जख्म साफ किये, नहलाया और भोजन कराया। कई दिन से भूखे रामदीन ने आधा दर्जन केले और 250 ग्राम मूंगफली खाने के थोड़ी देर बाद ही 34 रोटियां खाईं। नियमित इलाज और सेवा से रामदीन स्वस्थ हो गया।
उन दिनों डॉ. भारद्वाज की डाक्टरी अच्छी चल रही थी। महीने में करीब एक लाख रुपये की आय हो जाती थी। इसके बावजूद वे अपनी साइकिल पर ही प्रतिदिन करीब 50 किमी. का सफर तय करते थे। जहां, जो भी मनोरोगी असहाय हालत में दिख जाता, वे उसे अपने घर ले आते और सेवा शुरू कर देते। अपनी डाक्टरी से जो कुछ कमाते, सब उनके इलाज और सेवा पर खर्च कर देते। इससे परिवार वालों का नाराज होना स्वाभाविक था। परन्तु वे अपने संकल्प से डिगे नहीं। शुरू में तो बझेरा गांव में भी कुछ लोगों ने विरोध किया। उन्हें बहुत दिनों तक यह विश्वास ही नहीं हुआ कि अलीगढ़ से आकर एक व्यक्ति भरतपुर के एक पिछडे़ गांव में लोगों की सेवा क्यों करना चाहता है? शुरू के सात साल तक पति-पत्नी ने ही एक अन्य व्यक्ति की मदद से 25 रोगियों की अकेले सेवा की। आज भरतपुर में 1950 से अधिक रोगियांें की प्रतिदिन सेवा की जाती है। पिछले दो साल से तो यहां सभी प्रकार के जीवों यानी गाय, ऊंट, कुत्ता, बिल्ली, चिडि़या आदि की सेवा का भी प्रबंध है।
हर रोगी में प्रभु दर्शन
गंदगी से लिपटे मनोरोगी की ऐसी दशा होती है कि कोई भी सामान्य व्यक्ति उसे छूना तक पसंद नहीं करता। लंबे बाल, मल-मूत्र में सने बदबूदार कपडे़, जख्मी हालत और कभी-कभी तो जख्मों में रेंगते कीड़े। उस हालत में उनकी सेवा करना निश्चित रूप से साहस का काम है। लेकिन 'अपना घर' में सभी की सेवा होती है। मनोरोगी महिलाओं की मजबूरी का नाजायज फायदा उठाने वाली दुष्टात्माओं की भी समाज में कमी नहीं है। यही कारण है कि भरतपुर में ऐसी महिलाओं के करीब 85 बच्चे हैं जो आश्रम में आने से पहले गर्भवती थीं। उनकी मानसिक हालत ऐसी थी कि उन्हें पता ही नहीं चला कि वे कब कैसे गर्भवती हो गयीं। ऐसी महिलाएं पुलिस और प्रशासन की मदद से वहां पहुंचीं। उनके बच्चों की देखभाल हेतु अलग से व्यवस्था की गई है। इनमें करीब 12 बच्चे जन्म से ही एड्स पीडि़त हैं।
कहीं से भी आए रोगी, सबका स्वागत
दिल्ली में 'अपनाघर' के दो आश्रम हैं। एक पूठ खुर्द में और दूसरा बूढ़पुर में। पूठ खुर्द में पुरुषों के रहने की व्यवस्था है, जबकि बूढ़पुर में महिलाओं की सेवा और उपचार की व्यवस्था है। पूठ खुर्द स्थित 'अपनाघर' के प्रभारी अशोक बंसल बताते हैं, ''हम किसी भी व्यक्ति को बेचारा, लाचार अथवा लावारिस नहीं मानते। हमारा मानना है कि ये भगवान का ही रूप हैं और भगवान ही हमें इनके रूप में अपनी सेवा का अवसर प्रदान कर रहे हैं। हम इन्हें 'प्रभुजी' कहते ही नहीं, मानते भी हैं।''
पूठ खुर्द गांव रिठाला मैट्रो स्टेशन से करीब 12 किमी दूर है। इस केन्द्र की शुरुआत 28 अक्तूबर, 2012 को हुई। 25 अगस्त, 2017 को जब मुझे वहां जाने का अवसर मिला, उस दिन यहां 243 'प्रभुजी' थे। श्री बंसल बताते हैं कि 2012 से लेकर अभी तक यहां 2100 'प्रभुजी' आए, जिनमें से करीब 800 स्वस्थ होकर फिर से अपने परिवारों से मिल पाए हैं। यहां असम, बंगाल, मध्य प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र आदि अनेक दूरदराज के प्रदेशों से लोग आते हैं।
श्री बंसल के अनुसार ऐसे लोगों के बारे में अपनाघर को सूचना मुख्य रूप से पुलिस, रेलवे स्टेशन कर्मचारियों, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों और अस्पताल कर्मचारियों से मिलती है। जैसे ही सूचना मिलती है 'अपनाघर' की एंबुलेंस बताये हुए पते पर पहंुच जाती है। वहां पहुंचते ही सबसे पहला काम 100 नं. पर पुलिस को फोन करने का होता है। पुलिस की मौजूदगी में संबंधित व्यक्ति की जांच और मेडिकल कराया जाता है। मेडिकल इसलिए कराया जाता है ताकि बाद में किसी प्रकार का आरोप न लगे। पुलिस कार्रवाई के बाद जिन्हंे अस्पताल में भर्ती कराने की जरूरत होती है, उन्हें अस्पताल लेकर जाते हैं, जिनकी हालत गंभीर नहीं होती, उन्हें सीधे 'अपना घर' लाया जाता है। अक्सर रोगियों को दिल्ली सरकार के अंबेडकर अस्पताल में भर्ती कराया जाता है। एक्शन बालाजी अस्पताल में भी कुछ मरीजों को भर्ती कराया जाता है। इसके अलावा 'अपनाघर' से जुड़ी डॉक्टरों एवं मेडिकल स्टाफ की एक विशिष्ट टीम है जो इनकी हर प्रकार से देखभाल करती है।
अपना घर
* 29 जून 2000 को भरतपुर के बझेरा गांव में स्थापना
* प्रत्येक आश्रमवासी के लिए
* 'प्रभुजी' संबोधन
* 3500 रोगियों की विभिन्न आश्रमों मंे सेवा जारी। अभी तक 11,000 से अधिक को उनके परिवारों से मिलवाया गया
*सिर्फ भरतपुर में करीब 2000 प्रभुजी का वास, 175 सेवासाथी सेवारत
*76 बच्चों की पढ़ाई आदि की पूरी व्यवस्था
*पढ़ाई हेतु विद्याभारती की मदद से आरम में शुरू हुआ आदर्श विद्या मंदिर
कहां-कहां हैं आश्रम?
*राजस्थान में भरतपुर, अजमेर व बीकानेर में दो-दो, कोटा, श्रीगंगानगर, बीकानेर, अलवर, पाली, नोखा, हिंडोन, बस्सी जयपुर और जोधपुर, उत्तर प्रदेश में कोकिलावन, हाथरस, शामली और गोवर्धन, दिल्ली में पूठ खुर्द और बूढ़पुर। काठमांडू में निर्माणाधीन
* भरतपुर में 2000 बिस्तरों का अस्पताल जनवरी 2018 में शुरू होने वाला है। गोवर्धन में 700 बिस्तरों का अस्पताल निर्माणाधीन
हर बेसहारा का सहारा
चूंकि ऐसे सभी रोगी बहुत खराब हालत में होते हैं, इसलिए पहले उन्हें आश्रम में लाकर उनकी साफ-सफाई की जाती है। उसके बाद साफ कपडे़ पहनाकर ही अस्पताल लेकर जाते हैं। शुरू में तो वे अपने बारे में कुछ भी बता पाने में असमर्थ होते हैं, लेकिन जब ठीक होने लगते हैं तो कुछ न कुछ बताने लगते हैं। उनके बारे में कुछ भी जानकारी मिलते ही इस काम के लिए खासतौर से प्रशिक्षित 'अपना घर' की टीम स्थानीय पुलिस प्रशासन की मदद से उनके परिवारजनों को ढूंढना शुरू करती है। सूचना मिलने पर कुछ परिवारजन तो आ जाते हैं और अपने व्यक्ति को वापस ले जाते हैं, परन्तु कुछ आने के बाद भी वापस नहीं ले जाते। 'अपनाघर' के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एन.पी. सिंह बताते हैं, ''यदि परिवारजन तैयार न हों तो हम जबरदस्ती किसी को नहीं भेजते। ऐसा करने से इनके फिर से सड़क पर आने की संभावना बन जाती है। ऐसे लोग जिंदगीभर आश्रम में ही रहकर आश्रम की विभिन्न सेवाओं जैसे साफ-सफाई, भोजन, दवा आदि में मदद करते हैं।''
'अपना घर' पूठ खुर्द में रोगियों की सेवा एवं उपचार का पूर्ण प्रबंध है। स्नान के लिए एक 'अभिषेक कक्ष' हैं जहां बाल काटने से लेकर स्नान तक की पूरी व्यवस्था है। एक विशाल रसोईघर है, जहां आधुनिक तरीके से 250 लोगों का भोजन तैयार होता है। चिकित्सालय में इलाज का पूरा प्रबंध है। चिकित्सालय की व्यवस्था देख रहे कुलदीप बताते हैं कि जून के महीने में 101 रोगी आए, जिनमें से 40 को उनके परिवार से मिलवा दिया गया।
ताकि कोई असहाय महसूस न करे!
महिलाओं के साथ आए सभी बच्चे भरतपुर मुख्यालय में रखे गये हैं, जहां उनके पालन-पोषण और पढ़ाई-लिखाई आदि की पूरी व्यवस्था है। सभी केन्द्रों से बच्चे यहीं भेज दिये जाते हैं। महिलाओं हेतु आश्रम सिर्फ राजस्थान के भरतपुर, कोटा व अजमेर तथा दिल्ली के बूढ़पुर में ही हैं। भरतपुर में महिलाओं की प्रसूति से लेकर उनके बच्चों की पढ़ाई तक की पूर्ण व्यवस्था है। वहां अभी 76 बच्चे हैं। तीन साल की आयु से ही बच्चों की पढ़ाई शुरू हो जाती है। इसके लिए शिक्षक की व्यवस्था की गयी है। बाद में अच्छे स्कूलों में उनका दाखिला करा दिया जाता है। अब विद्या भारती द्वारा संचालित आदर्श विद्या मंदिर के माध्यम से पहली से आठवीं कक्षा तक पढ़ाई होती है।
अपनाघर की दिनचर्या
पूठ खुर्द स्थित चार मंजिले भवन में सुरक्षा की दृष्टि से सभी मंजिलों पर लोहे की जालियां लगाई गई हैं। विशाल प्रांगण में आश्रमवासी टहलने से लेकर भोजन, प्रार्थना आदि करते हैं। आश्रम की दिनचर्या प्रात: 5 बजे जागरण से शुरू होती है। सुबह 7 बजे स्नान होता है। उसके बाद 8 बजे कीर्तन। 9.30 तक नाश्ता। उसी समय दवाइयां भी दे दी जाती हैं। 11.30 बजे दोपहर का भोजन होता है। उसके बाद विश्राम। करीब 2 बजे चाय दी जाती है और 3 बजे अल्पाहार और इसके बाद सायंकाल 5.00 बजे रात्रि भोजन। उसके बाद फिर दवाइयां। एक मनोरोगी से बहुत अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती, इसलिए भजन के माध्यम से उनमें सात्विक भाव जगाया जाता है। दोपहर तथा सायंकाल भोजन से पहले एक भजन अवश्य गाया जाता है, जिसे सामान्यत: आश्रम के सेवाकर्मी मिलकर गाते हैं। स्वस्थ हो चुके कुछ आश्रमवासी भी उसमें शामिल होते हैं। धीरे-धीरे अब दिल्ली के अनेक परिवार आश्रम से जुड़कर सबके साथ अपनी खुशियां बांटते हैं। कुछ जन्मदिन के अवसर पर तो कुछ शादी की वर्षगांठ अथवा अन्य प्रसंगों पर आश्रमवासियों को भोजन कराते हैं। मानवता की सेवा के इस अद्भुत प्रयास को प्रोत्साहित करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहन राव भागवत फरवरी 2016 में भरतपुर स्थित 'अपना घर' गये थे।
संविधान की धारा 242 (डब्ल्यू) की 9वीं अनुसूची के अनुसार अशक्त, मनोरोग से ग्रस्त लोगों के कल्याण का दायित्व राज्य सरकारों का है। आजादी के सात दशक बाद भी किसी भी राज्य में ऐसे लोगों की देखभाल हेतु ठोस व्यवस्था दिखायी नहीं देती। परिणामस्वरूप लाखों लोग सड़कों पर जिंदगी गुजारने को मजबूर हैं। 125 करोड़ जनसंख्या वाले देश में़ यदि 1 प्रतिशत लोग ही ऐसे लोगों की देखभाल का संकल्प कर लें तो देश में कोई भी व्यक्ति सड़क पर रहने को मजबूर नहीं होगा। 'अपनाघर' लोगों में यही भाव जाग्रत करने का प्रयास कर रहा है।
डॉ. भारद्वाज आग्रहपूर्वक कहते हैं, ''कूडे़ के ढेर पर तिरस्कृत जिंदगी गुजार रहे किसी भी व्यक्ति से नफरत मत कीजिए, बस निकट के 'अपनाघर' को सूचित कर दीजिए। हम उसकी सेवा करेंगे। यहां किसी को रखने से इनकार नहीं किया जाता। जहां से सूचना मिलती है, वहीं एंबुलेंस पहंुच जाती है। यदि एक आश्रम से जगह नहीं होती तो दूसरे आश्रम में व्यवस्था कर दी जाती है, लेकिन सेवा से इनकार नहीं किया जाता।'' *
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