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माधवी (नाम परिवर्तित) पत्रकार हैं। चुस्त, सतर्क और अत्यंत संवेदनशील। उनकी संवेदनशीलता ऐसी है कि कई बार रात की नींद, दफ्तर में काम के घंटों और अखबार के पन्नों से भी बाहर छलक पड़ती है। अपने आस-पास, आते-जाते माधवी कई बार कुछ ऐसा देखती हैं जो भले छपे नहीं, किन्तु उन्हें अकुलाहट और चिंता से भर देता है।
ऐसे में वे कलम उठाती हैं और हमें लिख भेजती हैं। इस भरोसे के साथ कि कोई तो उनकी चिंताओं को साझा करेगा। विचारों से भरी, झकझोरती चिट्ठियों की अच्छी-खासी संख्या हो जाने पर हमने काफी सोच-विचार के बाद माधवी की इन पातियों को छापने का निर्णय किया, क्योंकि जगह चाहे अलग हो, लेकिन मुद्दे और चिंताएं तो साझी हैं। आप भी पढ़िए और बताइए, आपको कैसा लगा यह प्रयास
खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग के वार्षिक कैलेंडर में सूत कातते बापू की जगह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ले ली है। एक बुद्धिजीवी से जब इस विषय पर चर्चा हो रही थी, उन्होंने मेरा मत जानने का प्रयास किया। मैंने कहा-चरखा और सूत किसी का पेटेंट तो नहीं। क्या फर्क पड़ता है कैलेंडर में बापू दिखें या मोदी? यह बात ज्यादा मायने रखती है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में करीब 75 फीसदी बेरोजगार हो चुके बुनकरों का जीवन क्या इस पहल से संवर जाएगा? क्या एक-एक धागा पिरोकर खादी को परंपरा बनाने वाले लोग अपने बच्चों को चैन और सुकून की दो रोटी खिला पाएंगे? क्या उनके बच्चों के पढ़-लिखकर आगे बढ़ने अरमान पूरे हो पाएंगे? देश के लिए शायद यही ज्यादा मायने रखता है, पर विडंबना देखिए, यहां सुर्खियां जरूरतमंद लोग न होकर कैलेंडर में छपी फोटो है, जिसका वास्तविक जीवन से सीधा सरोकार नहीं है। फोटो को तवज्जो देकर इस मुद्दे को हवा देने वाले लोग सिर्फ अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए देश को गुमराह कर रहे हैं। इस पूरे परिदृश्य में वे पीछे छूट गए, जिनके लिए सूत कातने कभी गांधीजी और अब पीएम को बैठना पड़ा। आखिर गांधीजी भी तो यही चाहते थे कि चरमराता हथकरघा, मशीनी युग में पीछे ना छूट जाए। इसकी परवाह किसे है?
हर साल देश को 5,000 करोड़ रु. का चूना लगाने वाले विजय माल्या का कैलेंडर और उनकी खूबसूरत मॉडलों की तस्वीरें सुर्खियों में रहती थीं। गांवों में सूत कातने वाले बुनकर आज भी इस चकाचौंध से दूर गुमनाम हैं। देखना होगा कि खादी को लोगों तक पहुंचाने वाले बेहद साधारण और मेहनती लोगों के दिन कब फिरते हैं। इस विषय पर लिखने का मन नहीं था। आॅफिस में चर्चा हुई तो लगा, लिखना चाहिए।
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ऐसा देश है मेरा
भारत क्या है? ऐसी कौन-सी चीज है जो भारतीयों को पूरे विश्व से अलग करती है? यह सच में चिंतन का विषय है। पहले कॉलेज में पढ़ाई के दौरान और बाद में रिपोर्टिंग के दौरान कई लोगों को सुनने का मौका मिला। सबने अपने-अपने तरीके से देश और दुनिया की परिभाषा रखी, पर किसी ने यह नहीं बताया कि क्यों दुनिया हमें विश्व गुरु के खिताब से नवाजती थी? ऐसा क्या है हम भारतीयों की जीवनशैली में जिसका रहस्य जानने के लिए दुनिया आज भी बेताब है? पहली बार जब किसी ने इस बात का बोध कराया तो लगा कि इससे हम जैसे युवाओं का बहुत पहले सरोकार हो जाना चाहिए था।
एक दिन मैंने पापा से पूछा कि अध्यात्म क्या है? मुझसे कोई पूछेगा तो क्या जवाब दूंगी? उन्होंने बड़े प्रेम से समझाया- अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना, मानना और दर्शन करना ही अध्यात्म है। अर्थात् स्वयं को जानना या आत्मप्रज्ञ होना। पापा ने बताया कि गीता के आठवें अध्याय में अपने स्वरूप अर्थात् जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है। स्थूल जगत से सूक्ष्म जगत की यात्रा भारतवर्ष में सदियों से चली आ रही है। पूरी दुनिया इस गूढ़ रहस्य को ही समझने का प्रयास कर रही है। मार्ग भले ही अलग-अलग हों, लेकिन लक्ष्य सभी का एक ही है।
सच बताऊं तो मैं भी इससे अनभिज्ञ थी। हमारी संस्कृति विश्व में सबसे प्राचीन है। लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपनी ही विरासत से अवगत नहीं हैं। यह जानकर अत्यंत प्रसन्नता हुई कि दुनिया के श्रेष्ठ विचारों को समाहित करने का विलक्षण गुण सिर्फ हमारे देश में ही है। विज्ञान के युग में भी अध्यात्म का महत्व कायम है।
आज की नई पीढ़ी भी अब धीरे-धीरे इस महत्व को समझ रही है। पापा ने धर्म और अध्यात्म को सरल शब्दों में समझा दिया। धर्म की ऐसी परिभाषा बताई जो बिल्कुल अलग है। वरना यहां तो धर्म का मतलब केवल हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई से निकाला जाता है।
वास्तव में धर्म वह है जो हमें जीवन जीने की कला सिखाता है। हमें सही और गलत में भेद करना सिखाता है। इस सबसे इतर धर्म इनसान को इनसानियत का पाठ पढ़ाता है। इसीलिए तो हम समान रूप से सभी पंथों-मतों का सम्मान करते हैं।
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