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पाञ्चजन्य ने 1968 में क्रांतिकारियों पर केंद्रित विशेषांकों की शंृखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्य गाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्य गाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित कर रहा है। प्रस्तुत है 29 अप्रैल ,1968 के अंक में प्रकाशित केशवचन्द्र चक्रवर्ती का आलेख :-
उन दिनों दल के नेता श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल मेरे सरीखे एक नौजवान की तलाश में थे, जिसे यूरोप भेजकर एम.एन. राय तथा अन्य विप्लवी बंधुओं से संबंध स्थापित किया जा सके तथा वहां से माऊजर पिस्तौलें आदि शस्त्रास्त्र मंगाए जा सकें। सन् 1924 के मध्य भाग में सान्यालदा ने उत्तर प्रदेश की सारी जिम्मेदारी एक प्रांतीय कमेटी के सुपुर्द कर दी।
दक्षिण कलकत्ता के विप्लवी सुशील बनर्जी के ऊपर जिम्मेदारी थी कि वे मेरे जहाज में जाने का आदि सारा बंदोबस्त कर दें। यात्रा आसान नहीं थी। बाधायें थीं। मेरा काम था पुलिस की नजर बचाकर, जहाज में सवार हो जाऊं तथा बिना पासपोर्ट लिए समुद्री यात्रा करूं। यूरोप के कई देशों में उतर कर फरार विप्लवियों को खोज करके उनसे मिलूं, उन्हें अपना परिचयपत्र देकर यहां की सारी खबर दूं और वहां से जो अस्त्र-शस्त्र तथा चिट्ठी-पत्री मिले उसे खूब गोपनीयता के साथ भारत में लाकर दल के नेता को सौंप दूं।
सन् 1924 के मध्य भाग में जब मैं बीस वर्ष का था, सान्यालदा कलकत्ता में फरारी जीवन व्यतीत करते थे। पुलिस उन्हें खोजती फिरती थी। मैं उन्हें बहुत सावधानी से मिला करता था। मुझको साथ लेकर सुशील बनर्जी जहाजों के सारेंग (खलासियों के अधिनायक) तथा बटलर (यात्रीवाही जहाजों के खानसामाओं तथा बावर्चियों के अधिनायक) लोगों के साथ मिलते-जुलते रहे। कलकत्ता तथा खिदिरपुर डॉक (बंदरगाह) में उन लोगों के साथ बातचीत चलती रही। आखिर एक दिन ''सिटी ऑफ वेनिस'' नाम के एक यात्री जहाज का बटलर यूसुफ मियां दो सौ रुपये लेकर मुझको ले जाने को राजी हुआ। तय हुआ कि वह कप्तान से मेरा परिचय देगा, यह कहकर कि मैं बनर्जी का एक सहकारी हूं। मेरा नाम इदरीस अली रखा गया। बताया गया कि जहाज में मुझको कोई काम नहीं करना होगा, बनर्जी के आस-पास रहना होगा। आलू का छिलका उतारने के काम का बहाना करना होगा। मालूम पड़ता था कि बटलर ने उस रुपये का कुछ हिस्सा बावर्ची को भी दिया था। जिस दिन जहाज छूटने वाला था, उसके सिर्फ एक घंटा पहले, बटलर ने बावर्ची के असली सहकारी को किसी बहाने पीट पाटकर जहाज से भगा दिया था। खिदिरपुर डॉक से जहाज रवाना हुआ।
मानवेन्द्रराय के नाम पत्र
सान्याल दा ने मुझको यूरोप में घूमने फिरने के लिए आवश्यक रुपये दिए थे तथा एक सेट सूट, पेरिस का पता, मानवेन्द्र नाथ राय के नाम एक पत्र और दूसरा पत्र एक यूरोपीय विप्लवी महिला के नाम जर्मनी के लिगजिंग के पते पर। इस महिला का नाम मुझको आज याद नहीं है, इसके अतिरिक्त विस्तार से बता दिया था और भली प्रकार याद करा दिया गया था कि कहां जाना होगा, क्या-क्या बातें करनी होंगी और परिचय के कोड तथा सांकेतिक शब्दावली भी बता दी गई थी। अस्त्र-शस्त्र आने पर खिदिरपुर डॉक से उसे कैसे उतारना होगा, उसका भी खाका खींचकर दे दिया था।
जहाज जब समुद्र के मुहाने से टेम्स नदी में प्रवेश कर रहा था, तब का दृश्य मुझको बहुत ही सुंदर लगा। नदी के दोनों तरफ देखकर यह अनुभव नहीं हुआ कि एक नवीन अपरिचित जगह आया हूंं। मालूम पड़ता था कि वह सब मेरा चिरपरिचित है। कौन जानता है कि उसमें मेरे पूर्वजन्म के जीवन का कोई रहस्य छिपा है कि नहीं। हिंदू होने के नाते मैं जन्मान्तरवाद में विश्वास करता हूं। शायद मेरे पूर्व जीवन के विशेष अंश उसी इलाके में कटे हों। लंदन के टिलबरी बंदरगाह पर जहाज पांच दिन ठहरा, इसी बीच 'बड़ा दिन' आया। कलकत्ते से जहाज पर सवार होते वक्त सुशील दा ने बटलर से कहा था कि मैं यूरोप घूमने जा रहा हूं और जहां पर जहाज ठहरेगा उन शहरों को देखकर कलकत्ता लौट आऊंगा। उनका ख्याल था कि जिन बंदरगाहों पर जहाज रुकेगा, वहां पर उतर कर यूरोप में भारतीय विप्लवियों से मिलने तथा योगायोग की व्यवस्था करने का सुभीता रहेगा।
जहाज पर लौटा लंदन शहर घूमकर—अब कहां जाना होगा, यह बात बटलर से पूछताछ करने पर मुझको मालूम हुआ कि जहाज यहां से डण्डी (स्कॉटलैंड) होकर ग्लासगो जायेगा और फिर इंग्लैंड के कुछ और बंदरगाहों से होकर कराची लौटेगा। ये बातें सुनकर मेरे मंसूबों के मन पर घड़ों पानी फिर गया, क्योंकि मेरे ऊपर जिस काम की जिम्मेदारी थी उसे पूरा करने के लिए यह जरूरी था कि जहाज फ्रांस या जर्मनी के किसी बन्दरगाह पर लंगर डाले। परंतु यह जहाज तो यूरोप के किसी भी बंदरगाह पर पहुंचने का नहीं। इस परिस्थिति ने मुझको सोचने पर विवश किया।
लंदन पुलिस के शिकंजे में
रात के करीब दो बजे हमारे जहाज ने फ्रांस के डिपी बंदरगाह पर आकर लंगर डाला। मैं पेरिस जाने वाली ट्रेन पकड़ने के लिए आगे बढ़ा। रास्ते में सीमा चौकी पर आया तो अन्य मुसाफिरों की तरह मैंने भी अपना सूटकेस खोल कर कस्टम वालों के सामने रखा। मेरा सूटकेस देखकर उन्होंने पासपोर्ट देखना चाहा। मैंने पहले जैसा बहाना किया। इस बार ये लोग नहीं माने। मुझे आगे बढ़ने से रोक दिया। कोई भी बहाना नहीं चला। ट्रेन छूट गई। अब ये लोग मुझको दो फ्रेंच पुलिस वालों के साथ ब्रिटिश कांसुलेट दफ्तर ले गए, रिपोर्ट लिखाई और चले गये। उस वक्त सुबह के चार बज रहे थे। सारी रात जागरण तथा परिश्रम के फलस्वरूप मेरी आंखें बंद हो रही थीं। लेकिन आराम कहां? फिर कांसुलेट के अफसर बुलाये गये थे। मुझे उनके सामने पेश किया गया।
बहुत सारे सवालात उन्होंने पूछे। फिर दो अन्य आदमी आए—जिन्होंने नये सिरे से पूछताछ की। ये दोनों सीआईडी अफसर मालूम पड़े। इन्होंने मेरे सूटकेस की बारीकी से जांच की। फिर मेरा जूता, कोट, पैंट सब कुछ खुलवा कर जांच की। तब भी मेरे पास जो दो परिचयपत्र थे उसे ढूंढ कर नहीं निकाल सके। तलाशी के वक्त ख्याल आया कि वे लोग मुझको कोई खास आदमी नहीं समझते हैं। दूसरी बात यह थी कि मुझको वे लोग अपने आदमी के सुपुर्द करके लंदन वापस लौट रहे थे, तब वहीं पर मेरी यथाविधि व्यवस्था भी होगी। साफ बात यह थी कि मैं उनका कैदी बन गया था।
लंदन से फरार
तीन या चार दिन कट जाने के बाद आया एक रविवार का सवेरा। छुट्टी का दिन होने के कारण लंदन के बोडिंर्ंग के सब लोग खाने-पीने में मस्त हो गये। कुछ देर उन लोगों के साथ बिताकर मैंने पेट दर्द का बहाना किया, फिर ऊपर अपने कमरे में चला गया। वहां देर न करके सूटकेस और सब सामान वहीं छोड़ दिया—ओवरकोट में जो कुछ छोटा-मोटा सामान आ सका उसे लेकर बरामदे में आ खड़ा हुआ। सामने देखा कि रविवार होने के कारण सड़क पर यातायात नहीं के बराबर है। सोचने का भी मौका न था। वहां से कूद कर सड़क पर आया और गिरने से बचते हुए उस सड़क से घूमते-घामते किंग जॉर्ज डॉक की तरफ बढ़ता गया। लोगों से राह भी पूछता गया। जिम्नास्टिक शिक्षा इस समय काम आ गई। कूदने से शरीर के निचले हिस्से कमर से तथा नीचे झटका लगा था। दर्द भी था। ल्ल
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