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श्रीनगर हवाई अड्डे से सटे सीमा सुरक्षा बल शिविर पर आतंकियों ने घात लगाई किन्तु वे जिस भयंकर तबाही के मंसूबे बांधकर आए थे, उसमें सफल नहीं हो सके।
इसे क्या माना जाए, आतंकियों का बढ़ता दुस्साहस या चौकसी में ढील! बात शायद इन दोनों के बीच की है। निस्संदेह यहां आतंकी दुस्साहस है किन्तु साथ ही यह बात भी सच है कि घाटी से खुरच-खुरच कर साफ किया जा रहा आतंकवाद अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। इसलिए वह अपनी सबसे कड़ी लड़ाई के लिए जान झोंककर लड़ने को तैयार दिखता है। ताजा हमले से करीब एक वर्ष पहले सितंबर में उरी सैन्य मुख्यालय पर हुआ हमला हो या पठानकोट वायुसेना स्टेशन पर हुआ हमला—इन सारी घटनाओं की आवृत्ति, तैयारी और दुस्साहस बताता है कि आतंकवाद से लड़ाई का निर्णायक दौर एक राष्टÑ के तौर पर हम सबकी परीक्षा लेने वाला है। सबसे जिद्दी दागों को मिटाने में जबरदस्त जोर लगाना पड़ता है जिसमें चोट का अंदेशा भी रहता है, ताजा चोट वैसी ही है।
शहीद बी.के. यादव के प्राणोत्सर्ग को नमन करते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस तरह के हमलों की हम कैसी बड़ी कीमत चुका रहे हैं। युद्ध से ज्यादा आतंकी हमलों में अपने अनमोल सैन्य रत्नों को खोते हुए हम दशकों से गंभीर घाव झेल रहे हैं। इसलिए आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई को भी हमें युद्ध की सी गंभीरता, एकाग्रता, रणनीति से ही लड़ना होगा। इससे जुड़ी अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आर्थिक स्रोतों की कड़ी नाकाबंदी से त्रस्त, बड़े व महत्त्वपूर्ण प्यादों की मौत से परेशान और तंत्र बिखरने से बौखलाए आतंकी संगठन आपसी तालमेल बैठाते हुए और भी बड़े हमलों को अंजाम दे सकते हैं।
ऐसे में सैन्य तंत्र तो अपना काम करेगा ही किंतु क्या केवल उतने भर से बात बनेगी? नहीं, सतर्कता, रणनीतिक प्रबंधन और प्रतिकार का एक मोर्चा वह है मगर देश को पूरी संवेदनशीलता और बौद्धिक दृढ़ता के साथ इस लड़ाई के लिए एकमत होना ही होगा।
यह सच है कि तेजी से सिमटती दुनिया में ऐसे मुद्दे अब स्थानीय नहीं रहे, राष्टÑीय और अंतरराष्टÑीय परिघटनाएं उनका फलक बढ़ा रही हैं। वैश्विक आतंकवाद का कारक बना इस्लामी उन्माद ऐसा ही एक मुद्दा है। इसकी उपेक्षा न तो कश्मीर की फांस बने आतंकवाद में की जा सकती है और न ही दुनिया के अन्य भागों में हो रही घटनाओं को इससे अलग-थलग करके देखा जा सकता है।
जो लोग कश्मीर में पैठे आतंकवाद को राजनैतिक मसला और जनता की इच्छा की अवहेलना से पैदा उथल-पुथल बताते हैं, उनकी सोच निश्चित ही साफ नहीं है। पत्थरमार टोलियों को जुटाने वाले, नौजवानों को जिहाद का चारा बनाने वाले जब ‘आजादी का मतलब क्या-ला इलाह-इलल्लाह’ चिल्लाते हों तो इस्लामी उन्माद से इनकार करते हुए आप समस्या की जड़ कैसे पकड़ सकते हैं!
सो, इस समस्या के निदान के लिए जरूरी है कि—
’ इस्लामी आतंकवाद को कसकर दुत्कारने वाले मुस्लिम एक स्वर में और पूरी दृढ़ता के साथ सामने आएं।
’ बौद्धिक जगत में मानवाधिकार के नाम पर आतंकियों की पैरोकारी करने वाली जमात का बहिष्कार हो।
’ राजनीति की विभिन्न धाराएं इस बात पर एकमत हों कि ‘सेकुलरिज्म’ या ‘तुष्टीकरण’ के तराजू पर आतंकी घटनाओं को हरगिज नहीं तोला जाएगा।
पहली नजर में ये बातें सामान्य और छोटी लग सकती हैं किन्तु सच यही है कि इन छोटी बातों की उपेक्षा ने हमें बड़ी चोट पहुंचाई है।
अन्यथा यदि :
’ बुरहान वानी को गरीब मास्टर का बेटा बताकर उसके लिए संवेदनाओं में लिपटी ‘पोस्टर ब्वॉय’ छवि बनाने वाले यह छोटा-सा काम करने से बचते,
’ विश्वविद्यालय परिसर में छात्रों और शिक्षकों द्वारा ही ‘भारत तेरे टुकडेÞ होंगे’ कहने वालों की मौके पर ही कसकर मज्जमत होती,
’ यदि बटला हाउस एनकाउंटर पर देश की बुजुर्ग पार्टी के कर्ताधर्ताओं के गले नहीं रुंधते,
तो निश्चित ही इन छोटी-छोटी बातों से एक बड़ा अंतर पैदा होता और आतंकवाद हाशिए पर पड़ा दिखता। बहरहाल, श्रीनगर हमले का सबक यही है कि आतंकवाद से लड़ाई निर्णायक दौर में है और आतंकी (और उनके पैरोकारों के) दुस्साहस को पस्त करने के लिए हमें कंधे से कंधा मिलाकर लड़ना होगा। तभी कश्मीर घाटी उजास के एक नए सवेरे को निहार सकेगी।
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