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रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर सरकार का नजरिया शुरू से ही स्पष्ट है। सरकार साफ कह चुकी है कि रोहिंग्या शरणार्थी नहीं, घुसपैठिए हैं। इनके संबंध अलकायदा और आईएसआईएस जैसे आतंकवादी संगठनों से है। इसलिए इन्हें वापस भेजना होगा
प्रो. चिंतामणि मालवीय
लंबे इंतजार के बाद म्यांमार की ‘काउंसलर’ आंग सान सू ची ने राष्ट्र के नाम दिए संदेश के बहाने रोहिंग्या समस्या पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समक्ष म्यांमार का पक्ष रखा। इसमें उन्होंने रोहिंग्या समस्या पर व्यावहारिक सोच के साथ म्यांमार की राष्ट्रीय एकता और अखंडता के प्रति दृढ़ संकल्प का परिचय भी दिया।
अपने उद्बोधन में सू ची ने स्पष्ट किया कि रोहिंग्या म्यांमार के मूल निवासी नहीं, बल्कि शरणार्थी हैं। म्यांमार ने रोहिंग्याओं को शरण दी, लेकिन बदले में मिलीं देश में आतंकी गतिविधियां और एक अलग देश की मांग तथा शांतिपूर्ण अवाम पर हमले के रूप में प्रतिसाद। उनका यह कथन अहम है, ‘‘पिछले 70 साल से चले आ रहे आंतरिक विवाद के बाद शांति और स्थिरता दो ऐसी चीजें थीं जिन्हें पाना जरूरी है। म्यांमार को वैश्विक तौर पर अलग-थलग होने का डर नहीं है। हम रखाइन प्रांत के के स्थायी समाधान को लेकर प्रतिबद्ध हैं।’’ उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि रोहिंग्या आतंकवादी हमलों में शामिल हैं और म्यांमार का नेतृत्व आलोचनाओं से डरने वाला नहीं है। आंग सान सू ची ने जो भी कहा है वह शब्दश: भारत पर भी लागू होता है। रोहिंग्या न केवल भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा हैं, बल्कि आने वाले समय में वे हमारे लिए बड़ी परेशानी का सबब बन सकते हैं।
’ पहला, रोहिंग्या भारत के सांप्रदायिक सद्भाव के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं, क्योंकि इन्हें भारत में शरण देने के उग्र आग्रह को लेकर जिस तरह से देश के मुसलमान एकजुट हुए हैं, वह बहुत ही चिंताजनक है। बंगाल, दिल्ली और हैदराबाद के प्रदर्शन, उलेमा-ए-हिंद का समर्थन और मुस्लिम कट्टरपंथी पार्टी (एआईएमआईएम जो कि हैदराबाद को भारत से अलग करके पाकिस्तान में मिलाने की मांग करने वाले रजाकारों का ही प्रतिरूप है) का भड़काऊ और अंध समर्थन रोहिंग्याओं को भारत के लिए एक बड़ी मुसीबत सिद्ध करता है। पाकिस्तान की गोद में बैठे आतंकी हाफिज सईद का संगठन जमात-उद-दावा का रोहिंग्याओ के लिए चंदा इकट्ठा करना स्पष्ट करता है कि रोहिंग्या म्यांमार में भी आतंक के पैरोकार थे और हैं।
’ दूसरा, यह कि रोहिंग्या अशिक्षित ही नहीं बल्कि बर्बर और मतांध भी हैं। इस समुदाय का स्वभाव ही आपराधिक है। इन्हें यहां रखना कानून व्यवस्था पर भी बोझ साबित होगा। इनकी बस्तियों के आसपास अपराधों की बढ़ोतरी की आशंका बनी रहेगी। उदाहरण के लिए पिछले दिनों दिल्ली में बांग्लादेशी घुसपैठियों द्वारा दिल्ली की महागुन सोसाइटी में 3 घंटे तक किया गया उपद्र्रव, तोड़फोड़ व मारपीट हमारे सामने है। इसी प्रकार एक और उदाहरण है जिसे दिल्ली पुलिस भी स्पष्ट कर चुकी है कि दिल्ली में होने वाली लूटपाट, डकैती, चोरी आदि आपराधिक घटनाओं में ज्यादातर घुसपैठिए बांग्लादेशियों का हाथ ही सामने आता है। कोई बड़ी बात नहीं कि रोहिंग्या भी बांग्लादेशी घुसपैठियों के समान स्थानीय कानून और व्यवस्था के लिए चुनौती साबित हों।
’ तीसरा, इन्हें भारतीय नागरिक या शरणार्थी का दर्जा देना देश की अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त भार का कारण बनेगा। मसलन, सरकार की ‘सबके लिए आवास योजना’ का लाभ यदि इन्हें दिया जाए तो करीब 400 से 600 करोड़ रुपए का अतिरिक्त खर्च आएगा जो निष्ठापूर्वक कर चुकाने वाले नागरिकों की जेब से ही जाएगा। इनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि पर होने वाला खर्च अतिरिक्त होगा।
’ चौथा, कट्टर इस्लामिक होने के कारण रोहिंग्या समुदाय का परिवार नियोजन में कोई विश्वास नहीं है। हर रोहिंग्या के 6 से 10 बच्चे हैं। इस हिसाब से अगले दस साल में इनकी जनसंख्या चालीस हजार से बढ़कर चार लाख और फिर अगले दस साल में चालीस लाख हो जाएगी। जरा सोचिये, चालीस हजार से बढ़कर चालीस लाख होने में इन्हें मात्र बीस साल लगेंगे। सूत्रों के अनुसार बांग्लादेश की सरकार भी इनकी तेजी से बढ़ रही आबादी से चिंतित है और शरणार्थी शिविरों में परिवार नियोजन की सामग्री बंटवा रही है, इस समय भारत में रह रही रोहिंग्या महिलाएं बड़ी संख्या में गर्भवती हैं। बढ़ती जनसंख्या और उससे होने वाली समस्याओं से जूझ रहे भारत जैसे घनी आबादी वाले देश में इनको बसाना जान-बूझकर खतरा मोल लेना है।
’ पांचवां, सरकार की कठोर नीति से घुसपैठ की ताक में बैठे लाखों बांग्लादेशी और रोहिंग्याओं को समझ में आ गया है कि भारत न तो अब लुंजपुंज नीति वाला देश हैै और न ही वहां अदूरदर्शी सरकार है जो वोट बैंक के लिए देश की सुरक्षा से समझौता करेगी। रोहिंग्याओं के प्रति भारत सरकार के इस कड़े रुख से जग जाहिर हो जाएगा कि अब वह एक ‘सॉफ्ट स्टेट’ नहीं रहा। देश में मौजूद विघटनकारी तत्वों को भी समझ में आ जाएगा कि अब उनकी दाल नहीं गलने वाली। देश की इस नई मजबूत छवि से दुनिया में खासकर पड़ोसी एशियाई देशों में एक बहुत ही सकारात्मक संदेश जाएगा, जिसका राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक लाभ हमें सुदूर भविष्य तक मिलेगा।
हमें याद रखना होगा कि विभाजन के समय हुए दुनिया के सबसे बड़े विस्थापन में भारत से केवल 72,26,600 मुसलमान ही पाकिस्तान गए थे। भारत विभाजन के लिए किए गए मतदान में मुस्लिम लीग को सबसे अधिक मत तत्कालीन पंजाब (अब पाकिस्तान) नहीं, बल्कि बंगाल, असम, बॉम्बे और संयुक्त प्रान्त से मिले थे। लेकिन दुर्भाग्य से देश के विभाजन का समर्थन करने वाले लोग इसी देश में रह गए। जो पाकिस्तान गए उनमें से अस्सी प्रतिशत पंजाब और राजस्थान से यानी 57,83,100, उत्तर प्रदेश और दिल्ली से दो प्रतिशत (4,64,200), गुजरात और मुंबई से भी दो प्रतिशत, जबकि हैदराबाद और भोपाल से तो मात्र 75,200 मुस्लिम ही पाकिस्तान गए थे। हम देखते हैं कि जहां-जहां से बड़ी संख्या में मुस्लिम पाकिस्तान गए, वे राज्य अपेक्षाकृत शांत हैं। रोहिंग्या को शरण देने की मांग करने वाले लोगों के तर्क भी बड़े अजीब हैं। उनका कहना है कि लाखों तिब्बतियों, श्रीलंका से आए तमिलों, बांग्लादेशी बौद्ध, चकमा आदिवासियों को भी शरण दी गई तो रोहिंग्या को क्यों नहीं? सरकार पर सांप्रदायिकता का आरोप लगाने वाले लोगों से सवाल है कि कितने चकमा शरणार्थी आपराधिक या देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं? लाखों तिब्बतियों में से कोई भी देश की संप्रभुता और एकता को चुनौती नहीं देता। उनके लिए अलग से पुलिस क्यों नहीं लगाई गई?
क्या खुफिया विभाग वहां अतिरिक्त सावधानी बरतता है? किसी चकमा या तिब्बती बहुल क्षेत्र में सांप्रदायिक तनाव या दंगे क्यों नहीं होते? क्यों देश उनके प्रति आश्वस्त है? कारण स्पष्ट है कि ये लोग इस देश की जड़ों से जुड़े हुए हैं। इन लोगों ने भारत की आबादी से दूध में शक्कर की तरह घुल-मिलकर सामाजिक मिठास बढाई है, लेकिन तय मानिए कि रोहिंग्या दूध में शक्कर या केसर की बजाय नींबू का काम करेंगे। हाफिज सईद और अन्य भारतीय अतिवादी लोगों के रोहिंग्या के प्रति समर्थन से तो यही आशंका बलवती होती है कि ये रोहिंग्या शरणार्थी नहीं, बल्कि मानव बम हैं। इनकी गरीबी और मजहबी कट्टरता इन्हें बहुत आसानी से आतंकवादी गतिविधियों की ओर ले जा सकता है। हाल ही में दिल्ली में एक विदेशी आतंकी पकड़ा गया जो रोहिंग्याओं को आतंकी बनाने के मकसद से भारत आया था। इस प्रवृति का नतीजा आम भारतीय को जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों हैं, अपनी जान देकर भुगतना पड़ेगा। साफ तौर पर रोहिंग्या भारत की सुरक्षा के लिए खतरा है।
बांग्लादेश भी जिन्हें खतरनाक मानता है, वे भारत के लिए निरापद कैसे हो सकते हैं। भारत के आत्मघाती, अदूरदर्शी, बेईमान और दोगली मानसिकता रखने वाले तथाकथित मानवाधिकारवादियों ने कभी भी पाकिस्तान से विस्थापित हिंदू-सिखों की चिंता नहीं की। नब्बे के दशक में भीषण नरसंहार करके कश्मीर से निकाले गए पांच लाख कश्मीरी पंडित अब तक तंबुओं में रह रहे हैं। उनके लिए किसी भी मानव अधिकार के पैरोकार ने मोर्चा नहीं निकाला। लाखों रुपए फीस लेने वाला कोई वकील सर्वोच्च न्यायालय नहीं गया। क्या वे इसका इंतजार कर रहे हैं कि म्यामार में जिस प्रकार रोहिंग्याओं ने 12 पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी थी, वह हिंदुस्थान में भी दोहराया जाए? इनके लिए मानव अधिकार हैं तो क्या भारत के नागरिकों के लिए अपने मानव अधिकार नहीं हैं?
अभी तक एक भी रोहिंग्या ने नागरिकता या शरणार्थी दर्जे के लिए विधिवत आवेदन नहीं दिया है। चूंकि भारत ने 1951 के संयुक्त राष्ट्र संघ के शरणार्थी समझौते पर भी हस्ताक्षर नहीं किए हैं। अत: इन्हें बगैर किसी दबाव के तुरंत म्यांमार भेज दिया जाना चाहिए। इस समूचे प्रकरण का एक और चिंतनीय पहलु यह है कि भारत में असदुद्दीन ओवैसी और कुछ अन्य कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं के साथ कुछ कांग्रेसी और वामपंथी नेता मानवता और देश के महान मूल्यों की दुहाई देकर रोहिंग्याओं को शरण देने के लिए सरकार पर दबाब बनाने का प्रयास कर रहे हैं। (लेखक लोकसभा सदस्य हैं)
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