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उपवास के बाद शस्त्रपूजन की कैसी अद्भुत पहेली है! शस्त्र संधान के लिए शक्ति आवश्यक है किन्तु उपवास के बाद यह कैसी शक्तिपूजा है जो हिंदू समाज सदियों से करता चला आ रहा है! क्या कमजोरी के बाद कोई हथियार उठाता है?
किन्तु इस उपवास में कमजोरी कहां है?
दरअसल, ऊपरी तौर पर विरोधाभासी प्रतीत होने वाली इस रस्म के गूढ़ निहितार्थ हैं। इस उपवास में हठ नहीं, उपासना का भाव है। उस शक्ति की साधना जो यूं तो स्नेह-संरक्षण का अजस्र स्रोत है किन्तु गलत और हठी की बुद्धि को पल में ठिकाने लगाती है।
ठीक मां की तरह! यह मां ही तो है!
दैत्य सेनापति धूम्रलोचन की संहारिणी, मधु-कैटभ को भवसागर के पार पठाने वाली उमा, चण्ड-मुण्ड का नाश करने वाली चामुण्डा..मां ही तो है।
सही है तो स्नेह उड़ेलने वाली, गलत करने और गलती पर अड़े रहने वालों के होश उड़ाने वाली मां की ही तो साधना है- इसमें कमजोरी कैसी! यह तो अपने दुर्गुणों को भस्म करने, दृढ़ संकल्प लेने और विजय का आशीष लेने का यज्ञ है।
खास बात यह है कि यहां केवल शक्ति नहीं चाहिए। जिस कार्य के लिए शक्ति चाहिए, उस उद्देश्य का सकारात्मक होना और शक्ति के इच्छुक अभ्यर्थी का शुद्ध होना भी
आवश्यक है।
क्योंकि जो शक्ति चाहिए, वह यदि उपासना, कठोर साधना से मिल भी जाए तो उसका उपयोग क्या?
अब दशमी प्रात: की शस्त्रपूजा को शाम के दशहरे से जोड़कर देखें। एक ही दिन दो अलग-अलग पहरों के उत्सवों का क्रम शक्ति-शक्ति के अंतर को स्पष्ट करता है। सही-गलत का अंतर बताता है।
रावण क्या शक्तिशाली नहीं था? लेकिन उसकी शक्ति सही-गलत का अंतर करे बिना व्यक्तिगत हितपूर्ति तक सीमित थी। असीम लगते हुए भी अपने हित तक सीमित इस ताकत को छीजना ही था। रावण की शक्ति छीज ही तो गई!
राम की शक्तिपूजा सफल हुई, दैत्यराज का दर्प
खंड-खंड हुआ।
इस कथा की अंत: व्याख्या ऐसी है जो कभी पुरानी पड़ ही
नहीं सकती।
यही कारण है कि आंतरिक शक्ति के जागरण के महायज्ञ में, राम की जय-जयकार में, शक्ति के अर्चन के साथ-साथ उसके अर्जन में यह समाज सदियों से प्रतिवर्ष जुटता है। समाज में सकारात्मकता के संचार के लिए व्यक्ति-व्यक्ति की शुद्धि और समर्पण का आह्वान करता है।
शक्ति की साधना का यह मंत्र इस भारत भूमि का है। हमारे पुरखों का है। सही-गलत को पहचानने और सही के पक्ष में पूरी शक्ति से खड़े रहने का गुण हमारे गुणसूत्रों से आया है।
बातें पुरानी लगती हैं तो नए संदर्भों से जोड़कर देखिए-
’ चीन बड़ा है किन्तु हम डोकलाम में डिगते नहीं।
’ हम सीमा का सम्मान करते हैं किन्तु पाकिस्तान धूर्त है। सो, सीमोल्लंघन में, ‘सर्जिकल स्ट्राइक ’ में हिचकते नहीं।
’ भूटान, नेपाल छोटे लगते हैं परंतु भाइयों के स्नेह में न रत्तीभर अंतर होता है, न छोटे का हक मारने की प्रवृत्ति। हम भाइयों के साथ खड़े होते हैं।
ठीक!
व्यक्ति, समाज और राष्टÑ की कसौटियां एक हों, एक भाव भरा हो तब भारत बनता है।
तब ही भारत बना है।
अलग-अलग हसरतों का जमावड़ा नहीं, सबके भले की साझी इच्छा की अनुगूंज है भारत।
हम सब भारत हैं।
उसी चेतना के व्यक्तिगत प्रतिनिधि।
हम सात्विक परंपरा के लोग हैं किन्तु आवश्यक होने पर
ऐसी हुंकार भरते हैं जो हर तमस को काट दे। यह भी हमारी ही परंपरा है।
हम शांत हैं किन्तु कोई न भूले कि हम शक्ति पुत्र हैं।
सात्विक, सर्वहितकारी, लोकमंगलकारी राह पर बढ़ता यह रथ परंपरा का है। किन्तु आधुनिकता के पड़ाव, नई पीढ़ी की आकांक्षाएं और नई-नई चुनौतियां भी इस यात्रा का ही हिस्सा हैं। सकारात्मकता का गगनभेदी उद्घोष उठाते हुए विश्वगुरु भारत की प्रेरक यात्रा संपन्न होगी, इसमें किसी को संदेह नहीं
होना चाहिए।
संदेह और तमस की काट के लिए शक्तिरूपा मां भारती का आशीष हम सब के साथ है ना! रथ पर वही है, सिंहासन पर भी वही होगी! वर्षों की साधना से जो स्वप्न हमने देखा, उसे साकार होते दुनिया देख रही है।
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