|
मुद्दा गरम है और केंद्र सरकार का जवाब साफ। गृह मंत्रालय द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को बताया गया है कि रोहिंग्या घुसपैठियों का देश में रहना, सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा है।
ठीक!राष्टÑीय हित के मुद्दों पर ढुलमुल रवैया होना भी नहीं चाहिए। किन्तु फिर भी इस मौके पर कुछ लोगों द्वारा मानवीयता, सहानुभूति और संवेदनशीलता के तर्क उछाले जा रहे हैं। तुष्टीकरण की राजनीति को पोषण पाने के लिए ऐसे तर्कों की जुगाली बार-बार करनी पड़ती है। जिन्हें करनी है, कर भी रहे हैं।
अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी के आतंकियों ने 25 अगस्त को म्यांमार में 25 सैन्य चौकियों पर हमला बोला था। इस तथ्य को पचाते हुए रोहिंग्याओं के लिए सुबकते मानवाधिकारवादी म्यांमार की नेता और नोबेल शांति पुरस्कार विजेता आंग सान सू ची पर लानत भेज रहे हैं। कथित प्रगतिशीलों को समझना होगा कि दुनिया भर में इसी तरह के दोमुंहेपन के कारण उनकी विचारधारा की भद पिटी है। आंग सान सू ची के लिए प्रगतिशील खेमे की तालियां जरूरी हैं या राष्टÑहित संगत निर्णय! इस बात का चुनाव उन्हें करना था, उन्होंने चुनाव कर लिया।
दूसरी ओर बांग्लादेश है। लगे हाथ मानवाधिकार का पक्षधर होने की कसौटी बांग्लादेश के नीति निर्धारकों पर भी आजमाई जाए! यह बात कथित प्रगतिशील राजनीति सोच तक नहीं सकती क्योंकि वहां तस्लीमा नसरीन नामक ‘फांस’ दुखती है। एक बुद्धिजीवी महिला को धक्के मारकर निकालते हुए जो दिल जरा नहीं पसीजे, रोहिंग्याओं के लिए उनके आंचल आंसुओं से कैसे भीग सकते हैं? दिलचस्प यह भी है कि इन विसंगतियों पर भारत की ‘प्रगतिशील’ बिरादरी चुप्पी की चादर ओढ़ लेती है।
वैसे, भारत के लिए, यह म्यांमार और बांग्लादेश दोनों से इतर, अपने नागरिकों के हित और राष्टÑीय सुरक्षा से जुड़ा मसला है। सरकार ने गुप्तचर सूचनाओं और आंकड़ों को देखते हुए अपनी बात स्पष्टता से रखी, किन्तु रोहिंग्याओं के मसले पर कांग्रेसी और वाम विचारधारा के आधा दर्जन वकीलों का ताल ठोकना बताता है कि तुष्टीकरण की राजनीति का स्तर कितना घातक हो चला है।
रोहिंग्याओं के समर्थन में 7 जुलाई, 2013 को इंडियन मुजाहिदीन ने बिहार के बोधगया में ताबड़तोड़ दस बम विस्फोट किए थे। यह बात आज उनके पक्ष में आंसू बहाने वाले नहीं करना चाहते।
दुर्भाग्य से रोहिंग्याओं के समर्थन में राजनेताओं का पिघलना वह मोड़ है जहां राजनीति ने अपने खुराक-पानी के लिए आतंकवाद तक की अनदेखी कर दी। दिल्ली में एक आतंकी पकड़ा जाता है जो इस्लामी आतंक के कच्चे माल के तौर पर रोहिंग्या-बांग्लादेशी घुसपैठियों पर नजर गड़ाए था। ऐसी स्थिति में भी कुछ लोगों की नजर अपने वोट बैंक से नहीं हटती! यह बात चौंकाती ही नहीं, बल्कि नए खतरों की ओर इशारा भी करती है। घुसपैठियों के लिए मानवीयता दिखाने और देश को ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की याद दिलाने वालों में वही चेहरे आपको दिख जाएंगे जिनकी मानवीयता अफजल के लिए छलकी पड़ रही थी, लेकिन जो अपने ही देश में शरणार्थी बने लाखों कश्मीरी हिन्दुओं के लिए पत्थरदिल बने रहे। ये वही लोग हैं जो वसुधैव कुटुम्बकम् का भाव केवल एक कुटुम्ब में देखते रहे। नक्सलियों में अपने आराध्य तलाशते रहे। पूर्वोत्तर के जनजातीय समाज को जिन्होंने संगठित घुसपैठ और मिशनरी षड्यंत्रों का अखाड़ा बना डाला।
लोकतंत्र से मिली छूट और उदारता का इसी देश और व्यवस्था के विरुद्ध उपयोग करने वालों ने राजनीति से राष्टÑीय आग्रह तक छीन लिए। नए वोटबैंक के लिए सेकुलर राजनीति की लपलपाती जीभ यह देश देख रहा है जो इसके अपने नागरिकों के हित चट करने के लिए फड़फड़ा रही है।
बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय में सरकार का नया शपथपत्र उस विश्वास की अनुगूंज है जो केंद्र सरकार में इस देश की जनता ने व्यक्त किया है। सदाशयता दिखाने के साथ-साथ पहले अपना घर बचाना जरूरी है। लोक-व्यवहार की यह सार्वभौमिक और समयसिद्ध समझ है। यह समझ सरकार ने दिखाई। इस समझदारी का स्वागत होना चाहिए।
टिप्पणियाँ