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माधवी (नाम परिवर्तित) पत्रकार हैं। चुस्त, सतर्क और अत्यंत संवेदनशील। उनकी यह संवेदनशीलता ऐसी है कि कई बार रात की नींद, दफ्तर में काम के घंटों और अखबार के पन्नों से भी बाहर छलक पड़ती है। अपने आस-पास, आते-जाते माधवी कई बार कुछ ऐसा देखती हैं जो भले छपे नहीं, किन्तु उन्हें अकुलाहट और चिंता से भर देता है। ऐसे में वे कलम उठाती हैं और हमें लिख भेजती हैं। इस भरोसे के साथ कि कोई तो उनकी चिंताओं को साझा करेगा। विचारों से भरी, झकझोरती चिट्ठियों की अच्छी-खासी संख्या हो जाने पर हमने काफी सोच-विचार के बाद माधवी की इन पातियों को छापने का निर्णय किया, क्योंकि जगह चाहे अलग हो, लेकिन मुद्दे और चिंताएं तो साझी हैं। आप भी पढ़िए और बताइए, आपको कैसा लगा हमारा यह प्रयास।
हमारे घर आई गो माता दुर्गा को उसका मालिक ले गया। सच कहूं तो उसे जाते देख बहुत बुरा लग रहा था। उसका मालिक इतना जाहिल इनसान था कि मन कर रहा था दो-चार थप्पड़ रसीद कर दूं। उसने दुर्गा की सेवा करने वाली मेरी मां से कहा कि आपने जबरदस्ती गाय को घर में बांध कर रखा। मां ने उसे शालीनता से समझाने का प्रयास किया पर वह कुछ सुनने को तैयार नहीं था। उलटे मां से बोला, ‘‘मेरी गाय थी। अगर वो मर रही थी तो मरने देतीं। आपको इतनी दया दिखाने की क्या जरूरत थी?’’ मां ने जवाब दिया, तुम भी इनसान हो। अगर घर वाले तुम्हें भी मरने को छोड़ दें तो कैसा लगेगा? फिर वे चुप हो गया और अपनी गाय लेकर चला गया।
बात कुछ माह पहले की है। 10 परिवारों ने मिलकर एक साथ रात्रि भोजन की योजना बनाई थी। उस रात सभी घर के बाहर बैठे हुए थे, तभी किसी ने बताया कि मैदान में गाय ने एक बछड़े को जन्म दिया है। यह सुनते ही मां गाय-बछड़े को देखने के लिए भागी। हालांकि सामने वाली आंटी ने प्रसव के बाद दुर्गा को गर्म पानी में हल्दी मिलाकर पीने के लिए दे दी थी। चूंकि दुर्गा उठने की स्थिति में नहीं थी, इसलिए मां-पापा ने उसे आवारा कुत्तों से बचाने के लिए उसके आसपास लकड़ी का घेरा बना दिया। लेकिन गाय और बछड़े के लिए चिंतित मां उस रात सो नहीं पाई। उन्हें इस बात का डर था कि आवारा कुत्ते कहीं बछड़े को मार कर खा न जाएं। सुबह होते ही वे बछड़े को उठाकर घर के आंगन में ले आर्इं। पीछे-पीछे दुर्गा भी आ गई।
मैं आंगन में बैठी सब देख रही थी। मन ही मन सोच रही थी कि मां तो मां ही होती है, चाहे इनसान हो या पशु। दफ्तर से लौटकर जब पापा ने आंगन में दुर्गा और उसके बछड़े को देखा तो बहुत खुश हुए। बचपन से ही गाय के प्रति उनका लगाव है। जब हम गांव में रहते थे तो भैंसों के साथ गायें भी थीं। दुर्गा के बछड़े का अगला और पिछला पैर टेढ़ा था, इसलिए मां खासतौर से उसकी देखभाल कर रही थीं। पापा तब तक दुर्गा के लिए गुड़ और दाना ले आए और उसे खाने को दिया। इसके बदले दुर्गा ने डेढ़ लीटर दूध दिया। उस दिन दुर्गा का शुद्ध दूध लेने के लिए पड़ोसियों की लाइन लग गई थी। मां ने सभी को प्रसाद के रूप में थोड़ा-थोड़ा दूध दिया।
मैंने एक बात पर गौर किया। दाना खाकर दुर्गा चरने चली जाती थी, मानो उसे पूरा विश्वास था कि हमारा परिवार बछड़े की हिफाजत करेगा। उसे नुकसान नहीं पहुंचाएगा। दुर्गा के लिए मेरा परिवार अजनबी था, फिर भी उसका यह विश्वास देखकर यकीन नहीं हो रहा था। चरने के बाद वह आती और शाम को आराम से पापा को दूध निकालने देती। गाय-बछड़े के आ जाने से घर का माहौल थोड़ा बदला-सा गया था। बछड़े को देखकर कोई भी उसे प्यार किए बिना नहीं रह पाता। अब तक बछड़े का भी नामकरण हो चुका था- निक्की। खासकर छोटी सृष्टि रानी तो अपने खाने का हर सामान उसके लिए बचाकर रखती। उसके मुंह के पास अपने कोमल हाथ ले जाकर प्यार से कहती- खा लो…।
दुर्गा और निक्की के आने के बाद चार दिन तक हमारे घर में खूब रौनक रही। पांचवें दिन जब उसका मालिक गाय-बछड़े को ले गया तो घर सूना-सूना लग रहा था। इस पूरे घटनाक्रम से मैंने अपने माता-पिता से मानवता का जो पाठ पढ़ा, उसी में जीवन का सार छिपा है। केवल इनसान ही नहीं, हमारे साथ रहने वाले पशु-पक्षी, पेड़-पौधे भी इस जीवन को चलाने में सहभागी हैं। इसलिए जरूरत के समय उनका ख्याल रखना, उन्हें प्यार-दुलार देना हम सबकी जिम्मेदारी है। बस, जरूरत किताबों में लिखी गई बातों को अपने जीवन में उतारने और उन्हें अमल में लाने की है।
अपनी मां का दुर्गा और उसके बछड़े के प्रति इतना प्यार-दुलार और बच्चे की तरह उनकी देखभाल करते देखकर मुझे महसूस हुआ कि प्यार बांटने से बढ़ता है। दूसरी बात यह कि दुनिया का कोई भी व्यक्ति मां का स्थान कभी नहीं ले सकता। जीवन की ये छोटी-छोटी घटनाएं मुझे रास्ता दिखाती हैं। मुझे प्रेरित करती हैं और इसलिए मैं इन अनुभवों को डायरी के पन्नों में लिख लेती हूं। ल्ल
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