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‘परमात्मा और प्रकृति से एकाकार जन्मता है दिव्य शिल्पकार’

by
Sep 11, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 Sep 2017 10:56:11

 

विश्व में सदियों से भारतीय वास्तुशिल्प को अत्युत्तम कहा गया है। यहां अद्भुत  शिल्प कृतियां हजारों वर्षों से आज भी खड़ी हैं। किसी मंदिर के प्रस्तर स्तम्भों से संगीत के स्वर सुनाई देते हैं, तो कहीं पूरे पहाड़ को काटकर ऊपर से शुरू नीचे तक भव्य  कैलाश मंदिर बना है। प्रस्तुत हैं भगवान विश्वकर्मा की जयंती के अवसर पर अंतरराष्ट्रीय स्तर के अग्रणी भारतीय शिल्पी, नई दिल्ली स्थित राष्टÑीय आधुनिक कला संग्रहालय के महानिदेशक श्री अद्वैत गणनायक से भारत में शिल्प के विशिष्ट आयामों पर सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी की बातचीत के प्रमुख अंश

भारत में पूर्व से  पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक अनेक प्राचीन मंदिरों, स्मारकों और भवनों में अद्भुत वास्तुशिल्प देखने को मिलता है। एक शिल्पकार के नाते आप इसे किस तरह देखते हैं?
इन प्राचीन मंदिरों के शिल्प को देखें तो इनमें उस काल के शिल्पकारों की अद्भुत कल्पना झलकती है। मुझे लगता है, इन्हें बनाना उतना कठिन नहीं रहा होगा जितना इनकी कल्पना करना। ओडिशा के कोणार्क मंदिर को देखें। सोचिए, बनाने वाले ने कैसे कल्पना की होगी। गर्भगृह का खाका दक्षिणायण और उत्तरायण के हिसाब से कैसे बनाया होगा? सूर्य की पहली किरण सीधी देव प्रतिमा पर ही पड़े, इसकी नाप-जोख कैसे की होगी? कैसे चुम्बकीय प्रभाव क्षेत्र बनाकर मंदिर के अंदर सूर्य की रोशनी जगमगाएगी? ये सब सोचते हैं तो आश्चर्य होता है। प्राचीन काल के वास्तुकारों, शिल्पकारों की कल्पना बहुत दमदार थी। साक्षात् विश्वकर्मा ने ही उन्हें दृष्टि दी होगी, ऐसा लगता है। कभी-कभी लोग कहते हैं कि दूसरे ग्रह के लोग आकर यहां के विशाल स्थापत्य नमूने बनाकर गए थे। नहीं, यह सब विश्वकर्मा की संकल्पना और प्रेरणा से भारत के महान वास्तुकारों की रचनाएं हैं। यह मैं 11वीं-12वीं सदी की बात कर रहा हूं।
ल्ल आज के निर्माण पर क्या कहेंगे?
आज 21वीं सदी में शहरों में देखें तो लोग कोई छोटा घर, मकान या इमारत बनाते हैं तो उसे माचिस की डिब्बी जैसा बना लेते हैं। आज का ये वास्तु निष्प्राण लगता है। जबकि प्राचीन काल भवन निर्माण को देखें तो एक कलात्मकता दिखती थी उनमें, घर का द्वार भी फूल-पत्तियों की नक्काशी वाला होता था। पहले के शिल्प में एक सौन्दर्यबोध होता था उसके साथ विज्ञान का समावेश तब इस बात का था। ध्यान रखा जाता था कि रोशनी कहां से आएगी, हवा का आना-जाना कैसे होगा। घर में गर्मी के समय ठंडक कैसे बनी रहेगी। तो ये सब विज्ञान के साथ कलाऔर शिल्पकार मिलकर तैयार करते थे। लेकिन आज ये तीनों पक्ष अलग हैं।

पुरी का जगन्नाथ मंदिर वैज्ञानिक दृष्टि से काफी अनूठा है। उसके बारे में बताएं।
पुरी के जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश के लिए एक बड़ा द्वार है, सिंह द्वार। उस भव्य द्वार से गुजरने पर मानो शरीर के आधे विकार दूर हो जाते हैं। उसके आगे है सभा मण्डप जहां शास्त्रार्थ, धर्म-चर्चा होती होगी, दर्शनशास्त्र पर बहस छिड़ती होंगी। उसके और आगे बढ़ें तो नाट्य मण्डप है जहां कीर्तन, संगीत, भजन आदि होते थे। और आखिर में बिल्कुल शांतचित्त होने पर गर्भ गृह में देवता के सामने पहुंचते हैं। दुनियाभर के दुख-तकलीफ भुलाकर, शांति के साथ दर्शन करते हैं। ये सब मिलकर एक माहौल बनाते हैं, जो परम आनंद देता है। मानो सारी कल्पना विश्वकर्मा कर रहे थे और उसे नीचे यहां धरती पर वास्तुशिल्पी साकार कर रहे थे। ऐसी चीजों का मानव समाज पर एक सकारात्मक प्रभाव होता है। दुर्भाग्य से आज के कलाकारों में खुद को सबसे श्रेष्ठ बताने की होड़ दिखती है, अपने गुणगान गाने का चलन दिखता है। ऐसा शिल्पी दिव्य शिल्प कैसे रच पाएगा।

पिछले सौ साल को ही देखें तो भारत में शिल्पकारों की कैसी स्थिति रही है?
इस दौरान शिल्पकारों को आजादी से काम करने की पर्याप्त सहूलियत मिली है। कोई काम में दखल देने वाला नहीं था। इसी आजादी के चलते हमारे शिल्पकारों ने इतने प्रयोग किए लेकिन यह ध्यान नहीं रखा कि उनके काम का समाज को लाभ मिल रहा है कि नहीं। हम सिर्फ व्यक्तिगत कलाकृतियों की चिंता में लगे रहे। 

 कोणार्क जैसे शिल्प की प्रेरणा मुख्य शिल्पी विशु महाराणा की कारीगरी और साधना के बारे में आपकी राय?
निश्चित ही यह अनूठी दिव्य प्रेरणा है वरना कैसे इतना जटिल विज्ञान पत्थर में आकार ले पाता। विशु का अपने कार्य के प्रति इतना समर्पण भाव था कि विशु रूपी आत्मा का विश्वकर्मा रूपी परमात्मा के साथ एक मेल हो गया था। एक नाता था। तब माहौल भी ऐसा ही होता था। देखेंगे तो लगेगा कि सभी एकाकार थे। विशु मंदिर बनाने में लगातार 12 साल तन्मयता से लगे रहे, घर गए ही नहीं। 12 साल बाद उनका बेटा धर्मपद उनसे मिलने आया था। यह तप, समर्पण निश्चित ही आभास देता है कि विशु के रूप में विश्वकर्मा ही शायद उस कार्य में लगे थे। कथा बताती है कि मंदिर निर्माण आखिरी चरण में था, लेकिन काम कई दिन से अटका हुआ था क्योंकि शिखर पर विशाल चुम्बक लगाने का कोई तरीका समझ नहीं आ रहा था। तब 12 साल के धर्मपद ने शिखर को पूर्ण करने का तरीका सुझाया। विश्वकर्मा ने समाज के एक छोटे से प्रतिनिधि का उपयोग करके अपना वरदान दिया था। कहने का अर्थ है कि आत्मा-परमात्मा का संबंध मिलकर काम करता था। लेकिन आज हम यह सब भूल चुके हैं।

अजंता-एलोरा की गुफाएं और कैलाश मंदिर तो अद्भुत शिल्प हैं। कैसे बने होंगे ये?
उनकी कला के तो कहने की क्या। कैसा विशाल, सुदीर्घ वास्तुशिल्प। भित्ति चित्र आज भी सजीव, रंग जैसे अब भी ताजा। कैलाश मंदिर तो एक ही पहाड़ को ऊपर से नीचे की ओर तराशते हुए बनाया गया है। कैसे कल्पना की होगी उसकी? पुरी-कोणार्क मंदिर तो चलिए 11वीं, 12वीं सदी में पत्थर पर पत्थर जोड़कर बनाए गए, पर यह मंदिर तो शायद 8वीं सदी का बना है, एक ही पहाड़ को छैनी से तराशते हुए।

आज हमारे पास नाप-जोख के एक से एक यंत्र-उपकरण हैं, लेकिन प्राचीन काल में तो ये यंत्र नहीं थे। तब भी कांटे का सधा हुआ शिल्प दिखता है। उस वक्त निर्माण में नाप-तोल का काम कैसे हुआ करता था?
ओडिशा में, बताते हैं पठानी सामंत नाम के एक प्राचीन वास्तुकार केवल दो डंडियों की मदद से एक पहाड़ की ऊंचाई नाप कर बता सकते थे। उनके कोण नापने के तरीके इतने अचूक थे कि दशमलव तक की सटीकता थी उनमें, जो सौर मण्डल और ज्योतिष शास्त्र के साथ मिलकर निकाली जाती था। उस वक्त के शिक्षा केन्द्र यानी गुरुकुल, जहां ये प्रतिभाएं तैयार हुई थीं, वहां इस कौशल पर बहुत चर्चा होती थी। अपनी कला से वे इतना एकात्म रहते थे कि उसे महसूस कर सकते थे। इसीलिए उनका एक एक कोण कभी यहां से वहां नहीं होता था। सूत बांधते थे तो सही 90 डिग्री बनता था। उन शिल्पकारों का रक्त, मांस-मज्जा सब अपनी कला से जुड़ जाता था। भिक्षु की तरह, ऋषि की तरह थे उस जमाने के वास्तुकार। हमने पढ़ा भी था कि उन्हें पत्थर तक में कोई पुरुष पत्थर तो कोई नारी पत्थर जैसा महसूस होता था। यानी पत्थरों का भी इतना गहन अध्ययन किया था कि उनके रंग-रूप, स्वभाव के अलावा पाषाण स्पंदन का भी अनुभव उनको होता था। पत्थर के अंदर भी जीवन होता है, यह उनका मानना था। मुझे तो लगता है उनके और  पत्थरों के बीच वार्तालाप जैसा हुआ होगा। पत्थरों ने अपने तरीके से कहा होगा कि मुझे ऐसा होना चाहिए, यहां लगना चाहिए। ऐसे में कोई गड़बड़ होने की संभावना कैैसे हो सकती थी।
ल्ल  पुरी मंदिर को लेकर कई तरह के तथ्य हैं जिनके सामने आज का विज्ञान भी हतप्रभ मालूम देता है। जैसे, बहुत पास समुद्र होने के बावजूद मंदिर के गोपुरम पर समुद्री हवा का कोई असर नहीं दिखता। शिल्प के लिहाज से वहां और क्या अनोखी बातें हैं?
पास बहते समुद्र का इतना गर्जन होता है, लेकिन मंदिर के अंदर आने पर जरा भी शोर नहीं सुनाई देता। दीवारों की मोटाई, पत्थरों का चयन, उनके जोड़, इन सबका बहुत अध्ययन किया होगा शिल्पकारों ने। दिन के किसी भी पहर गोपुरम की छाया जमीन पर नहीं पड़ती, ये चीजें ऊपर वाले के प्रति अपने को समर्पित करने के बाद उसके दिशानिर्देश से ही आती हैं। ठाकुर की रसोई में प्रसाद बनता है मिट्टी की हांडियों में और आश्चर्य की बात है कि एक के ऊपर एक रखी हांडियों में से सबसे ऊपर रखी हांडी की चीज पहले पकती है, बाद में नीचे की पकती है। ये बातें चमत्कृत करती हैं।

आपको नहीं लगता कि उन्हीं शिल्पकारों की विरासत को जगन्नाथ रथयात्रा के लिए रथ बनाने वालों ने जारी रखा है?
बिल्कुल, आधुनिक यंत्र या उपकरणों की बजाय लकड़ी के परंपरागत औजारों की मदद से महीनों पहले से विशाल रथ बनाए जाते हैं। रथ बनाने वाले नापने का सारा काम उंगलियों, बिलांद, बाजू, कोहनी तक से करते हैं। जिस पेड़ की लकड़ी से रथ बनाया जाना है उस पेड़ के पास जाकर शिल्पी पहले खुद को समर्पित करता है, अनुष्ठान करता है। पेड़ भी विशेष शंख, चक्र, गदा और पद्म के चिन्हों वाला तलाशा जाता है। पेड़ के अंदर एक शक्ति रोपी जाती है जनता के साथ मिलकर। समर्पण करने के बाद पेड़ जैसे स्वयं रथ निर्माण में सहयोग करता है।

 हमारे देश में कई भवन और इमारतें हैं जिनमें कहीं स्तम्भों से संगीत सुनाई देता है, कहीं हल्की सी थपक भवन के एक कोने से दूर दूसरे कोने तक साफ सुनाई देती है। यह विज्ञान है या कुछ और?
बिल्कुल, ऐसे कई मंदिर या भवन हैं जहां लगे पत्थर ऊर्जा को स्थानांतरित भी करते हैं। इतना ही नहीं, हम पास खड़े बात भी करते हैं तो पत्थर आवाज को ग्रहण करता है। पहले जो बड़े-बड़े थियेटर होते थे, जैसे ग्रीस वालों ने भी बनाए हैं, वहां मंच पर बोली जाने वाली बात आखिरी छोर तक साफ पहुंचती थी। ऐसा पत्थर के स्वरूप, उसके कणों के बारे में पता होने की वजह से ही संभव हुआ था। पत्थरों से होकर बहती आवाज को रास्ते में रोका भी जा सकता था, इसकी सारी जानकारी उनको थी। आम लोगों को वह भले पत्थर दिखता था पर उनके लिए उसके अंदर जैसे प्राण थे, जिसके स्पंदन को वे स्थानांतरित कर सकते थे। उसी की सहायता से वे आवाज को एक से दूसरी जगह ले जा सकते थे। उन्हें उसकी तकनीक पता थी। कई मंदिर हैं जहां गर्भगृह में बात करने पर कोई गूंज नहीं होती। दक्षिण के कुछ मंदिरों के स्तम्भ संगीत की ध्वनियां निकालते हैं। मैंने खुद भुवनेश्वर में कुछ पत्थरों पर काम किया था तो वहां ऐसे पत्थर मिले जिनमें आप कंपन महसूस कर सकते हैं। और यह आवाज पूर्णिमा के आस-पास ज्यादा सुनाई देती है जब चांद पूरा चमकता है। प्रकृति के हिसाब से पत्थरों के स्वभाव में ऐसे परिवर्तन की बारीक जानकारी थी हमारे प्राचीन शिल्पकारों को।  

प्रकृति का और क्या योगदान रहा हमारी प्राचीन वास्तुकला और शिल्पकला में?
कला, संगीत, लेखन, अभिनय आदि का ज्ञान हमें प्रकृति से ही तो मिला है। इन विधाओं की प्रकृति से जितनी नजदीकी होगी, उसकी ताकत बढ़ जाएगी। मैं कभी-कभी अपने छात्रों से कहता हूं कि इस विधा का असली ज्ञान लेना है तो शहरों में नहीं खुले जंगलों, मैदानों में जाओ। पूर्व काल में जैसे जंगल में गुरुकुल में छात्र रहते थे वैसे ही गुरुकुलों में जाकर रहो, वहां से सीखो। वहां प्रकृति के स्पर्श से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। स्पर्श का बहुत महत्व है। एक बात बताता हूं। मैं जब अपने गांव जाता था तो मेरी दादी ऊपर से नीचे तक मेरे पूरे शरीर को स्पर्श करती थी। मैंने पूछा, आप ऐसा क्यों करती हैं? तो उन्होंने बताया, इससे मुझे पता चल जाता है कि तुमने कोई गलत काम तो नहीं किया है। आप देखिए, स्पर्श का कितना ज्ञान था पुराने लोगों को।
 कला की शिक्षा में स्पर्श का ज्ञान दिया जाता था, लेकिन आज तो कोई चित्र या मूर्ति बनाने के बाद, उस लिख दिया जाता है-कृपया छुएं नहीं। हम आज कृत्रिम स्तर पर आ गए हैं। एक मूर्तिकार का उस पत्थर से एक नाता बन जाता है जिसे वह तराशता है। हम यह काम करते हुए महसूस करते हैं। काम शुरू करने पर कुछ वक्ततक कई दिक्कतें आती हैं, छैनी से चोट लगती है, हथौड़ी लग जाती है, पत्थर चुभता है, लेकिन धीरे धीरे एक अपनापन उभरने लगता है और पत्थर नरम मालूम देने लगता है, वह शिल्पकार के शरीर के साथ जैसे एकाकार हो जाता है। पत्थर से बातचीत शुरू होती है, दोस्ती गहराती  जाती है। फिर उसमें आप एक कृति उभारते हैं।          

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