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मांसाहार के लिए आप कुर्बानी नहीं करते हैं, न गोश्त को गरीबों में बांटने के लिए करते हैं और न कुपोषित को पोषित करने के लिए करते हैं। इसलिए अगर आप भ्रम में हैं तो पहले इसे दूर कीजिये और दूसरों को भी भ्रमित न कीजिये।
कुर्बानी आप करते हैं। अपने ईष्ट यानी 'अल्लाह' को खुश करने के लिए। इसके सिवा कुर्बानी का कोई मकसद नहीं होता है। … पहला सच तो ये बोलिए अपने आप से और दूसरों से। झूठ बोलना छोडि़ये कि आपको गरीबों की बड़ी फिक्र है, इसलिए बकरा काटते हैं। आप खूनी खेल को चैरिटी का जामा मत पहनाइये।
दूसरी बात, हम जैसे जो कुर्बानी का विरोध करते हैं वो आपके मांसाहार का विरोध नहीं कर रहे हैं। कोई क्या खाता है? ये हम नहीं तय करने वाले हैं। इसलिए ये विरोध मांसाहार का नहीं है, बल्कि ये विरोध है 'अंधविश्वास' का। उस अंधविश्वास का जो आपके भीतर बैठा हुआ है कि ''आप एक जानवर काट देंगे तो अल्लाह खुश हो जाएगा और आप उस जानवर पर बैठकर पुल सिरात पार करके जन्नत चले जायेंगे।''… ये निरी बकवास है और अंधविश्वास की पराकाष्ठा है। एक दिन में आप अरबों जानवर काट दें, आसमान में बैठे किसी 'अल्लाह' को खुश करने के लिए तो आपको इस नशे से निकालना हम जैसों का फर्ज हो जाता है।
कुर्बानी अमानवीय है और इसका विरोध तब और अधिक बनता है, जब आप इसे इस्लाम के नाम पर करते हैं। जितनी आयतों की दलील आप देते हैं वो सब हज की आयतें हैं, जहां कुर्बानी की बात हो रही है। इस्लाम के किसी अच्छे जानकार से पूछिए, जो मजहब के नाम पर झूठ न बोलता हो और सच्चा हो, वो आपको बतायेगा कि ये परंपरा है क्या और कहां से आई।
इसका न तो हजरत इब्राहिम से कोई लेना देना है और न किसी और पैगम्बर से। ये तो अचानक ढाई सौ सालों बाद हदीसों में बताया जाने लगा कि ये इब्राहिम की परंपरा है। न तो कुरान इसे इब्राहिम की परंपरा कहती है और न उस समय के इतिहास की कोई भी किताब इसे इस परंपरा से जोड़ती है। अरबों ने जो भी गढ़ लिया उसे आपने इस्लाम समझ कर स्वीकार कर लिया, भले वो कितना भी अमानवीय और बेवकूफी भरा हो।
चूंकि अब न तो आपके पास इसको जस्टिफाई करने की कोई दलील होती है और न किसी मौलाना के पास। इसलिए अगर कोई विरोध करे तो आपको गुस्सा आ जाता है, क्योंकि एक दस साल का बच्चा भी आपसे पूछ बैठेगा कि ''इब्राहिम जब अपना बेटा काट रहे थे तो फरिश्ते ने भेड़ रख दी ताकि बच्चा न कट जाए तो अल्लाह ने उनकी आस्था और विश्वास की कुर्बानी स्वीकार की या भेड़ की?''…और अल्लाह ने उनसे कहा था अपनी प्यारी चीज कुर्बान करने को, तो आप लोग क्यों बकरा काट रहे हैं भाई? कुरान की किस आयत में कहा गया है कि मुसलमानों तुम सब ईद के दिन जानवर काटो?.. ये निरी बचकानी दलीलें हैं।
तो चूंकि मामला झूठ का है, इसलिए आपको गुस्सा आता है। आप जानते हैं कि कहीं नहीं लिखा है कि ईद उल अजहा पर बकरा काटना है। जिस आयत को आप पानी पी-पी कर कट-पेस्ट करते घूमते हैं वो सब हज के समय होने वाली कुर्बानी की आयत है। ये हज के समय कुर्बानी की परंपरा सदियों पुरानी थी। हज की समाप्ति पर देवी उज्जा की मूर्ति के आगे हर हाजी एक बलि देता था। बलि के साथ हज समाप्त होता था। इसी परंपरा को इस्लाम मे शामिल कर लिया गया। बस देवी की मूर्ति हटा दी गई और अल्लाह का नाम लिया जाने लगा। ये सच्चाई है। अब चूंकि बाद के लोग, जो मुसलमान बन रहे थे, वो इस कुर्बानी की परंपरा को 'मूर्तिपूजक' परंपरा मानते थे और इसे करने में हिचकिचाते थे। इसलिए धीरे-धीरे अरबों ने चालाकी से हजरत इब्राहिम की किंवदंती को इसमें जोड़ दिया और कहा कि ये उनकी परंपरा है और इसे करो। अब हिचकिचाओ मत…। अब देवी उज्जा नहीं हैं। यह इब्राहिम की परंपरा बन गई है। …अल्लाह को खुश करो अब।
हज के समय तक तो कुर्बानी चली आ रही थी, मगर इसको दुनिया के सारे मुसलमानों पर लादने का श्रेय जाता है दूसरे खलीफा हजरत उमर को। आज प्रचलित लगभग सारा ही इस्लामिक कर्मकांड उन्हीं के द्वारा ही है। इसलिए इस पर बात की जाएगी तो आर्टिकल लंबा हो जाएगा। … मगर एक बात तय है कि सारे मुसलमानों द्वारा बखरीद पर बकरे काटने की परंपरा इस्लामिक नहीं है। ये अरबों की मूर्तिपूजक परंपरा थी और इसका इस्लाम से कोई लेना देना नहीं है। इस्लाम इन्हीं सब ढोंग के खिलाफ आया था और फिर उसी ढोंग को आपने इस्लाम बना लिया।
ये अंधविश्वास है और एक अंधविश्वास में सदियों से डूबे रहना कोई समझदारी की बात नहीं है.. इस से बाहर निकलिये।
(ताबिश सिद्दिकी की फेसबुक वॉल से)
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