शिक्षा, तब और अब
July 13, 2025
  • Read Ecopy
  • Circulation
  • Advertise
  • Careers
  • About Us
  • Contact Us
android app
Panchjanya
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • धर्म-संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
SUBSCRIBE
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • धर्म-संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
Panchjanya
panchjanya android mobile app
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • मत अभिमत
  • रक्षा
  • धर्म-संस्कृति
  • पत्रिका
होम Archive

शिक्षा, तब और अब

by
Sep 4, 2017, 12:00 am IST
in Archive
FacebookTwitterWhatsAppTelegramEmail

दिंनाक: 04 Sep 2017 10:56:11

 

1857 के प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम से डरे अंग्रेजों ने लंदन के एक शिक्षाविद् लीटनर को भारत बुलाकर शिक्षा की त्तत्कालीन पद्धति पर विशद् अध्ययन कराया और धीरे-धीरे उसे बिल्कुल उलट दिया

 शंकर शरण
भारत पर राजनीतिक नियंत्रण कायम कर लेने के बाद ब्रिटिश सरकार ने यहां की सामाजिक व्यवस्था जानने का यत्न किया। भारतीय शिक्षा को समझने के लिए उसने कई आयोग बनाए। उनकी विस्तृत रपटों से यहां तब की शिक्षा प्रणाली और उसकी विशेषताओं की झलक मिलती है। साथ ही, भारतीय और यूरोपीय शिक्षा की तत्कालीन स्थिति की भी कुछ तुलनात्मक जानकारी मिलती है।
आगे प्रस्तुत बातें डॉ. जी. डब्ल्यू. लीटनर की रिपोर्ट पर आधारित हैं जो 1883 में प्रकाशित हुई थी-‘हिस्ट्री आॅफ इंडीजीनस एजुकेशन इन पंजाब सिन्स एनेक्सेशन एंड इन 1882’ (पटियाला स्थित लेंग्वेज डिपार्टमेंट, पंजाब द्वारा 1971 में पुनर्प्रकाशित)। प्राच्य विद्या के विद्वान डॉ. लीटनर पहले लंदन में अरबी भाषा एवं मुहम्मदी कानून के प्रोफेसर रह चुके थे। फिर ब्रिटिश भारत सरकार की विशेष सेवा में शिक्षा आयोग के साथ नियुक्त होकर उन्होंने यह रिपोर्ट तैयार की। बड़े पन्नों और महीन प्रिंट में लगभग साढ़े पांच सौ पन्नों की यह रिपोर्ट एक बहुमूल्य दस्तावेज है। इस में 1850 से 1882 के बीच भारत के बहुत बड़े हिस्से की जानकारी है। जब 1849 में अंग्रेजों ने पंजाब पर कब्जा किया था तब का पंजाब आज के उत्तर प्रदेश की सीमा से लेकर पश्चिम में ईरान तक तथा राजस्थान सीमा से लेकर लगभग रूस को छूता था। अर्थात्, आज के पाकिस्तान का लगभग पूरा हिस्सा तथा वर्तमान भारतीय पंजाब के साथ-साथ हरियाणा, हिमाचल प्रदेश तथा दिल्ली, यह संपूर्ण इलाका पंजाब था।
इस संपूर्ण इलाके के गांव-गांव में 1882 तक कितने और कितनी तरह के पारंपरिक विद्यालय (पाठशाला, वैश्यशाला, मदरसा, मकतब तथा गुरुमुखी विद्यालय) थे, उस सबमें कितने विद्यार्थी, कितने शिक्षक थे, उनमें क्या पढ़ाया जाता था, प्रमुख पाठ्यपुस्तकों और प्रमुख शिक्षकों के नाम, शिक्षकों को होने वाली आय, शिक्षकों की योग्यता और अकादमिक उपलब्धियां, शिक्षा का माध्यम और लिपि, यहां तक कि उन लिपियों के नमूने तथा पाठ्यपुस्तकों में दिए गए पाठ के उदाहरण तक इस रिपोर्ट में दर्ज हैं। अर्थात्, वह शिक्षा जो अंग्रेजों के कब्जे से पहले पंजाब में चल रही थी, और अब अंग्रेजी राज के कारण कमजोर हो रही थी।
चूंकि यूरोपियनों ने भारतीयों को युद्ध में हराकर ऐसे इलाकों पर अधिकार किया था, इसलिए उनमें से बहुतों (जैसे लॉर्ड मैकॉले) को भ्रम था कि यूरोपियन हर बात में भारतीयों से श्रेष्ठ हैं। डॉ. लीटनर इससे मुक्त थे। उन्हें कई मामलों में पूरब के लोगों की विशिष्ट उपलब्धियों का अंदाजा था। इसीलिए, शिक्षा का आकलन करते हुए उन्होंने अधिक से अधिक वास्तविक जानकारियां हासिल करने की कोशिश की।
इस रिपोर्ट की पृष्ठभूमि यह थी कि पंजाब पर कब्जे के बाद अंग्रेजी सरकार ने एक शिक्षा विभाग बनाया। यूरोपीय शैली का एक कॉलेज खोला तथा एक विश्वविद्यालय बनाया। इन उच्च-शिक्षा संस्थानों को उपयुक्त शिक्षार्थी मिलें, इसके लिए प्रत्येक जिले में एक जिला स्कूल खोला। इस बीच सरकार ने एक नया टैक्स लगाया ‘विलेज एजुकेशन सेस’, जिसके साथ घोषणा की गई कि इस धन से हरेक गांव में प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की जाएगी तथा पहले से चल रहे विद्यालयों को आर्थिक सहायता दी जाएगी। मगर नए खुले शिक्षा विभाग के अंग्रेज अधिकारियों को पंजाब में पहले से चल रहे विद्यालयों से प्रतिद्वंदिता महसूस होती थी। साथ में यह स्वार्थ भी था कि शिक्षा मद का धन उन पारंपरिक देसी विद्यालयों को न जाए, केवल नए सरकारी स्कूलों को ही उसका लाभ मिले। इसीलिए दो दशक बीत जाने पर भी नया शिक्षा विभाग अपनी सरकार को पंजाब के देसी विद्यालयों का विवरण नहीं दे सका। तब सरकार ने नया शिक्षा आयोग बनाकर प्रो. लीटनर को यह कार्य सौंपा कि वे सारा विवरण जल्द से जल्द इकट्ठा कर सरकार को दें ताकि वह वादा पूरा कर सके।
पर काम शुरू करने पर लीटनर ने अनेक कठिनाइयां देखीं। सबसे पहले तो यह कि प्राय: सभी इलाकों में पारंपरिक विद्यालय यह चाहते ही नहीं थे कि सरकार उन्हें कोई ‘सहयोग’ दे। पाठशालाएं, मदरसे, मकतब, वैश्यशालाएं और गुरुमुखी विद्यालय पंजाब के गांव-गांव में स्वयं संचालित थे। उन्हें विदेशी शासन के हस्तक्षेप से बचने की इच्छा थी, क्योंकि उनके विद्यालय पारंपरिक रूप से स्वयं अच्छी तरह चल रहे थे। वे सुयोग्य शिक्षकों द्वारा स्थानीय लोगों की रुचि और आवश्यकता के अनुसार सफलतापूर्वक चल रहे थे। उन शिक्षा संस्थानों का संचालन, निर्देशन प्राय: सबसे अग्रणी, सम्मानित लोगों द्वारा होता था। इसीलिए जब सरकारी विभाग के कर्मचारी पूछताछ करते तो उन्हें संदेह होता कि इसके पीछे कोई हितकारी भावना नहीं होगी। अत: वे पूरी जानकारी देने से कतराते थे, क्योंकि वे ब्रिटिश हस्तक्षेप से अपने विद्यालयों की रक्षा करना चाहते थे।
दूसरी ओर, सरकारी शिक्षा विभाग के अमले अहंकार, आलस्य और ईर्ष्यावश पारंपरिक विद्यालयों के बारे में पूरी या सही जानकारी इकट्ठा करने में अनिच्छुक थे। उसके बड़े अधिकारी अंग्रेज थे, जिनकी निजी उन्नति सरकारी उर्दू-अंग्रेजी स्कूलों की उन्नति से जुड़ी थी। इसलिए डॉ. लीटनर को परिश्रमपूर्वक, विविध स्त्रोतों से तथ्य एकत्र करने पड़े। फिर भी उनका अनुमान था कि विद्यालयों, शिक्षकों, विद्यार्थियों की संख्या के बारे में उन्हें पूरी जानकारी नहीं हो पाई। अर्थात्, रिपोर्ट में जो संख्या आई है, वास्तव में तब उससे अधिक विद्यालय, विद्यार्थी और शिक्षार्थी थे। यद्यपि यह साफ था कि 1849 की तुलना में उनकी संख्या घटी थी, और लगातार घटने की दिशा ही दिख रही थी।
लीटनर रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय समाज में शिक्षा का आदर इतना अधिक था कि हर तरह के लोग, दुष्ट प्रधान से लेकर, लोभी महाजन, यहां तक कि युद्ध-लुटेरे तक विद्वानों का आदर करने में बढ़-चढ़कर प्रतियोगिता करते थे। इससे उन्हें आत्मिक सुख होता था। ऐसा कोई मंदिर, मस्जिद, धर्मशाला न थी जिसके साथ कोई स्कूल जुड़ा हुआ न हो। वहां बच्चे और युवा खुशी-खुशी पढ़ने जाते थे। वे स्कूल मुख्यत: पांथिक शिक्षा देते थे। किन्तु हजारों सेक्युलर स्कूल भी थे, जिसमें मुसलमान, हिन्दू और सिख समान रूप से पढ़ने जाते थे। उन स्कूलों में फारसी और लुंद (नागरी लिपि का संक्षिप्त ‘पूंछ-हीन’ रूप) लिपि की पढ़ाई होती थी। साथ ही, ऐसा कोई धनी न था जो निजी रूप से किसी न किसी मौलवी, पंडित या गुरू को अपने यहां नियुक्त न रखता हो, जो उसके बच्चों के साथ-साथ पास-पड़ोस और उसके मित्रों, संबंधियों के बच्चों को भी पढ़ाते थे। इसके अलावा सैकड़ों विद्वान भी स्वेच्छा से समाज सेवा के रूप में भगवान का कार्य समझ कर विद्यादान करते थे। फिर गांव का कोई आदमी न था जो खुशी-खुशी अपनी आय का कोई हिस्सा किसी सम्मानित शिक्षक को देकर गर्व न महसूस करता हो।
1849 में, जब अंग्रेजों ने वहां कब्जा किया, पंजाब में कम से कम 3,30,000 विद्यार्थी देशी शिक्षा और उच्च-शिक्षा संस्थानों में थे। वह संख्या 1882 में घटकर 1,90,000 रह गई। वे विद्यार्थी पढ़ना, लिखना तथा किसी न किसी क्षमता तक गणित जानते थे। उनमें हजारों विद्यार्थी अरबी और संस्कृत महाविद्यालयों से जुड़े थे, जहां पूरबी साहित्य, कानून, दर्शन, तर्कशास्त्र और आयुर्वेद की पढ़ाई होती थी। उन संस्थाओं के दसियों हजार विद्यार्थी उस फारसी में बहुत प्रवीण थे, जो सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल, कॉलेजों में दुर्लभ थी। शिक्षा संस्थाओं में एकनिष्ठा का वातावरण था जो किसी सांसारिक लाभ के लिए नहीं, बल्कि मात्र ज्ञान-प्राप्ति, चरित्र निर्माण और सुसंस्कृत, धर्म-निष्ठ होने के लिए थी। वणिकों के लड़के भी अपने साधारण पांढा (शिक्षक) को अत्यंत आदर से देखते थे, जो उन्हें बस वह मामूली लिखना, पढ़ना और हिसाब करना सिखा पाता था जो उनकी जीविका के लिए बहुत जरूरी होता था। 1874 में एक ब्रिटिश संसदीय रिपोर्ट ने भी पंजाब में देशी शिक्षा की स्थिति का आकलन किया था। डॉ. लीटनर ने इसे भी विस्तार से उद्धृत किया।
इसके अनुसार, पंजाब में मुसलमानों और हिन्दुओं के लिए बड़ी संख्या में पांथिक विद्यालय थे। इनमें पढ़ाने वाले मुख्यत: पुरोहित वर्ग के लोग थे, जिनमें कई बड़े प्राच्य-विद्याविद् माने जाते थे। इनमें मुख्यत: व्याकरण, पांथिक साहित्य और शास्त्रीय भाषाएं, अरबी और संस्कृत पढ़ाई जाती थी। कई विद्यालयों में फारसी, कलात्मक लेखन (कैलीग्राफी) तथा विशिष्ट वाणिज्यिक लिपि पढ़ाई जाती थी, जिसे केवल वणिक ही जानते-समझते थे। उन स्कूलों में अनुशासन, नियमित उपस्थिति आदि के नियम कड़े नहीं थे। अंग्रेजी शासन ने यह सब बदल डाला। विदेशी अधिकारियों ने कटिबद्ध होकर अपने सुधार लागू करने शुरू कर दिए। वे 1857 के विद्रोह से सावधान और सशंकित थे। इसलिए भी उन्होंने पूरी दृढ़ता से अपनी नई व्यवस्था कायम करने की कोशिशें कीं।
इससे पारंपरिक विद्यालयों की संख्या और गुणवत्ता गिरने लगी। इसका एक बड़ा कारण स्वयं वह ‘अनुदान’ भी था, जो नई ब्रिटिश सरकार ने उन्हें देने की नीति बनाई थी! पहले पूरी तरह स्थानीय समाज द्वारा संचालित होने के कारण शिक्षकों की आय उनकी योग्यता और गुणवत्ता पर निर्भर थी। सरकारी वेतन की शुरुआत ने शिक्षकों को पारंपरिक गुणवत्ता एवं कार्य आधारित आय से स्वतंत्र करना आरंभ कर दिया। इससे विद्यालयों के संचालन में स्थानीय समाज की भूमिका भी धीरे-धीरे घटने लगी। न केवल धन की व्यवस्था, बल्कि शिक्षा के विषय, पाठ्य-सामग्री आदि भी दूर बैठे किन्हीं अधिकारियों और विजातीय लोगों द्वारा तय होने लगी। शिक्षा अपने समाज से दूर होकर राज्य-तंत्र से जुड़ने लगी। अपनी सरसता छोड़कर रूखी, यांत्रिक, कागजी सर्टिफिकेट वाली प्राणहीन शिक्षा की ओर बढ़ने लगी। इस तरह, वह ‘सुंदर वृक्ष’ उजड़ने लगा, जिसके रूपक से गांधीजी ने भारतीय शिक्षा को अंग्रेजों के हाथों नष्ट होने का सही आरोप लगाया था। लीटनर की यह रिपोर्ट इसकी पुष्टि करती है। इस बीच, नए अंग्रेज शासकीय अधिकारियों को शासितों के बीच गर्जमंद लोगों ने भी घेर लिया। उनमें अनेक उत्तर-पश्चिम प्रांत के महत्वाकांक्षी लोग थे। उन लोगों की फारसी-उर्दू की जानकारी से अंग्रेज अधिकारियों ने वह बोली सीखी और इससे शासन चलाने में सुविधा होने लगी। साथ ही उन लोगों ने अंग्रेजों से टूटी-फूटी अंग्रेजी सीख कर सत्ता में एक स्थान बनाना शुरू कर दिया। वे लोग प्राय: समाज के मध्य एवं निम्न वर्गीय लोग थे। लेकिन उनका सहयोग लेकर, और उन्हें सहयोग देकर अंग्रेजों ने अपनी स्थिति मजबूत की। तभी से शिक्षा में फारसी और संस्कृत के बदले उर्दू का वर्चस्व होने लगा। लेकिन उर्दू में शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी, इसलिए पंजाब में बौद्धिक अंधकार फैलने लगा। किन्तु अंग्रेजों ने अपने विभिन्न विभागों का काम चलाने के लिए सस्ते मातहत एजेंट पाने का उपाय जरूर कर लिया। लीटनर के अनुसार, शिक्षा विभाग कायम करने का एक उद्देश्य यह भी था।      
वस्तुत: उर्दू की शिक्षा मुख्यत: यूरोपियों के लिए थी। डॉ. लीटनर के अनुसार भारतीय लोग फारसी और संस्कृत को ही शिक्षा का विषय व माध्यम मानते थे। उर्दू तो बस ऐसे ही थी। लीटनर के शब्दों में, ‘उर्दू द्वारा फारसी का विस्थापन शिक्षा को बाधित करने वाली बात मानी गयी और भले लोगों की लिखित और मौखिक भाषा के रूप में फारसी चलन से बाहर होने लगी। हालांकि गर्जमंद और वे, जो नए सत्ताधारियों को खुश करना चाहते थे, उन लोगों ने उर्दू और बाद में अंग्रेजी का स्वागत किया क्योंकि इस से सरकारी नौकरियों तक पहुचने का रास्ता बनता था। इस प्रकार हमने पहले शिक्षा का स्तर गिराया, जो पहले मानसिक और नैतिक संस्कृति उन्नत बनाने के लिए होती थी,वह अब महज दुनियावी लोभ-लालच वाली महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए होने लगी।’ अंग्रेजों ने मौलवियों, पंडितों, ज्ञानियों को संदेह से देखना शुरू किया, जिन्हें समाज में बड़े आदर से देखा जाता था। उन पारंपरिक ज्ञानियों के साहित्य में जो कुछ भी यूरोपियन बुद्धि को अटपटा लगता था, उसे मूर्खतापूर्ण समझा गया। चूंकि सत्ताधारी ऐसा कर रहे थे, इसलिए समय के साथ लोगों के बीच उन ज्ञानियों, मौलवियों, पंडितों की प्रतिष्ठा कम होने लगी। इस तरह, अंग्रेजों ने पारंपरिक शिक्षा का विघटन किया जिस में धर्म-आचार, चरित्र-निर्माण का प्रमुख स्थान था। इस बीच ग्रामीण धनिकों, रईसों और अच्छे किसानों ने अभिमान के चलते या तो शिक्षा को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया, या निजी शिक्षक रखकर अपने बेटों की शिक्षा का प्रबंध किया। किन्तु व्यापारी वर्ग के महत्वाकांक्षी लोगों ने सरकारी शिक्षा व्यवस्था को सहज स्वीकार किया। इससे उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ने की संभावना भी दिख रही थी। सरकारी सेवा में नौकरी पाकर उन उच्च-वर्ण के लोगों पर शासन करने का अवसर भी खुल रहा था, जो अब तक इन्हें नीची नजर से देखते थे। सरकारी शिक्षा प्रणाली अपनाकर सत्ताधारियों का अंग बनकर एक नया उच्च-वर्ग बनने की प्रेरणा आकर्षक थी। 1864 में केवल 4 छात्रों से शुरू हुए लाहौर गवर्नमेंट कॉलेज में 1872 में 60 छात्र हो गए। यह अंग्रेजी शिक्षा की बढ़ती मांग का संकेत था। वहां से निकले स्नातक सफल अधिकारी, कर्मचारी या पेशेवर बनने लगे थे। जैसा बाद के इतिहास से लगता है कि पूरे भारत में अंग्रेजी स्कूल-कॉलेजों का प्रभाव बढ़ता चला गया।
यद्यपि जो नई अंग्रेजी शिक्षा दी जा रही थी, उसका स्तर अच्छा नहीं था। 1874 की ब्रिटिश संसदीय रिपोर्ट के अनुसार, भारत में नई अंग्रेजी शिक्षा ने विद्यार्थियों को सुसंस्कृत नहीं बनाया है, जो शिक्षा की सर्वोच्च पहचान है। यह तत्व रिपोर्ट ने यहां उन लोगों में पाया जिन्होंने फारसी और संस्कृत की शिक्षा पाई है। उनमें सुरुचिपूर्ण संस्कार के साथ बौद्धिक क्षमता से जुड़ी आदतें देखी जाती हैं। जबकि अंग्रेजी शिक्षा पाए लोग जैसे-तैसे कुछ रटी हुई जानकारियां ही दुहरा सकते हैं।
यही बात पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर की रिपोर्ट (1873) में भी मिलती है कि, नई अंग्रेजी शिक्षा से न विद्वान बन रहे हैं, न भद्र-सुसंस्कृत लोग। रिपोर्ट के अनुसार, ‘‘यदि शिक्षा का नतीजा यह हो कि वहां से आकर युवक अहंकारी, उद्धत और अशिष्ट वाचाल दिखें तो आश्चर्य क्या कि माता-पिता घर में ही बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं। इसकी तुलना में इस रिपोर्ट ने पारंपरिक भारतीय शिक्षा की उदात्तता, ज्ञान का आदर करने, उसके प्रति विनम्र श्रद्धा रखने तथा किसी भी बात को गहराई से जानने, हर तफसील का ध्यान रखने की प्रवृत्ति नोट की थी। रिपोर्ट ने पाया था कि सच्ची ज्ञान-भावना और रुचि यहां की पारंपरिक शिक्षा के पास ही है। रिपोर्ट पश्चिमी और पूरबी शिक्षा का संतुलित योग बनाने की सिफारिश करती है, क्योंकि ‘दोनों को एक दूसरे से सीखना है’। इसने पारंपरिक शिक्षा को सरसरी तौर पर खारिज करने तथा नष्ट होने देने की प्रवृत्ति को अविवेकपूर्ण बताया था। इस प्रकार, डॉ. लीटनर ने आज से 150 साल पहले के भारत में शिक्षा की स्थिति और उसमें अंग्रजी शासन से आते बदलाव का आकलन किया। उनके ही शब्दों में यह ‘‘एक यूरोपीय सभ्यता के एक एशियाई सभ्यता से संपर्क का इतिहास है’, जिसमें ‘पंजाब की शिक्षा लगभग नष्ट हो गई, कैसे उसके पुनर्जीवन के अवसर गंवा दिए गए, और कैसे उस शिक्षा का विकास या तो उपेक्षित किया गया या उसे विकृत किया गया।’’
पंजाब के विशाल क्षेत्र में लीटनर रिपोर्ट ने जो नोट किया, लगभग वैसे ही तथ्य कलकत्ता प्रसिडेंसी में 1835 और 1838 में डब्ल्यू. एडम की रपटों में भी मिलते हैं। एडम ने तब के बंगाल-बिहार-उड़ीसा के विशाल क्षेत्र में ऐसा ही अध्ययन किया था। उसी दौर में बंबई प्रेसीडेंसी में भी यही तथ्य पाए गए थे। उन सभी रपटों से यह समान तथ्य उभर कर आता है कि संपूर्ण भारत की शिक्षा व्यवस्था गंभीर, ज्ञान-पूर्ण, आत्म-निर्भर, राजसत्ता के हस्तक्षेप से पूर्णत: स्वतंत्र, गांव-गांव तक उपलब्ध तथा गुणवत्ता एवं गहराई में भी यूरोपियनों से कई मामलों में उन्नत थी। किन्तु, अंग्रेजों की सत्ता के प्रभाव, यहां के नवोदित उच्च-वर्ग के लोभ, भारतीयों की सामाजिक एकता में कमी तथा पारंपरिक ज्ञानियों की प्रतिष्ठा में तेजी से गिरावट आदि कई कारणों से यहां पारंपरिक शिक्षा लगभग लुप्तप्राय हो गई।
अत: जो लोग 200 वर्ष पहले के भारत को यूरोपियनों से पिछड़ा मानते हैं तथा भारत में अंग्रेजी राज को आधुनिक विकास और उन्नति का कारण मानते हैं, उनके लिए ये रपटें आंख खोलने वाली हैं। डॉ. लीटनर की रिपोर्ट 1882 में लिखी गई थी, जब 1857 के विद्रोह को अधिक समय नहीं बीता था। उदारवादी विद्वान के रूप में उन्हें लगा था कि किसी समाज को जीतने का उपाय, वहां के सर्वश्रेष्ठ लोगों को सरकारी योजनाओं, कार्यों में शामिल करना है। मगर, जैसा इतिहास ने दिखाया, उर्दू और अंग्रेजी द्वारा स्वार्थी किस्म की शिक्षा चलाकर, और भारतवासियों के बीच एक अनुचर वर्ग का निर्माण करके अंग्रेजी सत्ता को लाभ ही हुआ। पारंपरिक भारतीय शिक्षा को ध्वस्त करके उन्होंने वास्तव में भारतीय समाज का नैतिक विघटन किया, जिस से भारतवासी लंबे समय तक निर्बल हो गए और यूरोपियनों का अनुकरण करके अंग्रेजी-शिक्षित भारतीय अपने देशवासियों से अलग होकर उन पर स्वार्थी भाव से काबिज हो गए। यह अब तक चल रहा है।
पारंपरिक भारतीय शिक्षा में बहुत-सी बातें ऐसी थीं जिन्हें पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। वे हमारी भौतिक, मानसिक और चारित्रिक आवश्यकताओं को पूरा करती थीं। अंग्रेजों द्वारा चलाई गई शिक्षा में कई तत्वों का अभाव है, जिसकी हानियां देखी जा रही हैं।
    (लेखक प्रख्यात स्तंभकार और राजनीतिशास्त्री हैं)

ShareTweetSendShareSend
Subscribe Panchjanya YouTube Channel

संबंधित समाचार

RSS का शताब्दी वर्ष : संघ विकास यात्रा में 5 जनसंपर्क अभियानों की गाथा

Donald Trump

Tariff war: अमेरिका पर ही भारी पड़ सकता है टैरिफ युद्ध

कपिल शर्मा को आतंकी पन्नू की धमकी, कहा- ‘अपना पैसा वापस ले जाओ’

देश और समाज के खिलाफ गहरी साजिश है कन्वर्जन : सीएम योगी

जिन्होंने बसाया उन्हीं के लिए नासूर बने अप्रवासी मुस्लिम : अमेरिका में समलैंगिक काउंसिल वुमन का छलका दर्द

कार्यक्रम में अतिथियों के साथ कहानीकार

‘पारिवारिक संगठन एवं विघटन के परिणाम का दर्शन करवाने वाला ग्रंथ है महाभारत’

टिप्पणियाँ

यहां/नीचे/दिए गए स्थान पर पोस्ट की गई टिप्पणियां पाञ्चजन्य की ओर से नहीं हैं। टिप्पणी पोस्ट करने वाला व्यक्ति पूरी तरह से इसकी जिम्मेदारी के स्वामित्व में होगा। केंद्र सरकार के आईटी नियमों के मुताबिक, किसी व्यक्ति, धर्म, समुदाय या राष्ट्र के खिलाफ किया गया अश्लील या आपत्तिजनक बयान एक दंडनीय अपराध है। इस तरह की गतिविधियों में शामिल लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

ताज़ा समाचार

RSS का शताब्दी वर्ष : संघ विकास यात्रा में 5 जनसंपर्क अभियानों की गाथा

Donald Trump

Tariff war: अमेरिका पर ही भारी पड़ सकता है टैरिफ युद्ध

कपिल शर्मा को आतंकी पन्नू की धमकी, कहा- ‘अपना पैसा वापस ले जाओ’

देश और समाज के खिलाफ गहरी साजिश है कन्वर्जन : सीएम योगी

जिन्होंने बसाया उन्हीं के लिए नासूर बने अप्रवासी मुस्लिम : अमेरिका में समलैंगिक काउंसिल वुमन का छलका दर्द

कार्यक्रम में अतिथियों के साथ कहानीकार

‘पारिवारिक संगठन एवं विघटन के परिणाम का दर्शन करवाने वाला ग्रंथ है महाभारत’

नहीं हुआ कोई बलात्कार : IIM जोका पीड़िता के पिता ने किया रेप के आरोपों से इनकार, कहा- ‘बेटी ठीक, वह आराम कर रही है’

जगदीश टाइटलर (फाइल फोटो)

1984 दंगे : टाइटलर के खिलाफ गवाही दर्ज, गवाह ने कहा- ‘उसके उकसावे पर भीड़ ने गुरुद्वारा जलाया, 3 सिखों को मार डाला’

नेशनल हेराल्ड घोटाले में शिकंजा कस रहा सोनिया-राहुल पर

‘कांग्रेस ने दानदाताओं से की धोखाधड़ी’ : नेशनल हेराल्ड मामले में ईडी का बड़ा खुलासा

700 साल पहले इब्न बतूता को मिला मुस्लिम जोगी

700 साल पहले ‘मंदिर’ में पहचान छिपाकर रहने वाला ‘मुस्लिम जोगी’ और इब्न बतूता

  • Privacy
  • Terms
  • Cookie Policy
  • Refund and Cancellation
  • Delivery and Shipping

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies

  • Search Panchjanya
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • लव जिहाद
  • खेल
  • मनोरंजन
  • यात्रा
  • स्वास्थ्य
  • धर्म-संस्कृति
  • पर्यावरण
  • बिजनेस
  • साक्षात्कार
  • शिक्षा
  • रक्षा
  • ऑटो
  • पुस्तकें
  • सोशल मीडिया
  • विज्ञान और तकनीक
  • मत अभिमत
  • श्रद्धांजलि
  • संविधान
  • आजादी का अमृत महोत्सव
  • लोकसभा चुनाव
  • वोकल फॉर लोकल
  • बोली में बुलेटिन
  • ओलंपिक गेम्स 2024
  • पॉडकास्ट
  • पत्रिका
  • हमारे लेखक
  • Read Ecopy
  • About Us
  • Contact Us
  • Careers @ BPDL
  • प्रसार विभाग – Circulation
  • Advertise
  • Privacy Policy

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies