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पहल से मिली पहचान

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Sep 4, 2017, 12:00 am IST
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दिंनाक: 04 Sep 2017 10:56:11

यमुना के किनारे झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वाले गरीब बच्चों का भविष्य संवारने में जुटा है ‘फ्री स्कूल अंडर द ब्रिज’। इसकी बुनियाद एक ऐसे व्यक्ति ने रखी है जो आर्थिक अभाव के कारण पढ़ नहीं सका

नागार्जुन
पूर्वी दिल्ली में यमुना बैंक मेट्रो डिपो से थोड़ी दूर पुल के नीचे एक स्कूल चलता है— ‘फ्री स्कूल अंडर द ब्रिज’। यह इसी के नीचे खंभा संख्या 5 और 6 के बीच में यह स्कूल है। वैसे तो स्कूल शहर की आपाधापी और कोलाहल से दूर है, पर एक या दो मिनट के अंतराल में ट्रेनों की आवाजाही से शोर होता है। लेकिन शिक्षकों और बच्चों पर इसका कोई असर नहीं दिखता, जैसे वे इस शोर के अभ्यस्त हो गए। स्कूल पूरी तरह खुला हुआ है और इसमें दरवाजे-खिड़कियां नहीं हैं। पुल छत का काम करता है, जबकि दोनों तरफ के चार खंभे दो दीवारों की तरह हैं। सामने मेट्रो की दीवार है, जिस पर ब्लैक बोर्ड बने हुए हैं। हां, इस दीवार पर रंग-बिरंगे फूल और चित्र यहां स्कूल होने का एहसास कराते हैं। महत्वपूर्ण बात यह कि स्कूल के संस्थापक राजेश कुमार शर्मा और इसमें पढ़ाने वाले शिक्षक आर्थिक रूप से संपन्न तो नहीं हैं, पर ये शिक्षा को सर्वोपरि मानते हैं।
47 वर्षीय राजेश शर्मा ने 2006 में दो बच्चों से स्कूल की शुरुआत की थी। पहले वे यमुना के किनारे जंगल में एक पेड़ के नीचे बच्चों को पढ़ाते थे। 2009 में बाढ़ आने के बाद पढ़ाई का काम ठप पड़ गया। अभिभावक फिर से बच्चों को पढ़ाने की गुजारिश कर रहे थे, पर समस्या जगह को लेकर थी जहां बच्चों को बारिश या धूप से परेशानी न हो। खोजबीन के बाद पुल के नीचे एक जगह इसके लिए उचित लगी और 2010 से उन्होंने यहां पढ़ाना शुरू किया। धीरे-धीरे बच्चों की संख्या बढ़ने लगी तो अकेले राजेश शर्मा के लिए उन्हें पढ़ाना संभव नहीं था। इसलिए उन्होंने 2010 में लक्ष्मीचंद्र और 2012 में श्याम महतो को अपने साथ जोड़ा। अब इस स्कूल में नर्सरी से दसवीं कक्षा के करीब ढाई सौ बच्चे पढ़ते हैं। पहले सिर्फ लड़के ही पढ़ने आते थे, लेकिन शर्मा के प्रयासों से लड़कियां भी आने लगी हैं।
स्कूल दो पालियों में चलता है। सुबह 9:00 से 11:30 बजे तक लड़कों और दोपहर 2:00 से 4:30 बजे तक लड़कियों को पढ़ाया जाता है। स्कूल के समय को इस हिसाब से रखा गया है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे अपने स्कूल भी जा सकें। इस स्कूल में यमुना के किनारे झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वाले गरीब परिवारों के बच्चे पढ़ते हैं। जहां यह स्कूल है, पहले वहां गड्ढा था और बच्चों के बैठने की व्यवस्था भी नहीं थी। लेकिन शर्मा ने सहयोगियों की मदद से उस गड्ढे को मिट्टी से भरकर उसे समतल बना दिया। मेट्रो प्रबंधन ने पानी की सुविधा देकर उनकी एक और मुश्किल आसान कर दी। जैसे-जैसे लोगों को शर्मा के इस नेक कार्य का पता चला, वैसे-वैसे बच्चों की मदद के लिए हाथ भी बढ़ने लगे। लोग बच्चों को स्कूल की पोशाक, जूते, कॉपी-किताबें, पेंसिल आदि जरूरत की चीजें दे जाते हैं। अपनी अनूठे पहल के चलते 2011 में यह स्कूल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रहा।
पहले बच्चे र्इंटों के खड़ंजे पर बोरियां बिछा कर बैठते थे, लेकिन अब उनके बैठने के लिए दरियां हैं और शिक्षकों के बैठने के लिए पांच-छह कुर्सियां हैं, जो स्कूल को शुभचिंतकों से अनुदान में मिली हैं। यहां नियमित तौर पर साफ-सफाई होती है। इसके अलावा, छात्राओं के लिए थोड़ा हटकर शौचालय भी है। खास बात यह है कि कई बच्चों के नाम पास के ही सरकारी स्कूलों में दर्ज हैं, लेकिन वे इस स्कूल में पढ़ने आते हैं, क्योंकि उन्हें यहां की पढ़ाई अच्छी लगती है। साथ ही, उन्हें पैसे भी नहीं देने पड़ते। राजेश शर्मा बच्चों को हिन्दी-अंग्रेजी, बिहार के नालंदा जिले के लक्ष्मीचंद्र गणित, विज्ञान और बख्तियारपुर के श्याम महतो दूसरे विषय पढ़ाते हैं।  
यह पूछने पर कि स्कूल का पंजीकरण कराने या गैर सरकारी संस्था बनाने के बारे में कभी सोचा, शर्मा ने कहा, ‘‘नहीं, हमारा मकसद केवल गरीब बच्चों को शिक्षित करना है। अक्सर गरीबी के कारण लोग अपने बच्चों को नहीं पढ़ाते। लेकिन हम उनके लिए कुछ कर रहे हैं, यही काफी है। मेरा उद्देश्य इन बच्चों को अच्छी शिक्षा देना है, नहीं तो गरीबी के कारण ये भी अपने माता-पिता की तरह जीवन के अंधेरे में खो जाएंगे। इसलिए मैं इन्हें सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए प्रेरित करता हूं ताकि ये वहां मिलने वाली सुविधाओं से फायदा उठा सकें।’’ शकरपुर में जनरल स्टोर चलाने वाले शर्मा अपने शुरुआती जीवन के बारे में बताते हैं, ‘‘हमारा परिवार अलीगढ़ जिले में सिकंदराराऊ के पास छोटे-से गांव जिरौली कलां में रहता था। हम तीन भाई और आठ बहन थे। मेरा नंबर सातवां है। माता-पिता खेतिहर मजदूर थे। घर की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। 1989 में विज्ञान से 12वीं कक्षा पास करने के बाद स्नातक की पढ़ाई के लिए कॉलेज में दाखिला लिया। कॉलेज 40 किलोमीटर दूर था और उस समय 30 रुपये फीस लगती थी। लेकिन मेरे परिवार के लिए यह रकम भी बहुत बड़ी थी। मैंने पढ़ाई जारी रखने की बहुत कोशिश की लेकिन पैसे के अभाव में पढ़ाई छूट गई। तब माता-पिता ने गांव में ही काम करने को कहा, लेकिन मैंने कहा कि जब मजदूरी ही करनी थी तो मुझे पढ़ाया क्यों? इसलिए 1992 में मैं दिल्ली आ गया। कुछ समय बाद एक काम मिला, लेकिन उसमें भ्रष्टाचार देखकर मैंने उसे छोड़ दिया। हालांकि काम छोड़ने के बाद पूरे पैसे तो नहीं मिले, लेकिन जो थोड़े पैसे मिले, उससे मैंने फल बेचना शुरू किया। इस तरह धीरे-धीरे आगे बढ़ता गया, परंतु पढ़ाई नहीं कर पाने की टीस हमेशा मन में रही। लिहाजा कुछ साल बाद बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। शुरू में तो परिवार के लोग भी इसके खिलाफ थे। दोस्त भी मजाक उड़ाते थे। लेकिन मुझे यह सब करके मन को शांति मिलती है।’’

मैं इंजीनियर बनना चाहता था। मेरे उसी अधूरे सपने ने स्कूल की शक्ल ले ली है।  
— राजेश शर्मा,स्कू

जिंदगी में परोपकार करना चाहिए। जीवन का मूल्यांकन इसी से होता है।
— लक्ष्मीचंद्र,अध्यापकल संस्थापक

लक्ष्मीचंद्र के माता-पिता खेतिहर मजदूर थे। सिकंदरा उच्च विद्यालय से माध्यमिक और उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद 1980 में वे हिल्सा चले गए। वहां एक दिन नक्सलियों ने सात लोगों का सिर काट दिया। लक्ष्मीचंद्र कहते हैं, ‘‘मैंने देखा कि छोटी उम्र के लड़के-लड़कियों को नक्सली अपने दल में शामिल कर लेते हैं। इलाके में शिक्षा की स्थिति देखकर मैंने पढ़ने के साथ पढ़ाना भी शुरू किया। एसयू कॉलेज से भौतिकी से स्नातक किया। लेकिन आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण 1996 में दिल्ली आना पड़ा। यहां बच्चों की स्थिति देखकर लगा कि मुझे इनके लिए कुछ करना चाहिए।’’ वे स्कूल में बच्चों को पढ़ाने के बाद दूसरे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते हैं और इसी से उनका घर खर्च चलता है। बेटी ने स्नातक की पढ़ाई पूरी कर ली है, जबकि बेटा स्नातक अंतिम वर्ष का छात्र है।’’ वहीं श्याम महतो ट्यूशन से बमुश्किल 3-4,000 रुपये ही कमा पाते हैं। उनकी पत्नी सोसायटी के घरों में खाना बनाती हैं और उसी से घर का खर्च चलता है।
स्कूल में और ट्यूशन पढ़ाने के बाद अगर वक्त मिलता है तो श्याम झुग्गी में रहने वाले लोगों की मदद करते हैं। जैसे- इलाज के लिए अस्पताल से कार्ड बनवाना, आधार कार्ड, वोटर कार्ड जैसे दूसरे कामों में मदद करना। वे कहते हैं, ‘‘घर में विरोध तो झेलना पड़ता है, लेकिन इससे बड़ी जन सेवा और क्या हो सकती है कि किसी का जीवन सुधर जाए।’’ इनके अलावा, कभी-कभी दूसरे लोग भी बच्चों को पढ़ाने आ जाते हैं। उन्हीं में से एक महिला भारोत्तोलक कविता अग्रहरि हैं, जो बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने पहुंची थीं। कविता ने 53 किलोग्राम वर्ग में 2011 में दक्षिण अफ्रीका में हुई कॉमनवेल्थ चैम्पियनशिप में रजत पदक जीता था।    

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