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राष्टÑ सेविका समिति की तृतीय संचालिका वंदनीय ऊषा ताई का संपूर्ण जीवन राष्टÑहित में मातृशक्ति के संगठन को समर्पित रहा। गत 17 अगस्त को नागपुर में 91 वर्ष की आयु में उन्होंने नश्वर देह का त्याग भले किया हो, पर अपने ओजपूर्ण गीतों और ममत्व के माध्यम से वे सेविकाओं के हृदय में सदा निवास करती रहेंगी
डॉ. शरद रेणु
सत्रह अगस्त, 2017 को अपराह्न 4.30 बजे माननीय प्रमुख कार्यवाहिका अन्नदानम् सीता जी से मुझे संदेश प्राप्त हुआ कि ‘वन्दनीया ऊषा ताई जी अपराह्न 4.10 बजे हमें छोड़कर ईश चरणों में विलीन हो गई हैं।’ मैं व्यथित हो गई .. आंखें बंद करके अपने कक्ष में बैठ गई… अचानक मेरे कानों में शब्द ध्वनित होने लगे-‘यह मेरा प्राण, यह मेरी आत्मा ईश्वरत्व की ओर प्रयाण कर रही है।’ मेरी बंद आंखों के सामने शून्य नीले आकाश का विहंगम परिदृश्य था, जिसमें छोटी-छोटी अनेक लाल-पीली-नीली पतंगें उड़ रही थीं। उन पतंगों के मध्य छोटे-छोटे पंछी उड़ते दिखाई दे रहे थे…कानों में शब्द गूंज रहे थे-‘यह मेरा प्राण…यह मेरी आत्मा ईश्वरत्व की ओर प्रयाण कर रही है।’ मैं उन पंछियों, पतंगों के मध्य उस पंछी को तलाश रही थी जिसका यह स्वर मधुर कंठ से मन में गूंज रहा था। अचानक एक पतंग कट कर गिरने लगी…मेरे मुंह से निकला-ओह…यह क्या हुआ? भावभूमि से लौटी तो कानों में वही संदेश था-‘राष्ट्र सेविका समिति की तृतीय संचालिका वंदनीया ऊषा ताई जी हमारे मध्य नहीं रहीं।’ देशभर की अनेकों सेविकाओं की यह मन:स्थिति थी, क्योंकि हम सभी के ऊपर वंदनीया ऊषा ताई जी का मातृवत्सल…. वरद् हस्त सदैव रहा। आज उस वत्सलता की छांह ऊपर से हट गई…। हम सभी को लगता था कि मन के सभी प्रश्नों का समाधान हम जहां खोज सकते हैं, वह ऊषा ताई जी का वात्सल्य-सानिध्य है। वह किसी सेविका की सखी, किसी की गुरु, किसी की मार्गदर्शक, किसी की मां जैसी थीं। उनका बहुआयामी व्यक्तित्व उनका कृतिशील कर्तृत्व, उनका लोकप्रिय नेतृत्व एवं उनका विशाल मातृत्व सभी सेविकाओं की अंतश्चेतना को सर्वदा जाग्रत करते हुए प्रेरणा देता रहता था।
पारिवारिक जीवन
स्नेहमयी ऊषाताई जी का जन्म दिनांक 31 अगस्त, 1927 को विदर्भ प्रांत के भंडारा नामक स्थान पर हुआ। इस दिन संयोग से भाद्रपद शुक्ल (शुद्ध) चतुर्थी अर्थात् गणेश चतुर्थी थी। महाराष्ट्र में सर्वत्र गणेशोत्सव की धूम, घंटे, घड़ियाल का नाद। फणसे परिवार में भी आन्दोत्सव के मध्य कन्या के जन्म ने परिवार की खुशियों को दुगना कर दिया। मां-पिता को लगता था, हमारी पुत्री बुद्धि-प्रदाता गणनायक गणेशजी की तरह इस समाज और देश को नायकत्व देने वाली बनेगी। अज्ञानता में ज्ञान का प्रकाश फैलाएगी। इसीलिए उन्होंने सूरज की अगवानी में आने वाली प्रात: की ‘ऊषा’ पर अपनी बेटी का नाम ‘ऊषा’ रखा, जिसने ज्योतिर्मान ऋग्वेद के ऊषा सूक्त के अनुसार, अपने तेजोमय, प्रेममय, नेतृत्वयुक्त, सभी को ममत्व के आंचल में ढकने वाले ज्ञानमय, शौर्यशाली, संगीतमय व्यक्तित्व से समाज जीवन को ढक लिया।
ऊषाताई जी अपने माता-पिता से प्राप्त संस्कारों से पोषित हो रही थीं। जैसे-जैसे वे बड़ी हुईं, उनकी शिक्षा व्यवस्था हेतु भंडारा के ‘मनरो हाईस्कूल’ का चयन किया गया। विद्यालयीन शिक्षा के साथ-साथ देश की तत्कालीन परिस्थिति का प्रभाव ऊषाताई के मन-विचारों पर छाने लगा। हम सभी जानते हैं कि उन दिनों देश स्वतंत्रता का संग्राम लड़ रहा था। देशभक्त, मातृभूमि पर मर मिटने वाले वीर बलिदानियों की जीवन-घटनाएं उनके भावुक मन को छू लेती थीं। इस राष्ट्र यज्ञ में मेरी भी सहभागिता कैसे हो सकती है, यह प्रश्न उनके मन को व्यथित करता रहता। तभी उन्हें एक राह मिली। ‘समिति की शाखा’। वे उस शाखा में जाने लगीं। देशभक्ति के गीत, देश का अतीत एवं शाखाओं पर सुनाएं जाने वाले प्रेरक प्रसंगों ने उनके मन-व्यक्तित्व का गठन प्रारंभ कर दिया।
1948 में उनका विवाह श्री गुणवंत चाटी उपाख्य बाबा साहब के साथ संपन्न हुआ। कुछ समय पश्चात् परिवार नागपुर स्थानांतरित हो गया। अब तो ऊषा ताई समिति कार्य में सक्रिय हो चलीं। बाबा साहब संघ के समर्पित, निष्ठावान कार्यकर्ता थे। संघ कार्य उनके जीवन का प्राण था। संघ कार्य को अधिक समय देने के कारण परिवार का दायित्व बड़ी बहू ऊषा ताई पर रहता था। परिवार में तीन देवर, एक ननद, सास-ससुर सभी साथ रहते थे। बाबा साहब चाटी संघ के विविध दायित्वों का निर्वहन करते हुए वर्षों तक संघ के अखिल भारतीय घोष प्रमुख रहे। उन्होंने घोष प्रमुख के नाते घोष में अनेक नए-नए प्रयोग किए। परिवार में अनेक संघ कार्यकर्ता बंधुओं का आना-जाना रहता। ऊषा ताई स्नेह से उनका आतिथ्य करतीं। उनके व्यवहार एवं प्रेरक शब्दों की छाप स्वयंसेवकों के मन पर सदैव बनी रहती। संघ पर लगे प्रथम प्रतिबंध (1948) के समय बाबा साहब संघ द्वारा आयोजित सत्याग्रह में भाग लेकर जेल में महीनों तक बंद रहे। ऊषा ताई जी ने छोटी आयु होने पर भी परिवार के सम्पूर्ण दायित्व प्रेमपूर्वक निर्वहन किए। जेल में स्वयंसेवकों से मिलना, उनके परिवारों की देख-रेख-सहायता करना, यह उनका नित्य कार्य था। सभी उनकी वात्सल्यमयी वार्ता से अभिभूत हो संघर्ष काल में दृढ़ता-सजगता से खड़े रहे। इस कालखंड में ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ता की ध्येयनिष्ठ सहधार्मिणी का स्वरूप दर्शन सभी को हुआ। गृहस्वामिनी के नाते उन्होंने परिवार के सभी सदस्यों के मित्र परिवारों का मन भी अपने स्नेहमय व्यवहार से जीत लिया था। उन्हें घर में बड़ी चाची का सम्मान प्राप्त था। परिवार के निर्णयों में उनकी भूमिका रहती थी। समिति कार्यालय पर रहने के उपरान्त भी उनके भाई, भतीजे, पोते-पोती ससुराल एवं मायके पक्ष के लोग परामर्श लेने आते रहते थे। सभी का कहना था कि ऊषा ताई हम सबके हृदय में बसती हैं।
योग्यतम शिक्षिका
वंदनीया ऊषा ताई जी ने अपनी शिक्षा पूर्ण करने के उपरान्त शिक्षण कार्य प्रारंभ किया। प्रथमत: भंडारा के जकातदार कन्या विद्यालय में शिक्षिका बनीं। नागपुर आने पर ‘हिन्दू मुलींची शाखा’ में आपने शिक्षण कार्य प्रारंभ किया। मधुर व्यवहार के कारण बहुत थोड़े समय में ही आप छात्राओं की प्रिय शिक्षिका बन गईं। आपके विषय मराठी साहित्य और भूगोल थे। भाषा एवं भूगोल के द्वारा आपने अपनी मौलिक कक्षा-कक्ष शिक्षण विधियों के द्वारा छात्राओं में देश प्रेम, उत्तम संस्कार, नैतिकता के गुणों को पिरोने का काम किया। विविध सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से छात्राओं द्वारा हुई देशपरक अभिव्यक्ति आपके मन में शिक्षा की पूर्णता का आभास कराती थी। विद्यालयी ओर से नागपुर में प्रस्थापित ‘वाग्मिता विकास समिति’ द्वारा आपने छात्राओं के विकास में नित-नवीन दिशाएं खोजीं और अनेक आयाम गढ़े। इस संस्था की आप 30 वर्ष तक ‘अध्यक्ष’ रहीं। आत्मीयता और मिलनसारिता के कारण हमने देखा है कि उनकी सहयोगी शिक्षिकाएं एवं छात्राएं अभी तक उनसे भेंट करने आती रहती थीं। छात्राओं से तो यही सुना-‘आत्म दीपो भव’ बनकर ऊषा ताई हमारे हृदय में ज्वलित दीप बनकर प्रज्ज्वलित हैं। इससे प्रतीत होता है कि गुरु एक दीप के समान होता है। संघ के शिक्षा प्रकल्प ‘बालिका शिक्षा’ के सेमिनारों, संगोष्ठियों में भी आप समय-समय पर मार्गदर्शन करती रहीं। वे सर्वदा छात्राओं के समग्र विकास, परिवार की केन्द्र बिन्दु बालिका, छात्राओं की आत्मनिर्भरता, छात्राओं में मातृभाषा एवं राष्ट्रप्रेम के विषयों का मार्गदर्शन करके ‘राष्ट्र निर्माण’ में अपने सहयोग का अवदान करती थीं।
1975 का आपातकाल
1975 का आपातकाल राष्ट्रजीवन का एक अविस्मरणीय दु:खद कालखंड है, जब संपूर्ण देश ही कारागार बन गया था। संघ के अधिकांश कार्यकर्ता या तो जेल में थे या भूमिगत रहकर संघ कार्य कर रहे थे। बाबा चाटी जी की भी इसमें अग्रणी भूमिका थी। उनकी अर्द्धांगिनी ऊषा ताई ने उनका सहकार्य करने का निर्णय किया और सत्याग्रह करके जेल में बंदी बन गईं। वहां रहने वाली महिलाओं को धीरज बंधाना, प्रेमपूर्वक व्यवहार से परिस्थिति से उभरने की प्रेरणा देना, कष्ट सहने की मानसिक तैयारी करने का काम उन्होंने विवेकपूर्ण कुशलता के साथ किया। वे विश्वास के साथ कहती थीं कि राष्ट्र जीवन पर से अंधेरी रात का साया शीघ्र हटेगा… हम सूर्य के प्रकाश के वाहक अवश्य ही बनेंगे। हमारा हिन्दुत्व चिन्तन शाश्वत्, चिरंतन है। इस पर दृढ़ता से विजीगीषु भाव लेकर हमें दृढ़ बने रहने की आवश्यकता है। हम सभी निर्भय बनें…. ईश्वर विश्वासी बनें।
1982 में बाबा चाटी जी का हृदयाघात से कुछ ही क्षणों में निधन हो गया। सम्पूर्ण परिवार इस वज्राघात से विचलित था। शोक में निमग्न परिवार एवं स्वयं के मन को संभालने का दायित्व शांतमना ताई जी कर सकतीं थीं। मैं जब उनसे मिलने गई तो बोलीं-‘तुम्हारे भाईसाहब, देखो कहां हैं?’ मैंने कहा, ‘वे इस घर के कोने-कोने में हैं। आपके भावों, विचारों में, आपके ध्येय में हैं।’ वे मुस्कुरा दीं, बोलीं-अपने भाई की ही बहन हो। ऊषा ताई एवं बाबा चाटी मुझे बेटी की तरह ही मानते थे। मैं प्राय: घर पर भोजन हेतु जाती तो वे कहतीं, मेरी बेटी आई है।
संगठन के पथ पर
ऊषा ताई जी भंडारा में ही समिति कार्य से जुड़ गई थीं। वहां की नानी कोलते का जो उन्हें प्रथम बार शाखा में ले गई थीं, व्यक्तित्व एवं समर्पण भाव ऊषा ताई जी का आदर्श बना। नागपुर आने पर संगठन कार्य की नियमितता, सक्रियता बढ़ने लगी। नागपुर नगर कार्यवाहिका, विदर्भ प्रांत कार्यवाहिका का दायित्व निभाते हुए आप 1970 में अखिल भारतीय गीत प्रमुख बनकर केन्द्रीय टोली का अंग बनीं। संगठन के कार्य में, चिंतन-मनन में वंदनीया मौसी जी के साथ आपका निरंतर सहवास, सहकार्य रहता। संगठन कार्य एवं पारिवारिक दायित्व मानो परस्पर पूरक बन गए थे। आपातकाल के उपरान्त जब राष्ट्र सेविका समिति की ‘केन्द्रीय बैठक’ हुई तो उसमें समिति कार्य के विस्तार की योजना बनी। एक-एक केन्द्रीय अधिकारी एवं सदस्य को एक-एक प्रांत का पालक अधिकारी बनाया गया। ऊषा ताई जी उत्तर प्रदेश की पालक अधिकारी बनीं।
चिंतनशील व्यक्तित्व की धनी, ध्येयनिष्ठ, चौबीसों घंटे समिति का चिंतन करने वाली, अहंकार शून्य, कुशल व्यवहारी, दृढ़ आत्मविश्वासी ऊषाताई जी ने अप्रैल 1977 में उत्तर प्रदेश का प्रथम प्रवास आगरा से प्रारंभ किया। यह प्रथम प्रवास संघ द्वारा नियोजित था। आगरा में वर्ग लगा। ऊषा ताई जी पूरे समय रहीं। मैं भी इस वर्ग में गई थी। सौम्य व्यक्तित्व और मन को मोहने वाली मधुर वाणी के साथ प्रथम परिचय हुआ। उन्होंने गीत सिखाया—
भारतवर्ष हमारा प्यारा अखिल विश्व से न्यारा
सब साधन से रहे सम्मुनत भगवन् देश हमारा
इस गीत ने उस वर्ग में आने वाली समस्त सेविकाओं की भावभूमि तैयार की जिन्होंने अपने-अपने स्थान पर कार्य का श्रीगणेश किया। उनके निरंतर होने वाले प्रवास और उत्तर प्रदेश में कार्य का दृढ़ीकरण उनके प्रेरणामय स्नेहिल व्यक्तित्व का ही प्रतिसाद है। उनके कुशल नेतृत्व, मातृभाव परिपूर्ण संगठन कुशलता को देखकर द्वितीय संचालिका वं. सरस्वती ताई आप्टे जी ने अपनी बढ़ती आयु देखकर1984 में आपको अपनी सह प्रमुख संचालिका का दायित्व सौंपा। अब तो प्रवास का क्षेत्र सम्पूर्ण भारत था। चुनौतीपूर्ण क्षेत्रों, समस्याग्रस्त क्षेत्रों में आपका जाना हुआ। आपके ही कार्यकाल में जनजाति, राष्ट्रीय समस्याग्रस्त बालिकाओं के छात्रावास प्रारंभ हुए। संगठन की एक सूत्रता का निरन्तर विचार करते हुए कार्यकर्ता प्रशिक्षण की विधियों, विषयों के प्रस्तुतीकरण की चर्चा, सामाजिक समस्याओं के समाधान को एक विशेष दिशा मिली। 9 मार्च, 1994 को वं. ताई जी के निधन के उपरांत प्रमुख संचालिका का गुरुतर दायित्व आपके कंधों पर आया, जिसे 2008 तक आपने पूर्ण निष्ठा के साथ निभाया। सामूहिक निर्णय,अपने सहयोगियों पर अटूट विश्वास, नयी बहनों को बड़े-बड़े दायित्व सौंपना, दायित्व निभाने का धर्म समझना, सामान्य से सामान्य सेविका की खुले दिन से प्रशंसा करना, दायित्व के अनुसार स्वयं के व्यक्तित्व को श्रेष्ठ से श्रेष्ठ बनाना उनकी विशेषता थी।
एक अखिल भारतीय संगठन की प्रमुख होने का अहं भाव उनमें बिल्कुल भी नहीं था। वे सेविकाओं के आग्रह पर अपने गीत सुनाने को तुरन्त तत्पर हो जाती थीं।
राष्ट्रहित कला का समर्पण
ऊषा ताई भावनाओं का गहरा सागर थीं, जिसमें संवेग, संवेदनाओं, विचारों, स्वरों, रागों के अलापों की उत्ताल तरंगें तरंगायित होती थीं। गीत प्रमुख के नाते सरिताओं के गीत लिखने की प्रेरणा देना, गीत खोजना, स्वर लगाना, अभ्यास कराना अभिरुचि का विषय था। उनके स्वर में गाया यह गीत उनकी अन्त:शक्ति का आभास कराता था।
नारी हूं मैं और जगत की मैं हूं आद्या शक्ति
चेतना में जीवात्मा की, नटेश्वर की हूं शक्ति।
उनके अन्त:करण में व्याप्त यह भक्ति की शक्ति उनके हृदय की आध्यात्मिक चेतना और समाज से अलग एकात्मता को व्यक्त करती थी। वे आकाशवाणी की कलाकार बनीं परन्तु समिति दायित्व के निर्वहन में समयाभाव न रहे, इसलिए उन्होंने आकाशवाणी में गायन बंद किया और राष्टÑहित में इस कला का समर्पण कर दिया। आपके गाए अनेक गीत देश की लक्ष-लक्ष सेविकाओं के कानों में आज
भी गूंज रहे होंगे। परन्तु उनकी स्वान्त:सुखाय साधना सभी की प्रेरणास्रोत थी।
श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन में सहभाग
प्रमुख संचालिका का दायित्व निभाते हुए रामजन्मभूमि आंदोलन के साथ उनका जुड़ाव हुआ। देशभर की महिलाओं को इस कार्य से जोड़ने के लिए उनका प्रवास चलने लगा। सेविकाओं के सहभाग के समाचार से आनन्द की अनुभूति होती। अक्तूबर 1990 में श्री अशोक सिंहल एवं अन्य गणमान्यों के साथ आपने सत्याग्रह का नेतृत्व लखनऊ में किया। चारों तरफ कारसेवकों का जमावड़ा था। मैं उनके साथ लखनऊ के यादव परिवार में थी। पता चला, अयोध्या में मुलायम सिंह ने गोली चलवा दी है। दूरदर्शन पर समाचार देखकर, मरते कारसेवकों की लाशें देखकर मन वेदना से भर गया। दोनों की आंखों में अश्रु थे। ऊषा ताई जी बोलीं-शरद, हम क्या कर सकते हैं? हम दोनों यह सोचते-सोचते सो गए। दूसरे दिन लखनऊ की बहन डॉ. शांति देवबाला जी को मैंने फोन करके कहा, ‘हम इस घटना के विरोध में मौन जुलूस निकालना चाहते हैं।’ उन्होंने दूसरे दिन अखबार में राष्ट्र सेविका समिति और अपनी संस्था के नाम से भर्त्सना का समाचार भेजा तथा अगले दिन मौन जुलूस हेतु मातृ शक्ति का आह्वान किया। हम तीनों लखनऊ के बेगम हजरत महल पार्क में पहुंचे, वहां से गांधी पार्क जाना था। देखते ही देखते अनेक कन्या विद्यालय, अनेक महिला संस्थाएं वहां उपस्थित हो गईं। यह जुलूस जैसे-जैसे गांधी चौक तक पहुंचा, भीड़ लगभग पांच हजार की थी। पत्रकारों को पता चला तो वे भी दौड़े। गांधी मूर्ति चौराहे पर सभा हुई। वं. ऊषा ताई जी का मार्मिक उद्बोधन था। शान्तिबाला जी ने भी सरकार की भर्त्सना की। दूसरे दिन अखबारों में इतने बड़े शोक जुलूस की चर्चा थी। परन्तु ऊषा ताई जी इतने से संतुष्ट नहीं थीं। उन्हें अयोध्या जाना था। हम सम्पर्क साधकर वहां गए। वहां का दृश्य देखकर ऊषाताई जी मौन संकल्पित दिखाई दीं। लौटकर आंदोलन में सहभागी होने की सभी को प्रेरणा दी। उसी वर्ष नवम्बर, दिसम्बर में पुन: अयोध्या में मातृशक्ति का सत्याग्रह हुआ, जिसमें राजमाता विजयाराजे सिंधिया, साध्वी ऋतम्भरा जी, साध्वी उमा भारती और ऊषा ताई जी का नेतृत्व था। 1991 में वे विश्व हिन्दू परिषद कार्यकारिणी की सदस्य बनीं। रामकथा में उनके प्राण बसते थे। वे समर्थगुरु रामदास से अनुप्राणित थीं। रामचरितमानस का नियमित पाठ करती थीं। प्रतिवर्ष नागपुर के चन्दन नगर में राम कथा हेतु जाती थीं।
उनके व्यक्तित्व के अनेक अध्याय हैं। सभी का विवेचन करना बहुत कठिन है। राष्ट्रीय विपत्ति के संघर्ष काल में संगठन को नेतृत्व देकर एक-एक कार्यकर्ता, भगिनी को जोड़कर रखने वाली मातृवत्, स्नेहमयी, स्निग्ध प्रवृत्ति की धनी ऊषा ताई जी स्नेह रस की सागर थीं, जिसमें उन्होंने अपने चहुंओर विराजित समाज को डुबो दिया। उनके चरणों में कोटिश: प्रणाम। आज पुन: ये शब्द गूंज रहे हैं…जैसे वे कह रही हैं-
अन्तर्बाह्य निर्भय होकर, चतुर्दिक से निर्लिप्त होकर
स्वयं के रास्ते बनाओ…क्योंकि सेविका हो तुम…इस राष्ट्र की।
कमल पत्रों पर क्या जल बिन्दु ठहरते हैं,
वायु क्या किसी के जाल में फंसती है….
अत: निश्चिंत, मुक्त भ्रमण करो सिंहनी सम
क्योंकि तुम शक्ति हो.. इस राष्ट्र की।
(लेखिका राष्टÑ सेविका समिति की अ.भा. बौद्धिक प्रमुख हैं)
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