पितरों की तृप्ति की अनूठी परंपरा
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पितरों की तृप्ति की अनूठी परंपरा

by
Aug 28, 2017, 12:00 am IST
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दिंनाक: 28 Aug 2017 13:09:34

 

आगामी 5 से 20 सितंबर तक पितृपक्ष है। पौराणिक मान्यता है कि सभी प्रकार के ऋण से उऋण होने के बाद ही जीव को मोक्ष प्राप्ति होती है। पितृपक्ष पितरों के ऋण से मुक्त होने का अवसर है। हर सनातनी को अपने पूर्वजों का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए श्राद्ध-तर्पण करना चाहिए

  पूनम नेगी
सनातन हिन्दू संस्कृति में ‘मृत्यु’ को जीवन का अन्त नहीं, वरन एक पड़ाव माना गया है। जिस प्रकार मैले, पुराने या जर्जर हो जाने पर मनुष्य नए वस्त्र धारण कर लेता है, उसी तरह देह के जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर जीवात्मा उसे त्याग कर नया शरीर धारण कर लेती है। इसी मान्यता के आधार पर वैदिक ऋषियों ने पितृ पूजन की परम्परा का बीजारोपण किया था और इसके लिए महज एक-दो दिन नहीं, वरन् पूरे एक पखवाड़े की अवधि निर्धारित की थी। भारतीय दर्शन में देह-त्याग के बाद भी जीवात्मा के विकास एवं परस्पर भावपूर्ण आदान-प्रदान की आत्मा के शाश्वत अस्तित्व की बात स्वीकार किया गया है। मरणोत्तर श्राद्ध-तर्पण की क्रियाएं इसी का प्रखर प्रमाण हैं।
नहीं मिलती ऐसी मिसाल
श्राद्ध तर्पण की यह परम्परा वैदिक संस्कृति की सबसे अनूठी परम्परा है; जिसकी मिसाल अन्य किसी देश-संस्कृति में नहीं मिलती। हमारे मनीषियों ने भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर अश्विन माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तक की विशिष्ट अवधि में पितरों के प्रति श्रद्धा अर्पित करने के लिए दान-पूजन को निर्धारित किया  ै। सनातन हिन्दू धर्म चार पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की अवधारणा पर टिका है; जिसके मुताबिक मनुष्य इस धरती पर जन्म लेते ही देव ऋण, ऋषि ऋण व पितृ ऋण में बंध जाता है। हिन्दू संस्कृति की मान्यता के मुताबिक माता-पिता की सेवा और पूर्वजों की मृत्यु तिथि पर पिण्ड दान, तर्पण व ब्राह्मण भोज से मनुष्य को पितृऋण से मुक्ति मिलती है। कहा गया है कि श्रद्धापूर्वक किया गया कर्म
ही श्राद्ध है। पितृऋण से मुक्ति चाहने वाले हर सनातनी को इन दिनों में अपने
पूर्वजों को प्रसन्न करने के लिए यथा
सामर्थ्य श्राद्ध तर्पण करना चाहिए। इस
वर्ष पितृ पक्ष 5 सितंबर से 20 सितंबर
तक रहेगा।

 आत्मा का अस्तित्व
तथाकथित आधुनिक सोच रखने वाले लोग भले ही इस परम्परा पर यकीन न करें और तर्क करें कि जो मर चुके हैं, उनके नाम पर यह आडम्बर क्यों? मगर हमारे ऋषि अत्यन्त उच्च कोटि के वैज्ञानिक थे। उन्होंने इस तथ्य को प्रतिपादित किया था कि इस विश्व-ब्रह्मांड में कई तत्व ऐसे हैं जो हमें अपनी स्थूल आंखों से दिखाई नहीं देते, फिर भी उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। इस बात को अब विज्ञान भी स्वीकार करने लगा है। पितृ पूजन की भारतीय परम्परा के पीछे भी यही सिद्धांत निहित है।
ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि मृत्यु के उपरान्त भी हमारे पूर्वजों की जीवात्माओं का अस्तित्व सूक्ष्म रूप में कायम रहता है और पितृपक्ष के दौरान ये जीवात्माएं मृत्यु लोक में आती हैं और अपने पुत्र-पौत्र व अन्य परिवारी जनों द्वारा किये गये पिण्ड-तर्पण से तृप्त होकर उन्हें आशीर्वाद देकर अपने लोक को वापस लौट जाती हैं।
पितृ ऋण से मुक्ति
वैदिक वाड्मय के अनुसार प्रत्येक सनातनधर्मी  को धरती पर जीवन लेने के बाद तीन ऋण उतारने होते हैं- देव, ऋषि व पितृ ऋण। इन ऋणों की महत्ता को प्रमाणित करने वाला एक रोचक प्रसंग महाभारत में मिलता है। कथानक है कि मृत्यु के उपरांत यमराज ने ऋण बाकी रहने की बात कहकर कर्ण को मोक्ष देने से इनकार कर दिया। इस पर कर्ण ने कहा- देव! मैंने तो अपनी सारी संपदा सदैव दान-पुण्य में ही अर्पित की, फिर मेरे ऊपर कौन-सा ऋण बचा है? इस पर यमराज बोले- राजन, आपने देव व ऋषि ऋण तो चुका दिया लेकिन आप पर पितृ ऋण अभी बाकी है। धर्मराज ने कर्ण से कहा कि आप 16 दिन के लिए पुन: पृथ्वी पर जाइए और अपने ज्ञात और अज्ञात पितरों का श्राद्ध-तर्पण तथा विधिवत पिंडदान करके पितृ ऋण से मुक्त होइए, तभी आपको मोक्ष की प्राप्ति होगी।
अनुदान बरसाते हैं पितर
सनातन धर्म में पितृपक्ष को दिवंगत पितरों के प्रति श्रद्धा व कृतज्ञता ज्ञापित करने का विशिष्ट अवसर माना गया है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धापूर्ण व्यवहार व तर्पण का अर्थ है तृप्त करना। इस प्रकार श्राद्ध-तर्पण का अभिप्राय दिवंगत अथवा जीवित पितरों को तृप्त करने की श्रद्धापूर्ण प्रक्रिया है। इसमें यह भाव-प्रेरणा भी निहित रहती है कि हम भी पितरों, महापुरुषों एवं महान पूर्वजों के आदर्शों, निदेर्शों एवं श्रेष्ठ मार्ग का अनुसरण कर वैसे ही उत्कृष्ट आचरण करने वाले बनने का प्रयास करें। भारतीय दर्शन के अनुसार मृत्यु के उपरांत जीवात्मा पितृलोक में पहुंचती है। इन मृतात्माओं को अपने नियत स्थान तक पहुंचने की शक्ति प्रदान करने के निमित्त पिंडदान और श्राद्ध की व्यवस्था की
गई है।  
शास्त्रों में उल्लेख है कि जो व्यक्ति आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन नियमपूर्वक पितरों का तर्पण करता है और श्रेष्ठ कार्यों के लिए यथाशक्ति दान देता है, वह पितरों का आशीर्वाद प्राप्त करता है। महर्षि सुमंतु के अनुसार बुद्धिमान मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध करना चाहिए, क्योंकि पितरों को संतुष्ट करने का इससे बढ़कर कल्याणप्रद मार्ग दूसरा नहीं है। मार्कण्डेय, विष्णु व गरुड़ पुराण में विस्तार से श्राद्ध कर्म की महिमा का बखान किया गया है। इन पुराण ग्रन्थों के ऋषियों के अनुसार पितृ पूजन से संतुष्ट होकर पितर अपने धरतीवासी परिजनों को आयु, सुसंतति, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, वैभव, सुख व धन-धान्य का वरदान देते हैं और तृप्त होकर श्राद्धकर्ता को भौतिक सम्पदा के साथ दीर्घायु और मोक्ष प्रदान करते हैं।
‘हेमाद्रि नागरखंड’ में श्राद्ध तर्पण की महिमा का बखान करते हुए कहा गया है कि जो मनुष्य एक दिन भी श्राद्ध करता है, उसके पितृगण वर्ष भर के लिए संतुष्ट हो जाते हैं। महाभारत में ऋषि जाबाल ने कहा है कि जो लोग आश्विन मास के पितृपक्ष में अपने मृत पितरों का श्राद्ध नहीं करते, वे अभागे होते हैं, यानी उन्हें उनके कर्मों का उचित फल नहीं मिलता। अत: प्रत्येक भावनाशील मनुष्य को अपने पितरों की संतुष्टि एवं स्वयं के कल्याण के लिए श्राद्ध तर्पण जरूर करना चाहिए।
सीता जी ने किया था पिण्डदान
हमारे शास्त्रों में आमतौर पर पुत्र व पौत्र-प्रपौत्र द्वारा श्राद्ध तर्पण का विधान बनाया गया है; मगर वाल्मीकि रामायण में सीता द्वारा अपने श्वसुर राजा दशरथ के पिण्डदान का उल्लेख मिलता है। वनवास के दौरान भगवान राम, लक्ष्मण और सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए गया धाम पहुंचे। वहां श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु राम और लक्ष्मण नगर की ओर चल दिए। उधर दोपहर हो गई, पिंडदान का समय निकलता जा रहा था और सीता जी की व्यग्रता बढ़ती जा रही थी।
अपराह्न काल में राजा दशरथ की आत्मा पिंडदान की मांग कर बैठी तो कोई अन्य उपाय न देखकर सीता जी ने गया तीर्थ में फल्गू नदी के तट पर वट वृक्ष, केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त पिंडदान दे दिया। थोड़ी देर में श्रीराम और लक्ष्मण लौटे तो उन्होंने कहा कि समय बीतने के कारण मैंने स्वयं पिंडदान कर दिया। बिना सामग्री के पिंडदान कैसे हो सकता है? इसके लिए श्रीराम ने सीता से प्रमाण मांगा। तब सीताजी ने कहा कि इस फल्गू नदी की रेत, केतकी के फूल, गाय और वट वृक्ष मेरे द्वारा किये गये श्राद्धकर्म की गवाही दे सकते हैं। पर वट वृक्ष को छोड़कर बाकी तीनों गवाही से मुकर गए। तब सीता जी ने राजा दशरथ का ध्यान कर उनसे गवाही देने की प्रार्थना की और उन्होंने ऐसा किया। तब श्रीराम आश्वस्त हुए और उन्होंने सीता का आभार जताया। मगर तीनों गवाहों द्वारा मुकरने से नाराज होकर सीताजी ने उन्हें क्रोधित होकर श्राप दिया कि फल्गू नदी सिर्फ नाम की नदी रहेगी, उसमें पानी नहीं रहेगा। इस कारण फल्गू नदी आज भी गया में सूखी रहती है। गाय को श्राप दिया कि तू पूज्य होकर भी लोगों का जूठा खाएगी और केतकी के फूल कभी पूजा में नहीं चढ़ाये जाएंगे। वहीं वट वृक्ष को सीता माता का आशीर्वाद मिला कि उसे लंबी आयु प्राप्त होगी और वह दूसरों को छाया प्रदान करेगा तथा पतिव्रता स्त्रियां तेरा स्मरण कर अपने पति की दीर्घायु की
कामना करेंगी।      ल्ल
शाहजहां ने भी की थी तर्पण की तारीफ
मुगल बादशाह  शाहजहां को उनके बेटे औरंगजेब ने जेल में बंद कर रखा था। उन दिनों शाहजहां ने अपने पुत्र के नाम एक पत्र लिखा था, जिसमें वे कहते हैं, ‘हे पुत्र! तू भी विचित्र मुसलमान है, जो अपने जीवित पिता को जल के लिए भी तरसा रहा है। शत-शत बार प्रशंसनीय हैं वे हिन्दू जो अपने मृत पिता को भी जल देते हैं।’ इसी तरह श्राद्ध-तर्पण के विषय में एक अंग्रेज विद्वान द्वारा लिखित पुस्तक ‘आर्यों की महानता’ में उल्लेख है- ‘हिन्दुओं में प्रचलित श्राद्ध प्रथा अति पवित्र और शुभ है। अपने पूर्वजों के प्रति अगाध श्रद्धा और स्मरण भाव से युक्त यह प्रथा प्रशंसनीय ही नहीं वरन् प्रोत्साहन योग्य है। मेरा मत है कि इस प्रकार की प्रथा प्रत्येक मजहब में होनी चाहिए।’  

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