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हामिद अंसारी के मनोविज्ञान को समझने से पहले कृपया आपको पाकिस्तान के 'मूल निवासियों' से नफरत करना बंद करना होगा। पाकिस्तान के मूलनिवासी मतलब सिंधी, बलूची, पश्तून, पठान, पंजाबी, क्योंकि इतिहास गवाह है इनमें से किसी ने भी पाकिस्तान नहीं मांगा था… तो फिर पाकिस्तान मांगा किसने था? पाकिस्तान मांगा था अलीगढ़, भोपाल, लखनऊ, हैदराबाद, अहमदाबाद, अहमदनगर, मेरठ, मेवात के मुसलमानों ने। 40 के दशक में जिन्ना को तन-मन-धन से इन्होंने सहारा दिया। लेकिन जब बंटवारा हो गया तो पाकिस्तान के मूल निवासी सिंधी, बलूची, पश्तून, पठान, पंजाबी मुसलमान हैरान-परेशान हो गए। वे सोचने लगे ये कौन लोग यहां आ गए? जनाब, अर्ज किया है, फरमाया है… जैसे अल्फाजों का इस्तेमाल करने वाले ये लोग हैं कौन? ये तो हमारी भाषा भी नहीं हैं… हम तो सिंधी, पंजाबी, बलूच, पश्तो बोलते हैं और ये लोग तो बात-बात पर शेर सुनाते हैं। पाकिस्तान के 'मूल निवासियों' को महसूस होने लगा कि अचकन और शेरवानी पहनने वाले अलीगढ़, मेरठ, भोपाल, लखनऊ, हैदराबाद, अहमदाबाद, अहमदनगर से आए ये लोग हमारे अपने कैसे हो सकते हैं? पाकिस्तान बनने के 2-4 साल के अंदर ही उसके 'मूलनिवासी मुसलमानों' ने इन जहीन उर्दू बोलने और शेर पढ़ने वालों को उनकी औकात दिखा दी। तेजी से यह खबर उन रसूखदार मुसलमानों तक पहुंचने लगी जो अब तक हिंदुस्तान में ही रह गए थे। ये 'अलीगढ़ी सोच' के वो लोग थे जिन्होंने जिन्ना और पाकिस्तान के ख्वाब के लिए सब कुछ किया था। लेकिन 1947 की अफरा-तफरी में ये पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे, ये सही वक्त के इंतजार में थे। उन्हें यहां अपनी संपत्ति, कई पेंडिंग काम निपटाने थे। इतिहास गवाह है… उस दौर के प्रॉपर्टी ब्रोकर टाइप लोग पाकिस्तान के हिंदू और भारत के मुसलमानों की संपत्ति की कीमत कौडि़यों में लगा रहे थे।
लेकिन जब पाकिस्तान के कराची से आया एक शब्द 'मुहाजिर' इनके कान में पड़ा तो इन 'अलीगढ़ी सोच' वालों की नींद उड़ गई। इनका पाकिस्तान का ख्वाब चकनाचूर हो गया और इन्होंने मजबूरी में दिल पर पत्थर रख कर पाकिस्तान जाने से तौबा कर ली। कभी 14 अगस्त, 1947 के दिन इन 'अलीगढ़ी सोच' वालों ने ख्वाब देखा था कि सर रेड क्लिफ मुगलिया सल्तनत के नक्शे के हिसाब से बंटवारा करेंगे जिसमें उत्तर उनका होगा और दक्खिन हिंदुओं का। लेकिन जब 17 अगस्त, 1947 को रेड क्लिफ लाइन का एलान हुआ तो उसमें पाकिस्तान बित्ते भर में सिमट गया। उफ्फ… मुगलिया दौर की सारी निशानियां, सारी सोच तो यहीं रह गई और शायद इन्हीं में से एक यहां रह गए डॉ. हामिद अंसारी जैसे कुछ लोग…।
(प्रेरणा मल्होत्रा की फेसबुक वॉल से)
कट्टर, दकियानूसी कांगे्रसी मुस्लिम मानसिकता
उपराष्ट्रपति के पद से सेवानिवृत्ति के बाद जाते-जाते हामिद अंसारी ने अपनी कट्टर, दकियानूसी कांग्रेसी मुस्लिम मानसिकता का जो परिचय दिया है वह पूरे देश में विरोध, उपहास और आक्रोश का कारण बन रही है। लेकिन राज्यसभा में हामिद अंसारी की विदाई वेला पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरा शिष्टाचार निभाते हुए, मर्यादित भाषा में, सार्वजनिक रूप से जो कहा, वह अतुलनीय है। मोदी के इस 4:30 मिनट के संबोधन को सुनें, तो समझ में आ जाता है कि गागर में सागर कैसे भरा जाता है। इस पूरे संबोधन में अंसारी के खानदान की 100 वर्ष की गाथा भी बता दी गई है। उनके नाना और दादा की कांग्रेस के साथ जीवन यात्रा और उनका 'खिलाफत आंदोलन' में योगदान भी याद दिलाया है। उनके राजनयिक होने की याद दिलाते हुए यह भी बता दिया कि उनकी हंसी और हाथ मिलाने के अंदाज के पीछे के मन्तव्य को पहले से ही समझे हुए थे। यहां मोदी ने उन्हें यह भी याद दिलाया कि सरकारी राजनयिक के तौर पर उनके जीवन का ज्यादा समय मध्य-पूर्व के देशों में कटा है और वहां से निकल कर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी तथा जामिया मिल्लिया इस्लामिया में गुजरा है, जहां उनकी संगत खास तरह के वातावरण में रही है। मोदी के इस छोटे संबोधन का सारांश यही है कि 'अंसारी जी आप कभी भारतीय नहीं रहे। कट्टर मुस्लिम थे, हैं और रहेंगे, यह मालूम है। उनकी विदाई पर राज्यसभा में प्रधानमंत्री ने कहा, ''आपके कार्यकाल का अधिक हिस्सा पश्चिम एशिया से जुड़ा रहा है। उसी दायरे में आपकी जिंदगी के बहुत सारे साल गए। उसी माहौल में, उसी सोच में, उसी चर्चा में ऐसे लोगों के बीच में रहे। वहां से सेवानिवृत्त होने के बाद ज्यादातर काम भी वही रहा, अल्पसंख्यक आयोग हो या अलीगढ़ यूनिवर्सिटी… एक दायरा तो वही रहा। लेकिन 10 साल पूरी तरह से अलग जिम्मेदारी के तौर पर आया। इसे संविधान और इसके दायरे में बखूबी निबाहने का प्रयास किया। हो सकता है कि कुछ छटपटाहट रही आपके अंदर भी, लेकिन आज के बाद शायद यह संकट आपको नहीं रहेगा…!'' (पुष्कर अवस्थी की फेसबुक वॉल से)
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