मेरा साथी – शहीद राजगुरु

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दिंनाक: 21 Aug 2017 11:49:26

पाञ्चजन्य ने 1968 में क्रांतिकारियों पर केंद्रित विशेषांकों की शृंखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्य गाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्य गाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित कर रहा है। प्रस्तुत है 22 अप्रैल ,1968 के अंक में प्रकाशित शिववर्मा के आलेख की दूसरी कड़ी:-

इसलिए शर्म की वजह से दिल की बात नहीं कह पा रहा है, उन्होंने कहा—‘‘मुझसे कहने में हिचकते हैं? कोई बात नहीं? मैं जाकर लड़के को भेज देता हूं। आपका हम उम्र है। उससे खुलकर बातें कर लीजिएगा।’’ यह कह कर राजगुरु के जवाब का इंतजार किए बगैर बड़े मियां बाअदब सलाम देकर चले गए। पांच मिनट भी नहीं बीते थे कि बड़े-बड़े बालों वाले 22-23 साल के एक निहायत खूबसूरत नौजवान ने बेतकल्लुफी के साथ कमरे में प्रवेश किया और राजगुरु को संभलने का मौका दिए बगैर ‘‘आदाब अर्ज भाई जान’’ कहकर उसी बेतकल्लुफी से उसकी चारपाई पर बैठ गया।
‘‘आपके दोस्त चले गए क्या?’’ उसने पूछा।
‘‘नहीं, वे किसी काम से गए हैं। दस साढ़े दस तक लौटेंगे।’’
‘‘वह काम तो हमारे मार्फत भी हो सकता था। ठंड में बेकार इतनी जहमत मोल ली।’’
‘‘नहीं, वे एक खास काम से गए हैं।’’
‘‘उनकी कोई खास जगह होगी। वर्ना एक बार यहां आकर दूसरी जगह तो कोई जाता नहीं।’’ फिर बात को मोड़ देते हुए उसने पूछा- ‘‘आप नहीं गए उनके साथ?’’
‘‘मेरी तबियत ठीक नहीं है। सर में दर्द है।’’
‘‘तो आपके लिए यहीं इंतजाम किया जाए?’’
‘‘किस बात का?’’
‘‘सरदर्द ठीक करने का। मैं दो-तीन को बुलाये देता हूं। आप पसंद कर लें। जब तक चाहें खिदमत ले सकते हैं। आप दिन भर के थके मालूम पड़ते हैं। वैसे भी परदेस में तबियत खराब हो जाया करती है। हाथ-पैर दबा देगी,तबियत हल्की हो जाएगी। आराम से सोइएगा।’’
मूर्ख की समझ में इतनी देर बाद आया कि बूढ़ा और नौजवान दोनों दलाल हैं। वह इस तरह की बातों से घृणा करता था। इसलिए शर्माते हुए उसने इनकार कर दिया। लड़का शर्म को समर्थन समझ कर चला गया और थोड़ी ही देर बाद तीन लड़कियों के साथ वापस आया।
 और राजगुरु ऐसे भागे
लड़कियों को देखते ही अपना कंबल तथा झोला उठाकर राजगुरु ऐसा भागा, जैसे बिदक जाने पर रस्सी तुड़ा कर बैल भागता है। उसे भागता देख तीनों लड़कियां खिलखिला कर हंस पड़ीं। उसकी कहानी सुनकर मुझे हंसी आ गई। छेड़ने के लिए मैंने कहा—‘‘तो उसमें इतना घबराने और डर कर भागने की क्या बात थी? वे तुम्हें खा तो जाती नहीं?’’
‘‘नहीं भाई, वे तीन थीं। पता नहीं सब मिलकर मेरी क्या गत बनातीं। मेरे तो दिल की धड़कन रुकी जा रही थी।’’ उसने बड़ी मासूमियत से सफाई देते हुए कहा। फिर कुछ देर खामोश रह कर अचानक उठ कर बैठ गया और बोला- ‘‘तुम्हें मेरी खूबसूरती की धाक तो माननी पड़ेगी प्रभात। वर्ना एक साथ तीन-तीन लड़कियों का आशिक हो जाना कोई मामूली बात नहीं है।’’ यह कह कर वह स्वयं ही अपनी पीठ थपथपाने लगा। मैंने उसका हाथ पकड़ कर कंबल में खींच लिया।
‘‘कंबल ओढ़ कर पीठ थपथपाइए वर्ना सबेरे तक यह सारा हुस्न ठंडा पड़ जाएगा।’’ मैंने कहा। अपनी इस आखिरी सूझ पर वह स्वयं ही बड़ी देर तक लेटे-लेटे हंसता रहा। इसके बाद से हमलोग साथ-साथ मौके पर जाने लगे। कई दिनों की जांच-पड़ताल और देख-भाल के बाद हम दोनों इस नतीजे पर पहुंचे कि एक आदमी से यह काम ठीक तरह से संपन्न नहीं हो सकेगा और हमें एक और पिस्तौल या रिवॉल्वर की व्यवस्था करनी ही पड़ेगी। इस बीच, हम लोगों ने उस व्यक्ति का मकान भी देख लिया था। सारी योजना ठीक हो जाने के बाद राजगुरु को वहीं छोड़ मैं दूसरा पिस्तौल लाने लाहौर चला गया।
लाहौर से पिस्तौल लेकर तीसरे दिन जब वापस आया तो शाम के साढ़े सात बज चुके थे। राजगुरु इस समय मौके पर ही होगा यह सोचकर मैं सीधा उसी तरफ चल दिया। शहर पार ही किया था कि देखा अंधेरी रात में पुलिस की मोटरें और मोटरसाइकिलें बेतहाशा दौड़ रही हैं और आगे जाना खतरे से खाली न समझ मैंने सड़क छोड़ दी और पुराने किले का चक्कर काटकर शहर वापस चला आया। राजगुरु उस रात नहीं लौटा। प्रात: समाचारपत्रों में पढ़ा कि अमुक स्थान पर अमुक व्यक्ति को किसी ने गोली मार दी। घटना ठीक उसी स्थान पर हुई थी जहां हमें उस व्यक्ति से निपटना था, लेकिन गोली लगने वाले व्यक्ति का नाम कुछ और था। संभवत: मौका देखर कर राजगुरु ने भूल से गलत व्यक्ति पर गोली चला दी। समाचारपत्रों से यह भी पता चला कि गोली चलाने वाला व्यक्ति पकड़ा नहीं गया है। दिल्ली में और अधिक ठहरना उचित न समझ मैं आगरा होता हुआ कानपुर पहुंच गया। मेरे पहुंचने के दूसरे दिन राजगुरु भी सही सलामत आ गया।
पुलिस द्वारा पीछा
उससे घटना का जो वर्णन सुना वह बड़ा रोमांचकारी था। उसने बताया कि गोली चलाने के कुछ देर बाद ही पुलिस घटनास्थल पर पहुंच गई थी। उसके बाद उन्होंने चारों तरफ तलाशी शुरू की, जिसमें वह दो बार फंसते-फंसते बचा। गोली चलाने के बाद शहर की तरफ न जाकर उसने रेलवे लाइन के सहारे मथुरा की तरफ का रास्ता पकड़ लिया। यह सोच कर कि अब वह खतरे से बाहर है। वह इत्मीनान के साथ, लेकिन तेज रफ्तार से रेलवे लाइन के किनारे-किनारे जा रहा था। अचानक सर्चलाइट की तेज रोशनी उस पर पड़ी और उसके साथ ही कई तरफ से गोलियां चलने लगीं। वह जमीन पर लेट गया और पेट के बल रेंग कर एक नाली में जा छिपा। फिर वहां से उसी तरह सरक कर पास के खेतों में चला गया। जिस खेत में उसने पनाह ली थी उसमें कफी पानी-भरा था। कोई उपाय न देख वह उसी पानी में लेट गया।
सनसनाती गोलियां
ऊपर सर्चलाइट नाच रही थी और राजगुरु सांस रोके खेत में पड़ा था। कभी-कभी रायफल की गोली हवा को चीरती निकल जाती और फिर सन्नाटा छा जाता। थोड़ी देर बाद पुलिस के बूटों की आवाज और सिपाहियों की आपस की बातचीत उसे साफ सुनाई देने लगी। वे लोग आसपास के सूखे खेतों में उसकी तलाश कर रहे थे। इतनी ठंड में रात को कोई पानी में भी लेट सकता है, इसका उन्हें अनुमान न था। अस्तु, पास के सूखे खेतों में ही उसे तलाश कर वे लोग चले गए। रात काफी हो चुकी थी। चारों ओर सन्नाटा हो जाने पर राजगुरु जब खेत से निकलकर बाहर आया तो दूर किसी संतरी के घड़ियाल से पता चला कि सबेरे के तीन बजे हैं। उस समय उसके कपड़े कीचड़ तथा पानी से तर थे। उसका शरीर एकदम सुन्न हो रहा था। उसी हालत में उसने रेलवे लाइन के किनारे-किनारे चलकर दो स्टेशन पार किए। तीसरे पर उसे मथुरा की गाड़ी मिली। मथुरा पहुंचकर उसने जमुना में कपड़े धोए, उन्हें रेत पर सुखाया और स्वयं लंगोटा बांधकर धूप में पड़ा रहा।
इस सबके बाद भी कानुपर पहुंचने पर वह बेहद खुश था। उसे पक्का विश्वास था कि उसने ठीक तरह से पार्टी के आदेश को पूरा किया था। उसकी गोली से एक निर्दोष व्यक्ति की जान गई, यह जानकार उसे बड़ा दु:ख हुआ। उस समय तक उसे पूरा विश्वास था कि उसने सही व्यक्ति पर ही निशाना लिया था। वह जितना खुश था, अब अपनी गलती का समाचार पाकर उतना ही उदास हो गया। रात को हम लोग एक साथ लेटे। वह सरक कर बिल्कुल मेरे पास आ गया। फिर आहिस्ते से बोला- ‘‘प्रभात, अपनी जल्दबाजी के लिए मैं पार्टी के सामने अपराधी हूं।’’ मैंने उसे अपनी तरफ खींच लिया। इतनी मुसीबतों को बहादुरी के साथ झेलकर आने वाला राजगुरु बच्चे की तरह मेरे सीने से चिपक कर सिसकने लगा।
अपराध नहीं किया था
‘‘मैंने अपने आपको पार्टी के लिए अयोग्य साबित किया है।’’ उसने कहा। राजगुरु ने जल्दबाजी की थी, अपराध नहीं किया था। अंधेरी रात में किसी भी व्यक्ति से वह गलती संभव थी। फिर काकोरी के बाद की हमारी पीढ़ी में कार्यक्षेत्र में साहस का परिचय देने वाला वह पहला व्यक्ति था। दल ने राजगुरु के मूल्य को पहचाना और वह हमारे परिवार का अभिन्न अंग बन गया। पिता के स्नेह से राजगुरु बचपन में ही वंचित हो गया था। उसके बाद घर पर स्नेह और प्यार प्राय: नहीं के बराबर ही मिला। पन्द्रह साल की अवस्था में उसने घर छोड़ा। संस्कृत विद्यार्थी की हैसियत से बनारस का जीवन भी कठिनाइयों से भरा रहा। उस जीवन में मित्रता, स्नेह तथा आदर-सम्मान कम और ठगी, परेशानियां एवं अपमान अधिक था। परिस्थितियों के उस षड्यंत्र ने उसके बचपन की कोमलता और जवानी के सपनों को उभरने से पहले ही दबा दिया था। फिर भी उनके अंकुरों में अभी जान बाकी थी और हमारे क्रांतिकारी परिवार में आकर उसका प्रेम, उसकी सौंदर्यप्रियता, उसका विनोद जाग उठा। वह जहां रहता वहीं हंसी-मजाक से जिंदगी बनाए रखता। अपनी सूरत की आड़ लेकर मजाक करने में उसे मजा आता था। एक बार भगत सिंह के साथ वह आगरा से दिल्ली जा रहा था। ट्रेन में काफी भीड़ थी। दोनों को जगह देने में दूसरे मुसाफिरों ने तो खास आपत्ति नहीं की, पर एक पढ़े-लिखे सज्जन बहुत बिगड़े। भारतीयों की भेड़ियाधसान आदत पर उन्होंने सारे कम्पार्टमेंट को लंबा-सा लेक्चर दे डाला।
हंसी और जिंदादिली
लेक्चर समाप्त होने पर राजगुरु ने अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी में भगत सिंह से कुछ कहा जिसका मतलब था, यह व्यक्ति देखने में मुझसे भी बदशक्ल है। यह कहकर भगत सिंह को खींचता, दूसरे मुसाफिरों पर कूदता-फांदता वह उनके पास पहुंच गया। उनके उपदेश के लिए कृतज्ञता और गाड़ी में घुस आने की अपनी गलती पर क्षमा मांगते हुए बोला- ‘‘आप मेरे बड़े भाई के समान हैं।’’
महाशय जी को शायद भाषण देने का मर्ज था। उन्होंने इस पर भी एक लेक्चर दे दिया- ‘‘सभी भगवान के बेटे हैं। सबको उसी ने बनाया है। इस नाते आप ही क्यों, हर मनुष्य मेरा भाई है और हर स्त्री मेरी बहन है।’’ आदि
‘‘भाभीजी भी?’’ राजगुरु ने बड़े भोलेपन से पूछा। इस पर सारे यात्री ठहाका मारकर हंस पड़े।
‘‘मेरा मतलब है, हम सबको भगवान ने बनाया है।’’ महाशय जी ने सफाई दी।
‘‘मैं इसे नहीं मानता।’’ राजगुरु ने कहा।
‘‘मतलब?’’
‘‘मतलब यह कि कम से कम मुझे और आपको भगवान ने नहीं बनाया।’’
महाशय जी ने घूर कर उसकी तरफ देखा, पर कुछ बोले नहीं। इस बार राजगुरु के भाषण की बारी थी।
‘‘भगवान ने इसे बनाया है।’’ उसने भगत सिंह की तरफ इशारा करके कहा, ‘‘अच्छा मेटिरियल, उम्दा पालिश और बढ़िया फिनिश कम्बख्त को लड़कियों की निगाहों से बचाते-बचाते जान आफत में है।
जारी

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