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मानसिक विकलांगता ज्यादा खतरनाक

by
Aug 14, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 14 Aug 2017 14:43:43

माधवी (नाम परिवर्तित) पत्रकार हैं। चुस्त, सतर्क और अत्यंत संवेदनशील। उनकी यह संवेदनशीलता ऐसी है कि कई बार रात की नींद, दफ्तर में काम के घंटों और अखबार के पन्नों से भी बाहर छलक पड़ती है। अपने आस-पास, आते-जाते माधवी कई बार कुछ ऐसा देखती हैं जो भले छपे नहीं, किन्तु उन्हें अकुलाहट और चिंता से भर देता है। ऐसे में वे कलम उठाती हैं और हमें लिख भेजती हैं। इस भरोसे के साथ कि कोई तो उनकी चिंताओं को साझा करेगा। विचारों से भरी, झकझोरती चिट्ठियों की अच्छी-खासी संख्या हो जाने पर हमने काफी सोच-विचार के बाद माधवी की इन पातियों को छापने का निर्णय किया, क्योंकि जगह चाहे अलग हो, लेकिन मुद्दे और चिंताएं तो साझी हैं। आप भी पढि़ए और बताइए, आपको कैसा लगा हमारा यह प्रयास।

एक शाम की बात है। मैं ऑफिस से घर लौट रही थी। लौटते समय पेट्रोल पंप पर गाड़ी में पेट्रोल भरवाने के लिए रुकी। पेट्रोल भरवाने के बाद टायर में हवा की भी जांच करानी थी। लिहाजा पेट्रोल डाल रहे सज्जन से ही हवा जांचने का आग्रह किया तो उन्होंने दो मिनट इंतजार करने के लिए कहा और किसी को बुलाने के लिए ऑफिस के अंदर गए। तब तक मैं बाहर ही उनके आने का इंतजार करती रही। उस दिन ठंड कुछ अधिक थी। मुझे ठंड लग रही थी इसलिए गर्माहट लाने के लिए हथेलियों को रगड़ रही थी। इसी बीच, मेरी नजर सामने कांपते, लड़खड़ाते हुए आ रहे एक शख्स पर पड़ी। उसकी उम्र यही कोई 25-26 वर्ष की रही होगी। वह लगभग 75 फीसदी दिव्यांग था और बहुत मुश्किल से धीरे-धीरे मेरी ओर बढ़ रहा था। उसके दोनों हाथ और पैर टेढ़े थे। बमुश्किल एक-एक कदम आगे बढ़ता हुआ वह मेरी गाड़ी के पास आकर रुका और गाड़ी को थोड़ा आगे बढ़ाने के लिए कहा। मैं कुछ समझ पाती, इसके पहले ही उसने टायरों की हवा जांचनी शुरू कर दी। पांच मिनट में अपना काम खत्म करने के बाद उसने कहा, ''गाड़ी में हवा बराबर हो गया।''
उसके आने और टायर में हवा डालने का काम खत्म करने तक मैं किसी और दुनिया में खो गई थी। उसे देखकर पता नहीं क्यों, मन भर आया। उसके प्रति दिल में सम्मान की भावना पैदा हो रही थी। बार-बार मन कर रहा था कि पर्स में से आखिरी सौ रुपये का नोट निकाल कर उसे थमा दूं। उस पर तरस खाकर नहीं, बल्कि उसकी थोड़ी मदद करने के उद्देश्य से मैं ऐसा करना चाह रही थी। हवा डलवाने के बाद भी मैं पांच मिनट तक पंप पर खड़ी सोचती रही। अंतत: मैं उसे पैसे देने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। मुझे लगा कि कहीं उसके स्वाभिमान को ठेस न लग जाए। लिहाजा वहां से चल पड़ी और रास्तेभर इसी घटना पर विचार करती रही। मुझे यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि दिव्यांग होने के बावजूद वह किसी पर बोझ नहीं था और अपनी मेहनत से जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा था। वह भी ऐसी स्थिति में जब वह पैरों से ठीक से चलने में भी समर्थ नहीं था। हाथ किसी वस्तु को थामने से पहले ही कांप रहे थे। उसके चेहरे के भाव ऐसे थे कि देखकर लगता था कि लोग दूर से ही उससे घृणा करते होंगे।  
ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी वह पूरी लगन से अपना काम कर रहा था। यही सब देखकर मेरे मन में उसके प्रति इतना सम्मान का भाव आ रहा था। ऐसा भाव शायद कभी-कभी अपने ज्ञान, पद-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान का दिखावा करने वाले विद्वानों को भी नहीं आता। अक्सर रेलवे स्टेशन, बस स्टॉप, मंदिर, सड़क, चौराहों पर शारीरिक रूप से सही सलामत होने के बावजूद लोग अपनी जरूरतों के लिए भीख मांगते हैं। यह देखकर बहुत गुस्सा आता है।  ऐसे लोग मेहनत करके अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकते हैं, लेकिन वे मेहनत नहीं करना चाहते हैं। यह अनुभव बहुत छोटा, लेकिन बेहद खास है। काफी दिनों से इसे आपसे साझा करने की इच्छा थी, जो अब पूरी हुई है। मेरा यह अनुभव मेरे पेशे से कब और कैसे जुड़ता चला गया, मुझे इसका आभास तक नहीं हुआ। जब एहसास हुआ तब दिमाग में एक बात चल रही थी।
 मीडिया के साथ विवाद का नाता बहुत पुराना है। इसी वजह से मैंने इलेक्ट्रॉनिक की जगह प्रिंट मीडिया को करियर के रूप में चुना। उसी की बदौलत मैं तस्वीर के दूसरे पहलू को देख और समझ सकी। उस दिव्यांग को देखकर लोग तरस खाते होंगे, पर मुझे उसमें स्वाभिमान दिखा। विकलांगता शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक होती है। मैं सोचती हूं कि वह युवक मानसिक रूप से कितना सशक्त होगा!

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