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भारतीय शिक्षण मण्डल के अ.भा. संगठन मंत्री श्री मुकुल कानिटकर 21 जून 2015 को एक ऐतिहासिक दिन मानते हैं जब भारत के आह्वान पर 40 से ज्यादा मुस्लिम देशों सहित 193 देशों ने अंतरराष्टÑीय योग दिवस मनाया था। वे कहते हैं कि देश मानसिक दासता से मुक्ति की ओर बढ़ चुका है, मात्र घोषणा होनी बाकी है। प्रस्तुत हैं श्री कानिटकर से बौद्धिक-वैचारिक क्षेत्र में आ रहे परिवर्तन के संदर्भ में पाञ्चजन्यकी विस्तृत बातचीत के प्रमुख अंश:-
एक सतत प्रयास रहा है भारत के लोगों को उनकी जड़ों से काटकर उनमें अपने देश, धर्म, मूल्य, संस्कार और संस्कृति के प्रति भ्रामकता से भरने का। मानसिक दासता के इस दुष्चक्र के बारे में आप क्या कहेंगे?
इसमें संदेह नहीं है कि हमारे देश में विभिन्न कालखंडों में शिक्षा, संस्कार, व्यवहार, मूल्यों आदि को भ्रामकता से भरकर भारतीयों के मानस में भारत और भारत के मौलिक तत्वों के प्रति एक प्रकार का मानसिक दासता का भाव भरा गया। पर अब समय आ गया है जब हमें उस मानसिक दासता को उखाड़ फेंकना है। और उसकी शुरुआत हो गयी है। मैं केवल राजनीतिक परिवर्तन की ओर संकेत नहीं कर रहा हूं। मैं तो हमेशा कहता हूं कि वह तो परिणाम है।
जब आप कहते हैं अब समय आ गया है इस दासता को उखाड़ फेंकने का, तो इसके पीछे आधार क्या है?
मुझे गत 27 साल से पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में देशभर में युवाओं के साथ काम करने का अवसर मिला है। उस आधार पर मैं यह बात कहता हूं कि इस देश का युवा मानस पिछले दस-बारह वर्ष में बदला है। इसे इतिहास के संदर्भ में देखना है तो भारत में दो-तीन प्रमुख घटनाओं ने यहां के जनमानस को बदलने का काम किया है।
आपके अनुसार वे प्रमुख घटनाएं कौन सी हैं, जिनके द्वारा जनमानस में परिवर्तन आया है?
मेरी दृष्टि में इसकी शुरुआत 1971 से हुई जब दिसंबर, 1971 में भारत ने पाकिस्तान पर विजय प्राप्त की थी। वह विजय दिवस अपने आप में एक बहुत बड़ी बात थी। हालांकि उस समय उस विजयगाथा को उस तरह से प्रसारित नहीं किया गया जिस तरह से करना चाहिए था। इतिहास में अनेक बिन्दु होते हैं जिन्हें ढंग से रखना समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है। लेकिन 1971 में हमने जो ढाका में जीता, वह शिमला में हार गये। वह भी एक कारण रहा कि उस विजयगाथा को हम ज्यादा नहीं बढ़ा सके। इसके बाद, 6 दिसंबर 1992 की विजय एक बहुत बड़ा मानसिक परिवर्तन भारत में कर गयी। एक बड़ा सांस्कृतिक-मानसिक मनोवैज्ञानिक परिवर्तन उस एक घटनाक्रम ने किया है जिसके बारे में शायद इतिहास ही आकलन कर पाएगा यदि उस समय के सारे विषयों को ध्यान से कोई अध्ययन करता है तो। तब किस प्रकार से प्रामाणिकता से विचार करने वाले विचारकों ने पाले बदले थे। सत्ता तो बाद में आयी थी, अत: सत्ता के कारण पाले नहीं बदले थे उस समय। अनेक लोगों ने आंदोलन में जिस प्रकार से अपने अंदर की आवाज को सुनकर विचार की प्रतिबद्धता को छोड़ा और आगे आए, उससे एक ध्रुवीकरण हुआ था पूरे समाज का। श्री रामजन्म भूमि आंदोलन में 1990 की कार सेवा में जिस प्रकार से शासन का आसुरी स्वरूप सामने आया था और राम भक्तों के ऊपर गोली चलायी गई थीं, उस बात से आहत होकर समाज में जो उद्वेलन, एक वैचारिक आंदोलन खड़ा हुआ था, जिसकी परिणति 6 दिसंबर को हुई। ‘हम जो कहते हैं उसे करके दिखाते हैं’, इस तरह का आत्मविश्वास लेकर समाज खड़ा हुआ था। उसका आकलन हुआ ही नहीं, किसी रूप में नहीं। राजनीतिक कारणों से नहीं हुआ, यह बात ठीक है। लेकिन विचारकों को करना चाहिए था। और तो और, विरोधियों ने भी इसका जैसे आकलन करना चाहिए था, वह नहीं किया। उत्तर प्रदेश में जाति की राजनीति करने वाली ‘बहनजी’ भी इस बात का आकलन नहीं कर पायीं कि समाज में हो क्या रहा है। वे समाज के मन में जो परिवर्तन हो रहा था उसको नहीं देख पार्इं। समाज में बदलाव की परिणति 1998 की 11 मई के दिन में भी देखनी पड़ेगी। वह भी स्वतंत्र भारत का एक महत्वपूर्ण दिवस है। पोकरण में केवल अणु विस्फोट नहीं हुआ था, वहां भारत के वैज्ञानिकों ने एक आत्मविश्वास जागृत किया था भारत की नयी पीढ़ी के अंदर कि हम कर सकते हैं। कुछ असंभव नहीं है। और बात केवल वैज्ञानिक तकनीकी संभावना की नहीं थी, बल्कि जिस ढंग से उस सबको रहस्य रखा था और जब तक प्रधानमंत्री ने घोषणा नहीं कि तब तक दुनिया को पता ही नहीं चला।
बताते हैं, उसमें अत्यंत गोपनीयता बरती गई थी, अमेरिका तक चौंक गया था?
भारत के वर्तमान सुरक्षा सलाहकार श्री अजित डोवल बताते हैं कि उस समय सुबह उठते ही अमेरिका के राष्टÑपति ने सीआईए प्रमुख को निलंबित कर दिया क्योंकि उसे भी नहीं पता चला था कि भारत अणु विस्फोट करने जा रहा है। पोकरण विस्फोट में साढ़े तीन हजार लोग काम में जुटे थे, जिसमें वैज्ञानिक, सैनिक इत्यादि शामिल थे। लेकिन सबने इस रहस्य को रहस्य बनाकर रखा और एक बहुत बड़ा संदेश पोकरण में दिया था कि भारत का व्यक्ति बिकता नहीं है। इस घटना ने सारी दुनिया का भारत को देखने का दृष्टिकोण बदल दिया था। आज तो मानसिक दासता से मुक्ति के प्रभाव का विस्फोट चल रहा है। फिर आया 2008 का आर्थिक मंदी का दौर। उसमें भी भारत ताकत से खड़ा रहा था। इस सबके बीच युवा शक्ति में एक अलग आत्मविश्चास जगा। मैं तो बहुत सारे कॉलेजों वगैरह में जाता रहता हूं। उस आधार पर कह सकता हूं कि आज से दस-पन्द्रह साल पहले युवा कहा करते थे जो भी अच्छा होगा विदेशों में होगा। लेकिन आज भारत का युवा यह सोचता है कि जो दुनिया में हो सकता है वह यहां क्यों नहीं हो सकता।
क्या मानसिकता में यह परिवर्तन सत्ता के परिवर्तन का वाहक बना?
समाज में यह मानसिकता का परिवर्तन पहले हुआ, बाद में सत्ता का परिवर्तन हुआ। भारत के युवा का मानस बदला इसलिए प्रधानमंत्री पद पर श्री नरेन्द्र मोदी आए, श्री मोदी प्रधानमंत्री पद पर आए इसलिए मानस नहीं बदला। यह एक महत्वपूर्ण बात है। वास्तविकता तो यह है कि यदि भारत में आत्मविश्वास का मानस खड़ा नहीं होता तो आज राष्टÑ की बात करने वाले नेता को जनता सर-माथे बैठाने को कैसे तैयार होती! मानसिक दासता की बात करते वक्त हमें आधुनिक इतिहास को भी देखना पड़ेगा। मैं तो कहता हूं इस ‘ब्रेनबॉश’ को रोकने के लिए यह बिल्कुल सही समय है।
आज आधुनिक इतिहास तो वह है जिसे सेकुलर इतिहासकारों ने एनसीईआरटी के माध्यम से फैलाने की कोशिश की। जब ठीक तथ्य रखने की कोशिश हुई तो तत्कालीन शिक्षा मंत्री ने ऐसे सारे प्रयासों में बाधा पैदा कर दी थी। इस पर क्या कहेंगे? क्या आज की बदली परिस्थितियों में वैसा करना संभव है?
एनसीईआरटी में चीजों को सही करने के प्रयासों को तत्कालीन शिक्षा मंत्री अर्जुन सिंह की कलम निरस्त करती रही थी, लेकिन आज ऐसा नहीं होगा। आज कोई ऐसा इसलिए नहीं कर पाएगा क्योंकि समाज के अंदर परिवर्तन का एक विस्फोट देखने में आ रहा है। इस बात को आगे रखने का जैसा काम पाञ्चजन्य कर रहा है, वैसा साहस कितने माध्यम कर पाएंगे? यह प्रसार माध्यमों का काम है कि वह समाज के सामने इस चर्चा को ले जाए। वाद हो, विचार-विमर्श हो। विषय यह है कि ये जो देश में मानसिक परिवर्तन हो रहा है उसका शिक्षा में प्रतिबिंबित होना अति आवश्यक है, क्योंकि एनसीईआरटी की किताबें केवल स्कूली शिक्षा तक नहीं रहती हैं। यह बात उनको समझ लेनी चाहिए। उन पर आधारित यूपीएससी की परीक्षा होती है। उससे फिर कोई आईएएस अधिकारी बनता है, नीति-निर्माता बनता है। इससे नौकरशाही की सोच में बदलाव आएगा, जिसकी वाहक ये पाठ्यपुस्तकें ही तो होंगी। मानसिक दासता से मुक्ति तो होगी, आज नहीं तो कल। इसके लिए जब समाज तैयार हो जाएगा तब जो दास प्रवृत्ति से चलने वाले हैं, वे छटपटाएंगे।
इसके लिए क्या विशेष प्रयास करने की जरूरत है?
हम सबको थोड़ा सा गियर बदलने की आवश्यकता है। हमें समाज की मनोभावना को समझकर शब्दों की शब्दावली को बदलना पड़ेगा। अब वह संघर्ष का समय नहीं है। अब शिकायतों का समय नहीं है। संघर्ष और शिकायतों का समय चला गया। मैं फिर सत्ता परिवर्तन की बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि समाज की मनोभूमिका बदल गयी। अब समाज विजय की भाषा सुनना चाहता है। अब वह हर क्षेत्र में भारत की विजय देखना चाहता है। विज्ञान में, खेल में, हर जगह और इसलिए विजय का इतिहास इस समाज के सामने रखना विद्वानों की मजबूरी बन जाएगी। इस बार एक बहुत बड़े वर्ग ने महिला क्रिकेट का फाइल मैच देखा। यह समझने की बात है। क्रिकेट के बारे में कई लोग कहते हैं, यह बेकार खेल है, कबड्डी बहुत अच्छा खेल है। आज देखिए, प्रो-कबड्डी के कितने प्रेमी हैं। तो समय आ गया है, जो कुछ भी भारतीय है, उसका समय आ गया है। इसलिए राजस्थान में पीएचडी तो बहुत पहले हो चुकी है कि हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप हारे नहीं थे। सोलह शोधार्धियों ने इस बात को सिद्ध कर दिया है कि उसमें अकबर की विजय नहीं हुई थी। लेकिन आज उसको शिक्षा में कुछ अलग ही भाव से प्रस्तुत किया गया है। आज हमें इस बात की वास्तविकता को समझना पड़ेगा। आज विजय का समय आ गया। अब हमें लहजा बदल देना चाहिए। हमारा आत्मविश्वास का भाव जगना चाहिए जो समाज का आत्मविश्वास बढ़ाए, विद्वानों की बातों में वह झलकना चाहिए। हमारा ‘एपोलॉजिस्टिक माइंडसेट’ नहीं होना चाहिए। नया विचार सहन करने का माद्दा होना चाहिए, क्योंकि हिन्दू समाज सतत् परिवर्तन की बात करता है। नित्य नूतन, चिर पुरातन की बात करता है। पुराने विषयों का बचाव करते रहना मानसिक दासता है, जिसको बदलने की आवश्यकता है। हम मन बड़ा कब करेंगे? हिन्दू समाज हजारों वर्षों से इतने आक्रमणों के बाद भी इस लचीलेपन के कारण जीवित है।
कहते हैं भारत में शिक्षा पद्धति को पटरी से उतारने का काम मैकाले ने किया। इसके पीछे सोच क्या थी?
शिक्षा में मैकाले ने ब्राह्मणों के बारे में भ्रामक चीजें भरीं क्योंकि उसका मानना था कि बुद्धि को भ्रष्ट कर दो तो दो बाकी सब अपने आप खराब हो जाता है। मैकाले ने कहीं एक घटना का जिक्र किया है कि वह ऊटी के अपने बंगले में बैठा था और उसने देखा, नीचे ढलान पर चारदीवारी के फाटक पर चौकीदार बैठा था। वह रोज देखता था कि उसका क्लर्क उसके पास आते वक्त रोज उस चौकीदार के पैर छूता था। मैकाले को यह समझ में नहीं आया। उसने क्लर्क से कहा कि तेरा वेतन तो चौकीदार से ज्यादा है। वह चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी है और तुम तीसरी श्रेणी के। तुम क्लर्क हो, वह चौकीदार है। तुम उसका ‘सीआर’ लिखते हो, फिर भी तुम उसके पैर छूते हो, क्यों? क्लर्क ने बताया कि वह कायस्थ है और चौकीदार ब्राह्मण। क्लर्क ने कहा कि तीसरी और चौथी श्रेणी तुम अंग्रेजों की होगी। यहां तो ब्राह्मण जहां भी बैठा होगा वह वंदनीय होगा। इसलिए मैं चौकीदार के पैर छूता हूं। तब मैकाले ने कहा, ‘अब पता चल गया कि समाज को तोड़ना कैसे है।’ एक जगह चोट करों, पूरा समाज पंगु हो जाएगा। इसलिए 1835 में कानून बनाया कि बिना सरकार की अनुमति से कोई शिक्षा संस्थान नहीं चलाया जा सकता। उसने पूरी तरह से समाज में उस वक्त की शिक्षा पद्धति को समाप्त कर दिया। श्री धर्मपाल ने पुस्तक के रूप में 1823 का सर्वेक्षण रखा जिसमें थॉमस मुंदरो लिखता है कि उस वक्त सौ प्रतिशत साक्षरता थी। बिना शूद्रों के साक्षर हुए 1823 में सौ प्रतिशत साक्षरता थी, यह कैसे हो सकता है? तब हर जाति की शिक्षा की व्यवस्था थी। यह अंग्रेजों का तब का सर्वेक्षण कह रहा है। मैकाले ने उसको तोड़ने का काम किया। उसने नियम बनाया कि बिना अनुमति के विद्यालय नहीं चल सकेंगे। और ईस्ट इंडिया कंपनी कहती है कि अनुमति केवल अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों को देना, केवल ईसाई मिशनरियों को देना या सरकारी विद्यालयों को देना। उन तीनों के लिए संहिता बनती है, अलिखित नियम बनता है कि ब्राह्मणों के अलावा किसी को दाखिला नहीं देना। सारे वर्णों की शिक्षा मैकाले ने बंद कर दी। क्षत्रिय और वैश्य समाज संगठित थे तो उन्होंने प्रिवी काउंसिल तक अपील कि जिससे उनकी शिक्षा दस-बारह साल के लिए शुरू हो जाती है और शूद्रों की बंद हो जाती। पूरे षड्यंत्र के तहत यह मानसिक दासता हमारे अंदर ठूंसी गयी है। तब से परिवर्तन बंद हुआ। स्वामी विवेकानंद इस बात को बार-बार कहते हैं-‘‘कृण्वंतो विश्वमार्यम् कहने वाला देश जब यह कहने लगा कि समुद्र पार करना पाप है तब उसका पतन निश्चित था।’’ जब हम पुरानी परंपराओं का बिना विचार बचाव करने लगे तब दिक्कत होने लगी। हमारी परंपराओं को चुनौती देने के लिए शास्त्रार्थ की संस्कृति थी जहां सदा से परंपराओं को बौद्धिक चुनौती दी गयी, पर आज हम बौद्धिक चुनौती से डर रहे हैं। हमें पुरानी मान्यताओं के विवाद में उलझने की आवश्यकता नहीं है। हमारे पूर्वज इतने समर्थ हैं कि वे खुद का बचाव कर सकते हैं। परस्पर संवाद, विमर्श और विश्वव्यापी विचारधाराओं को वैचारिक चुनौती देने की ताकत भारत में है। इसलिए मुझे लगता है इस विमर्श को आगे तक ले जाना चाहिए। बौद्धिक जगत में कई लोग इस बात के लिए सक्षम हैं।
ल्ल शिक्षा में भगवाकरण के आरोपों को आप कैसे देखते हैं? भारतीय शिक्षण मंडल पर तो यह आरोप आएदिन लगता है। इस पर आप क्या कहेंगे?
मुझसे कोई पत्रकार पूछता है कि आपके ऊपर भगवाकरण के आरोप लगते हैं तो उससे मैं कहता हूं कि भारतीय शिक्षण मंडल पर तो आरोप लग ही नहीं सकता। हमारा तो काम ही है शिक्षा का भारतीयकरण करना। आप इसे भगवाकरण कहते हो तो कहते रहो। हमारा तो उद्देश्य ही वह है। इस संस्था की स्थापना ही इसके लिए की गयी है। शिक्षा के भारतीयकरण के लिए शिक्षण मंडल बनाया है। इसलिए यह काम तो होना ही चाहिए। हमें तीन बातें करनी हैं जो बहुत जरूरी हैं। सरकार क्या करेगी, एनसीईआरटी क्या करेगी, पाठ्क्रम बदलेगा कि नहीं। इसकी चिंता उन संस्थानों में बैठे लोग करेंगे। कार्यकर्ताओं के संदर्भ में दो शब्द हम शिक्षण मंडल में प्रयोग करते हैं-शोधकर्ता और कार्यकर्ता। हम कहते हैं कि कार्यकर्ता शोधकर्ता बन जाए। शोधकर्ता कार्यकर्ता बन जाए। यह बहुत आवश्यक है कि पूरे देश में हर विषय में सटीक ढंग से मौलिक सामग्री को पढ़कर बहुत अच्छी शोध सामग्री तैयार की जाए। केवल इतिहास नहीं, केवल भाषा नहीं, केवल मानविकी नहीं, केवल विज्ञान नहीं, सभी क्षेत्रों में यह करना जरूरी है।
हमारा प्राचीन ज्ञान-विज्ञान विश्व में सबसे उच्च् स्तरीय माना जाता है। लेकिन जब भारत की नई पीढ़ी इसे मान्य करने से कतराती दिखी है। क्या ऐसे ज्ञान का प्रचार-प्रसार बड़े स्तर पर होना चाहिए?
हमारा विज्ञान छिपाया गया। और जब हम इसकी बात करते हैं तो मजाक उड़ाया जाता है। मोदी जी ने प्लास्टिक सर्जरी की बात की तो मजाक उड़ाया गया, लेकिन दुनिया के सबसे बड़े प्लास्टिक सर्जन की वेबसाइट पर लिखा हुआ है कि इसकी शुरुआत भारत में हुई। विश्व इसे मानता है, पर हमारे यहां के लोग नहीं मानते। जार्ज इंफ्रा मैथमेटिकल साइंस की पुस्तक में लिखते हैं-‘आज विश्व में जो मैथमेटिक्स है उसका अस्सी प्रतिशत दुनिया को भारत ने सिखाया। चाहे अंक गणित हो, बीज गणित, त्रिकोणमिति, ज्यामिती या चाहे कैलकुलस हो।’ फ्रांस का आठवीं का छात्र यह पढ़ रहा है। केवल इतिहास ही नहीं, गणित भी काव्य में लिखा मिलता है। यह लीलावती तो काव्य में है। सारा विज्ञान काव्यात्मक है। भास्कराचार्य कहते हैं कि एक ही संदर्भ को सोलह तरह से बताया जा सकता है। एक श्लोक के सोलह अर्थ निकालकर गणित को सुलझाया जा सकता है।
इसलिए हिन्दू जीवित है इतने वर्षों के बाद भी, क्योंकि हमने अनेक विकल्पों को एक साथ मान्यता दी। ‘एक : सद् विप्र: बहुधा वदन्ति’- यह केवल आध्यात्मिक बात नहीं है। यह गणित के लिए भी सही है तो विज्ञान के लिए भी। भारत में विवाह की एक ही पद्धति थोड़ी है। उपनिषद् में उद्धवाह शब्द आता है। पाणिग्रहण में उद्धवाह शब्द आता है। हमारे यहां अर्धनारीश्वर का भाव है, तो उद्धवाह का मतलब है हमारा परिचय एक हुआ। कल्पना कीजिए इस देश में कहां तक तर्क किए गए। स्नान के ही चौबीस वैकल्पिक प्रकार हैं। प्राचीनता के साथ ही ज्ञान के लिए सतत आग्रह और सतत नवीनता यही तो सुंदरता है भारतीय सोच की।
किन्तु नवीनता के साथ शिकायतें भी आएंगी?
हम नयी सोच को अपनाकर भी हिन्दू बने रह सकते हैं। ये सौंदर्य है भारत का। इसमें शोधकर्ता का काम सबसे पहले है। उसके बाद बहुत ताकत, सामर्थ्य और विजय के पूर्ण विश्वास के साथ हमें यह समाज में रखना है। शिकायत किसी की भी मत करो। मैं तो कहता हूं विरोधियों की भी शिकायत मत करो। इसमें एक महत्वपूर्ण बात है। हमने रामजन्मभूमि के 1990 से 1992 के आंदोलन की बात की, जिसमें बड़े-बड़े विरोधी लोगों ने पाले बदले। उन्होंने पाला क्यों बदला? जो वैचारिक रूप से निष्ठावान थे उन्होंने पाले बदले। इसलिए आज भी मैं कहता हूं कि आज दो प्रकार के इतिहासकार, दो प्रकार के साहित्यकार, दो प्रकार के विचारक समाज में हैं और उनको अलग करके उनके साथ संवाद करके हमको सीखना चाहिए। सत्य को जानते हुए जानबूझकर कपटपूर्वक भ्रम फैलाने वाले महज पन्द्रह-बीस हैं। उंगलियों पर गिनने लायक हैं। अब धीरे धीरे वे और कम होते जाएंगे। ‘बहनजी’ का जो हाल हुआ वही स्थिति उन लोगों की है। लेकिन समाज में वे लोग जो भ्रमित हैं, वे हमारा लक्ष्य हैं। उनको सत्य बता देने से, सही संदर्भ दे देने से, सही पढ़ने के लिए प्रवृत्त करने से वे तुरंत सत्य को स्वीकार करेंगे। धर्मपाल जी को पढ़ने के बाद आंखें खुली की खुली रह जाती हैं। मैंने ऐसी 125 पुस्तकों की बिबिलियोग्राफी बनाई है। सीताराम गोयल जी, राम स्वरूप जी इत्यादि सब हैं उसमें। हमें ‘ओवरक्लेमिंग’ से बचकर चलना है। भाषा को बहुत संयत रखते हुए इस विषय को रखने की आवश्यकता है। यह एक महत्वपूर्ण बिंदु है। हमारे ये सारे काम करते समय वे जिनमें समझ गड़बड़ है, उसमें कई आइएएस अधिकारी हैं, तो उनमें थोड़ी सी भी बौद्धिक ईमानदारी हो तो उनसे हम ढंग से शास्त्रार्थ करें तो उनको सत्य समझ आने में समय नहीं लगता। सत्य की विजय होती है। लेकिन अंततोगत्वा तो सारे समाज को अपने साथ जोड़ना है। हमें समाज में द्रोणाचार्य और भीष्म के प्रति भी सहानुभूति रखनी पड़ेगी। भले ही वे गलत खेमे में खड़े हों। लेकिन उनकी मजबूरी को समझना पड़ेगा, क्योंकि विजेता को हमेशा हृदय की उदारता दिखानी पड़ेगी। विजेता संकीर्ण हुआ तो दिक्कत होती है। विजेता का हृदय हमेशा बड़ा होना चाहिए। यही पुरुषोत्तम है। इसलिए मैं कहता हूं कि पुरुषोत्तम (जिसे पोरस कहा गया) जीतता था। सिकंदर नहीं जीतता, क्योंकि उदारता, मन की विशालता पुरुषोत्तम में दिखायी देती है।
कई लोग आज भी यह कहते हैं कि 1947 में तो केवल राजनीतिक आजादी मिली। आपका क्या कहना है?
मैं पिछले दो वर्षों से लगातार कह रहा हूं कि हो सकता है सौ वर्ष बाद 15 अगस्त 1947 को भुला दिया जाए। क्योंकि आज भी सवाल किया जाता है कि अभी वास्तविकता में स्वतंत्रता आई कि नहीं। स्व का तंत्र आया कि नहीं? तो हो सकता है उस राजनीतिक स्वतंत्रता को लोग याद भी न रखें। भारत का वास्तविक स्वतंत्रता दिवस मेरी दृष्टि से 21 जून 2015 है। जैसे मैंने 16 दिसंबर 1971 का महत्व बताया। 6 दिसंबर 1992 का महत्व बताया। 11 मई 1998 का महत्व बताया। वैसे ही स्वतंत्र भारत का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव, जिसने इस देश की मानसिकता को बदल दिया, वह 21 जून 2015 है। इस दिन भारत ने अपना काम करना फिर से शुरू किया। इस राष्टÑ का जन्म विश्व को शिक्षा देने के लिए हुआ है। विश्वगुरु बनने के लिए हुआ है। और वह काम 21 जून 2015 को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर सऊदी अरब में, बहरीन में, कुवैत में बुरके पहने माताओं ने जब ओम् की ध्वनी की, सूर्य नमस्कार किया, तब हुआ। 193 देशों में लोग सूर्य नमस्कार करते समय अपने नाक जमीन से छुआ रहे थे तो मेरी भारत माता का ही वंदन कर रहे थे। इसलिए भारत माता को जगद्गुरु बनाने का कार्य उस दिन से प्रारंभ हो गया था। विजय सुनिश्चित है। एक अर्थ में विजय हो चुकी है, बस घोषणा होनी बाकी है। और वह करने का दायित्व हम सब पर है। हमें ऐसे विश्वास के साथ अपनी बात रखनी है। हमें नि:संकोच होकर इस विषय को रखना है, क्योंकि सत्य हमारे साथ है। हमको षड्यंत्र करने की जरूरत नहीं है। उनको षड्यंत्र करने की जरूरत पड़ी, क्योंकि उनको सत्य को असत्य साबित करना था। उनको गोयबल्स की नीति को अपनाना पड़ा। हमको उनकी नीति अपनाने की जरूरत नहीं क्योंकि सत्य हमारे साथ है। परम पूजनीय गुरुजी कहा करते थे-‘वी मे लूज बैटल्स बट अल्टीमेट विक्ट्री इज़ अवर्स’। युद्ध अभी समाप्त थोड़े हुआ है। वो समाप्त तभी होगा जब हम जीतेंगे। जब हम विश्व गुरु होंगे। इसलिए इस आत्मविश्वास के साथ बढ़Þना है।
लेकिन कई बार परिस्थितियां बड़ी चिंताजनक बन जाती हैं। हिन्दुओं को निशाना बनाया जाता है। सेकुलर तत्व हावी दिखते हैं। बौद्धिक और वैचारिक आक्रमणों पर क्या कहेंगे?
ये सेकुलर जमात के लोग हारे हुए योद्धा हैं। इसलिए आज जो केरल में हो रहा है, कर्नाटक में हो रहा है, बंगाल में हो रहा है, ये अंतिम छटपटाहट है। मोमबत्ती बुझने से पहले फड़फड़ाती है। यह होगा। बहुत आक्रमण होंगे। हम सब पर होंगे। बौद्धिक आक्रमण होंगे। वैचारिक आक्रमण होंगे। शारीरिक आक्रमण होंगे। लेकिन हमारी विजय निश्चित है। इस आत्मविश्वास को लेकर इस युद्ध में लड़ना है। ये अंतिम लड़ाई है, मानसिक दासता से मुक्ति की लड़ाई।
ल्ल संख्याबल भी तो एक चीज होती है। जब सारे सेकुलर एक पाले में खड़े दिखते हैं तो पलड़ा उधर झुका दिखता है। राष्टÑभाव से ओत-प्रोत कार्यकर्ता इस स्थिति का सामना कैसे करेंगे?
इसके लिए विस्फोट आवश्यक होगा। बौद्धिक विस्फोट करने के लिए उस प्रकार की ताकत के साथ इस युद्ध में आगे आना पड़ेगा। इसमें संख्या नहीं लगती, इसमें संकल्प लगता है। संख्या तो आ ही जाती है। एक श्रीराम शर्मा हैं, ग्वालियर में प्रिंटर हैं। गांधीवादी हैं। अभी भी वे टोपी पहनते हैं। उन्होंने एक दिन मुझे गणित सिखाया था। उन्होंने कहा था कि गणित तो केवल दो को कन्वर्ट करने का खेल है। उन्होंने कहा, ग्यारह और नौ का खेल है। जब ग्यारह दुष्टों की तरफ हों और नौ अच्छों की तरफ तब ऐसी स्थिति होती है जो आज की स्थिति है। दो को बदलो तो इधर ग्यारह बन जाएंगे, उधर नौ बन जाएंगे। मैंने कहा, बाकी अस्सी का क्या? तो उन्होंने कहा कि बाकी अस्सी तो देवता हैं। मैंने कहा, इसका मतलब? तो उन्होंने कहा, रामचरित मानस में युद्ध के समय जब दोनों सेनाएं आमने-सामने आकर खड़ी हुर्इं तो ऊपर से देवताओं ने पुष्प वृष्टि की। दशरथ भी वहीं पर थे। तो देवताओं ने कुछ पुष्प रावण पर भी डाल दिये थे। तो दशरथ ने पूछा कि ऐसा क्यों? तुम राम की तरफ हो या रावण की तरफ?
इस पर देवताओं ने कहा कि युद्ध में कहीं वह जीत गया तो? अस्सी प्रतिशत तो आलिंगनोत्सुक देवता होते हैं। जिधर दम उधर हम। लड़ाई तो नौ को ग्यारह करने की है। ग्यारह हो गए तो अस्सी अपने साथ ही हैं। इसलिए संख्या का खेल नहीं है। दो ही बदलने हैं। यह संकल्प
का खेल है इसलिए उस विजय के संकल्प के साथ इस युद्ध में
आगे बढ़ें। ल्ल
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