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इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने भारतीय संस्कृति को पुनर्प्रतिष्ठित करने और उसमें कालानुसार सुधार करने के लिए एक नए प्रयास का सूत्रपात किया है। पिछले दो सौ साल के अंग्रेजी शासन काल के दौरान जिस तरह इस संस्कृति को दुनिया में असभ्य, बर्बर, आदिम और मृतप्राय बताने का सफल कुचक्र चला और जिससे आज भी वाम चिन्तक प्रभावित हैं, उसे ठीक करने के लिए शायद हाल के दौर में यह पहला सार्थक प्रयास होगा। लेकिन यह जरूरत क्यों पड़ी कि हम अपनी ही संस्कृति को अपने ही लोगों के बीच 'पुनर्प्रतिष्ठापित' कर रहे हैं, इसे समझने की जरूरत है।
ठीक दो सौ साल पहले 1817 में एक साजिश हुई ईस्ट इंडिया और ब्रितानी शासन द्वारा। इस साजिश का उद्देश्य था ब्रितानी संसद को इस बात के लिए प्रभावित करना कि कंपनी भारत में अच्छा शासन दे रही है और यह बताना कि दरअसल कंपनी को व्यापार से जो लाभ होता है, उससे ज्यादा खर्च तो एक असभ्य, आदिम और बर्बर भारतीय समाज को शासित करने में लग जाता है। इस योजना के तहत कुल 6 खण्डों में एक किताब लिखी गई (या लिखवाई गई) जिसका नाम था 'द हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया'। इसके लेखक जेम्स मिल कभी भारत नहीं आये, किसी भी भारतीय भाषा को नहीं पढ़ा, उन अधिकारियों या तत्कालीन देशी या विदेशी विद्वानों से जो भारतीय समाज के बारे में अच्छी सोच रखते थे और लिखते थे, बात नहीं की। लेकिन इस किताब के जरिये बनाई गई भारत विरोधी छवि ने अगले दो सौ साल तक भारत के खिलाफ पूरी दुनिया में हीं नहीं, अपने देश के वाम बुद्धिजीवियों की सोच को भी आज तक प्रभावित रखा। जो कमी थी वह इस भारत विरोधी बौद्धिक अभियान में, अगले लगभग सौ साल बाद अमेरिकी लेखिका कैथेरिन मेयो ने 'मदर इंडिया' लिख कर पूरी कर दी। यह किताब अमेरिका और यूरोप में इतनी लोकप्रिय हुई कि सन् 1927 में इसके छपने की एक साल के भीतर 21 संस्करण निकाले गए और कोई दस लाख से ज्यादा लोगों ने इसे पढ़ा।
जेम्स मिल के बायोग्राफर ब्रूस माज्लिश के अनुसार मिल को रोजी- रोटी के लिए पादरी की नौकरी भी नहीं मिली तो वे इंग्लैंड पहुंचे। वहां पर स्थिति को समझते हुए इस पुस्तक पर काम शुरू किया और इस बीच अपने लेखों से ब्रिटिश संसद को भारत के बारे में नकारात्मक तथ्य देते रहे। इस पुस्तक के लिखने के पुरस्कार स्वरूप उन्हें कंपनी में ऊंचे ओहदे और ऊंची पगार वाली नौकरी मिली। यह वेतन अगले 17 साल में 800 पाउंड से बढ़ कर 2000 पाउंड हो गया और जेम्स ने अपने बेटे और जाने-माने राजनीतिक, दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल की भी कंपनी में नौकरी लगवा ली। बाप-बेटे का काम ब्रिटिश संसद और सत्ता की सोच को प्रभावित करना था ताकि कंपनी भारत पर शासन करती रहे। जब उनकी पुस्तक में भारतीय संस्कृति की कटु आलोचना को लेकर जेम्स मिल से यह सवाल किया गया कि बिना भारत गए या बगैर कोई भारतीय भाषा जाने उसके भारतीय संस्कृति पर इतने आक्षेप कैसे लगाये, तो जेम्स ने अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में ही अपनी इस कमी को कैसे नैतिकता का लबादा पहनाया, देखें: ''एक उपयुक्त रूप से शिक्षित व्यक्ति इंग्लैंड के अपने घर की अलमारी की किताबों से भारत के बारे में मात्र एक साल में उतनी जानकारी हासिल कर सकता है जितनी कोई व्यक्ति भारत में अपनी आंख-कान खोल कर पूरी जिन्दगी लगाने के बाद भी नहीं हासिल कर सकता। भारत न जाना और भारतीय भाषाएं न जानना ही हमारे पूर्वाग्रहग्रस्त न होने और हमारे वस्तुपरक होने की निशानी है।''
इस पुस्तक में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना भविष्य देखा और अगले 40 वर्ष तक (सन 1858 में भारत का शासन सीधे ब्रिटिश सरकार के पास आ गया) इसे 'प्रशासनिक बाइबल' सरीखी मान्यता दी गयी। हर अंग्रेज अफसर को जिसे भारत में भेजे जाने के लिए कंपनी नियुक्त करती थी, तीन महीने तक इस छह खण्डों की पुस्तकमाला को पूरी तरह आत्मसात करना होता था। लिहाजा जो भी अफसर भारत की सरजमीं पर कदम रखता था, उसका भाव यही होता था कि एक जाहिल, बर्बर, जंगली और मृतप्राय समाज पर शासन करना है। जब जेम्स मिल को पुरस्कार-स्वरूप कंपनी में ऊंचे पद वाली नौकरी दी गई तो उसी साल कंपनी एक अन्य व्यक्ति-थॉमस मुनरो-को मद्रास का गवर्नर बनाती है। इस अधिकारी को आज भी भारत में रैयतवाड़ी सिस्टम का जनक माना जाता है।
कई दशक भारत में रह कर अपने अनुभव के बाद मुनरो का क्या कहना था, यह एक अन्य अधिकारी और मशहूर भारतविद् मेजर-जनरल स्लीमन की पुस्तक 'रम्बल्स एंड रीकलेक्शन्स' में मिलता है।'' सर थॉमस मुनरो ने सही कहा था-मैं नहीं जानता कि भारत के लोगों का सभ्यीकरण (सिविलाइजिंग द पीपल ऑफ इंडिया) के क्या मायने होते हैं। हो सकता है, ये (भारतीय) सुशासन के सिद्धांत और व्यवहार में उतने परिपक्व न हों लेकिन अगर एक अच्छे कृषि तंत्र की बात हो, अगर बेहतरीन विनिर्माण की बात हो, अगर पढ़ने-लिखने के लिए स्कूलों की बात हो, अगर आम व्यवहार और आतिथ्य की बात हो और सबसे अधिक अगर महिलाओं के प्रति ईमानदार सम्मान की बात हो और अगर इन सब गुणों को सभ्य समाज का अपरिहार्य कारक माना जाता हो तो मैं यह कह सकता हूं कि हिन्दू यूरोप के लोगों के मुकाबले सभ्यता के स्तर पर कहीं भी पीछे नहीं हैं।''
स्लीमन को भारत के अंग्रेज अधिकारियों में सबसे सफल और जमीन पर काम करने वाला माना गया। स्लीमन ने अपनी इस किताब के पहले अध्याय में ही एक किस्सा लिखा है। सन् 1824 में बंगाल के बैरकपुर में भारतीय सैनिकों ने अंग्रेज अधिकारियों द्वारा किये जा रहे उत्पीड़न के खिलाफ सिपाही बिंदी तिवारी के नेतृत्व में बगावत की। लेकिन साथ ही यह भी प्रतिज्ञा ली कि किसी भी अंग्रेज बच्चे या महिला के साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं होगा। स्लीमन लिखते हैं- बगावत के माहौल में भी अंग्रेज अफसर अपनी पत्नियों और बच्चों को भारतीय सिपाहियों की देखरेख में छोड़ कर जंगलों में शिकार के लिए निकल जाया करते थे क्योंकि उन्हें भरोसा था कि भारतीय सैनिक महिलाओं और बच्चों की हिफाजत के लिए अपनी जान भी दे देंगे। जहां विश्व विख्यात चिन्तक हीगेल ने अपने जीवन के अंतिम काल में गीता की महानता को समझा और मुहर लगाई, वहीं जेम्स ने इसे पाश्चात्य मूल्यों की नकल बताकर धूर्तता को दर्शाया ।
ज्ञानमीमांसा में एक तर्क-दोष का जिक्र है जिसे कहते हैं—संवाद की पृष्ठभूमि से हट कर कुछ चुनिन्दा तथ्यों से अपने पूर्व-निर्धारित निष्कर्ष पर पहुंचाना (सेलेक्टिव अप्प्रोप्रिएशन ऑफ फैक्ट्स)। इन दोनों लेखकों ने अपनी पुस्तकों में इसका पूरा इस्तेमाल किया और भारत को एक ऐसा समाज बताया जहां सामान्य सभ्यता पीछे है और जिन्हें शासित करना अंग्रेजों के लिए बेहद मुश्किल है। यह कहते हुए दोनों लेखकों का प्रयास यह बताने का रहा कि अहसान है अंग्रेजी हुकूमत का इस भारतीयों को जीना सिखा रही है।
पुस्तक माला के द्वितीय खंड में हिन्दू संस्कृति की चर्चा है और इसे कई जगहों पर घटिया बताया गया। जेम्स का मानना है कि महाभारत ऐसे कई ग्रन्थ अंग्रेजों के ज्ञान, जीवन मूल्य, आदर्शों को लेकर मात्र 300 साल पहले लिखे गए। गौर करने की बात है कि आर्यभट्ट ने खगोल शास्त्र और सौर मंडल के ग्रहों के चलने की पूरी अकाट्य गणना पांचवीं सदी में की थी, जिसे ईरानी विद्वान अलबेरुनी ने 500 वर्ष बाद भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए अपने देश के विद्वानों को बताया लेकिन जेम्स इसको भी नकारता है। यह अलग बात है कि लगभग 1000 साल बाद भी आर्यभट्ट को सही ठहराते हुए जब गैलीलियो और कॉपरनिकस सूर्य को स्थिर और पृथ्वी के घूमने की बात कहते हंै तो यूरोप के शासक उन्हें सजा देते हैं क्योंकि यह बात ईसाइयों की 1500 साल पुरानी पांथिक अवधारणा की चूलें हिला देती है। फिर जंगली और बर्बर कौन हुआ?
आज समय आ गया है जब भारत के विद्वान फिर से भारतीय संस्कृति और ज्ञान को पुनर्प्रतिष्ठापित करें और पश्चिमी वितंडावाद से प्रभावित भारत के वामपंथी बुद्धिजीवियों को हकीकत से रू-ब-रू करायें। -एन. के. सिंह
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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