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इतिहास के पन्नों से
पाञ्चजन्य
वर्ष: 14 अंक: 5
8 अगस्त ,1960
-: परशुराम गोस्वामी :-
जबसे विद्रोही नागा नेता ए. जेड फिजो भारत सरकार को चकमा देकर लंदन पहुंचा है तब से असम में नागा विद्रोही भी अधिक सक्रिय हो उठे हैं। इसके पूर्व कुछ महीनों से वहां अपेक्षाकृत शांति थी। दिनांक 26 जुलाई, 1960 को फिजो ने लंदन के पत्रकार सम्मेलन में अपनी योजना स्पष्ट की। उसके शब्द ध्यान देने योग्य हैं- हम नागा लोग ईसाई हैं। हम एक पृथक राष्ट्र चाहते हैं।
इस संबंध में विशेष बात यह है कि जिस दिन असम के तथा कथित शांतिप्रिय नागा नेताओं का शिष्टमंडल दिल्ली पहुंचा और पंडित नेहरू के सामने एक पृथक नागा राज्य की मांग रखी, उसी दिन फिजो ने लंदन में पत्रकार सम्मेलन का आयोजन किया। इस योजना से लाभ यह हुआ कि विश्व भर के समाचारपत्रों में एक ही दिन दोनों समाचार प्रकाशित हुए। भारत में दिनांक 28 जुलाई को सब समाचार पत्रों ने दिल्ली और लंदन के समाचार मुखपृष्ठ पर छापे। इस प्रकार नागालैंड की मांग का पर्याप्त प्रचार हो गया। इससे यह भी सिद्ध हो गया कि भारत स्थित नागाओं और फिजो में लगातार संपर्क है।
नागा समस्या की पृष्ठभूमि
असम प्रदेश में नागा पहाडि़यों के सघन, दुर्गम भूभाग पर निवास करने वाले 4 लाख लोग नागा कहलाते हैं। गत शताब्दी तक वे असभ्य थे, मनुष्य का शिकार करके नर मुंड की माला पहन बड़े गौरव का काम समझते थे। अंग्रेज सरकार ने बड़ी चालाकी से उन्हें ईसाई बनाने की दृष्टि से यह नियम बना दिया कि नागा पहाडि़यों में स्कूल, अस्पताल आदि केवल ईसाई मिशनरी ही खोल सकेंगे। अन्य भारतीय इस भाग में प्रवेश नहीं कर सकेंगे। असम राज्य का गवर्नर स्वयं इन पहाडि़यों के प्रशासन की देखरेख करेगा। असम विधान सभा का इस संबंध में कोई अधिकार न होगा। परिणामत: बड़ी संख्या में ईसाई मिशनरी वहां पहुंचे। गत 50-60 वर्ष से वहां ईसाइयत का अबाध प्रचार हो रहा है। फलत: नागा लोग बड़ी संख्या में ईसाई हो गये। आज 4 लाखा नागाओं में से 3 लाख ईसाई हैं। विदेशी पादरियों के प्रभाव के कारण वे अपने को भारत की अपेक्षा इंगलैंड और अमरीका के अधिक समीप समझते हैं।
पृथक राज्य की मांग
अंग्रेजी शासन काल में नागाओं ने कभी पृथक राज्य की मांग नहीं की। स्वतंत्र भारत में उन्होंने इसकी आवश्यकता समझी। स्पष्टत: यह एक राजनीतिक चाल है, जिसके प्रति इंगलैंड तथा कुछ अन्य पश्चिमी राष्ट्रों में पर्याप्त सहानुभूति है। भारत-भूमि पर पाकिस्तान के अतिरिक्त एक और अड्डा पश्चिमी राष्ट्रों को मिल जाय, यही इस मांग की राजनीतिक भूमिका है।
पृथक राज्य की मांग के लिए नागा लोग निम्न कारण बताते हैं- हमारी संस्कृति, पंथ, रहन-सहन आदि असम या भारत के किसी भी भाग के निवासियों से भिन्न है। उसे अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए हमें पृथक राज्य चाहिए, जहां अन्य लोगांें का हस्तक्षेप न हो। कांग्रेस सरकार की भाषावार प्रांत रचना नीति से नागाओं का बड़ा उत्साह बढ़ा है, यह नागाओं की इस मांग से स्पष्ट झलक रहा है।
भारत में पृथक इस्लामी राष्ट्र की भावना जगाई जा रही है
-: अवनीन्द्र कुमार विद्यालंकार:-
देश विभाजन के समर्थकों में से अनेकों का ख्याल था कि पाकिस्तान बन जाने पर शेष भारत में हिन्दू-मुस्लिम समस्या का अंत हो जाएगा। पाकिस्तान से विशेष भारत की निर्बाध प्रगति होती रहेगी, सांप्रदायिक समस्याएं उसके मार्ग में बाधक न होंगी। लेकिन पिछले तेरह साल का अनुभव बता रहा है कि यह धारणा
गलत थी।
विष का इंजेक्शन
कुछ लोगों का विचार था कि पाकिस्तान बनने से उर्दू अब किसी क्षेत्र की भाषा नहीं रही। अत: यह भारत में अपनी मौत आप मर जाएगी। परंतु यह विचार भी मिथ्या निकला। उर्दू को जीवित रखने, फारसी-अरबी लिखने का यत्न प्रारंभ से ही किया जाता रहा। भारत भर में बिखरे मुसलमानों को इस्लाम के सूत्र के बदले भारत में, संयुक्त करना संभव न था, क्योंकि विभाजन से क्षत-विक्षत भारत की तीव्र रोष भरी आंखें न उस पर पड़तीं और न उसको भारत राष्ट्र के लिए वैधानिक माना जाता किंतु उर्दू को अल्प संख्यकों की भाषा बनाकर उसके लिए विशेष अधिकार और संरक्षण प्राप्त करना संभव था। भारत में रहे शेष मुसलमानों ने यही अपनाया। इसमें उनको प्रधानमंत्री की सहायता प्राप्त हुई। मुस्लिम जमात का वोट पाने के अभिलाषी राजनीतिक दलों का भी उनको समर्थन प्राप्त हुआ। यही नहीं, उनमें होड़ दिखाई दी कि कौन अधिक जोर से उर्दू का समर्थन करता है। कम्युनिस्ट पार्टी और उसके सह यात्रियों ने तो यहां तक कहा कि हिंदी तो कुछ ही अर्से की भाषा है। उर्दू बहुत प्राचीन और पुरानी भाषा है और यही आज मानी जानी चाहिए। उर्दू कान्फ्रेंस का प्रधानमंत्री ने यदि उद्घाटन किया तो प्रजा समाजवादी नेता श्री त्रिलोकी सिंह राष्ट्रपति की सेवा में एक शिष्ट मंडल लेकर उर्दू की ओर से फरियाद करने के लिए दौड़े-दौड़े नई दिल्ली पहुंचे। डा. जाकिर हुसैन के नेतृत्व में लाखों मुसलमानों के हस्ताक्षर लेकर राष्ट्रपति के पास भेजा गया और मांग की गई कि पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार में उर्दू दूसरी भषा घोषित की जाए।
दिशाबोध
अनुच्छेद 370 को समाप्त करना ही चाहिए
कुछ लोग कश्मीर को शेष भारत के अन्य प्रान्तों के मुकाबले अधिक स्वायत्तता की वकालत करते हैं। यह विचार पृथक्तावादी तथा भारत की राष्ट्रीय एवं संवैधानिक मान्यताओं के खिलाफ है। हम असंदिग्ध रूप से स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि भारतीय जनसंघ और देश की जनता ऐसे किसी भी कदम को बर्दाश्त नहीं करेगी जिसमें भारत के साथ कश्मीर के पूर्ण एकीकरण की प्रक्रिया को उलटा जाय। यद्यपि संविधान का अनुच्छेद 370 हमारी अपनी व्यवस्था है तथा उसके कारण कश्मीर की भारत संघ के अटूट अंग होने के विषय में किसी भी प्रकार की अनिश्चितता नहीं पैदा होती, फिर भी वह एक अपवादजनक प्रावधान है, उसे समाप्त कर देना चाहिए। उसका अब कोई व्यावहारिक महत्व नहीं बचा है, किन्तु उसकी समाप्ति का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बहुत लाभ होगा। कश्मीर के बारे में जो अटकलबाजियां लगायी जाती हैं, वे सब बंद हो जायेंगी। —पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-7, पृ. 83)
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