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जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में कन्हैया प्रकरण के बाद से देश में शहरी मार्क्सवाद पर बहस तो चलती ही रहती है। जादवपुर विश्वविद्यालय तथा अन्य स्थानों पर हुई घटनाएं इसे आगे बढ़ाती रही हैं। इस बहस का एक अनदेखा पहलू है, दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी)। एनएसडी के तृतीय वर्ष के विद्यार्थी पढ़ाई पूरी होने पर प्रायोगिक परीक्षा के रूप में एक-एक नाटक तैयार करते हैं, जिसे डिप्लोमा प्रस्तुति कहा जाता है। डिप्लोमा-नाटक की प्रस्तुति के आधार पर अध्यापक उसे अंक देते हैं। 12 जुलाई, 2017 को तृतीय वर्ष के विद्यार्थी देवेंद्र अहीरवार ने 'डीरेल्ड' नाम से ऐसी ही एक सार्वजनिक प्रस्तुति दी। इस डिप्लोमा प्रस्तुति तथा बीते कुछ वर्षों में डिप्लोमा-नाटक से स्पष्ट पता चलता है कि एनएसडी के अध्यापक 'शहरी मार्क्सवाद' पढ़ा रहे हैं।
'डीरेल्ड' में कुछ समय पहले छत्तीसगढ़ के सुकमा में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के जवानों के नरसंहार का समर्थन इसे गहराई से रेखांकित करता है (नाटक की सीडी एनएसडी के संग्रहालय में उपलब्ध है)। विवरणिका में निर्देशक अपने नाटक को 'धर्म एवं संस्कृति' के नाम पर गुंडागर्दी करने वालों के लिए एक चुनौती बताता है। वह कहता है, 'आज देश की वर्तमान स्थिति और हालात बहुत ही खराब हैं, जहां हर बात पर देश भक्ति का सबूत मांगा जा रहा है और दूसरों की निजी जिंदगी को मजाक समझा जा रहा है। दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के खान-पान, रहन-सहन पर हर तरह से बेडि़यां कसी जा रही हैं। पंथ के आगे संविधान का कद छोटा करने की लगातार कोशिश की जा रही है। हालांकि 'धर्म एवं संस्कृति' के नाम पर गुंडागर्दी करने वालों को चुनौती देने वाला यह निर्देशक अपने नाटक में विचारधारा के स्तर पर किसी विमर्श को प्रस्तुत नहीं कर सका। किसी विमर्श के अभाव में निर्देशक ने नाटक में अध्यापकों तथा दर्शकों के सामने अभिनेताओं के जरिये खुलेआम हस्त मैथुन का प्रदर्शन, भद्दी गालियां दिलवाना ही उचित समझा, जबकि दर्शक दीर्घा में परिवारों के साथ कम उम्र बच्चों व अन्य लोग थे। क्या अब देश में नक्सल क्रांति यौन प्रदर्शन, भद्दी गालियों के रथ पर सवार होकर आएगी? प्रश्न यह है कि एनएसडी में विद्यार्थियों को किस तरह की शिक्षा मिल रही है, जहां नाटक का अर्थ अध्यापकों को खुश करने के लिए सार्वजानिक रूप से ऐसे दृश्य पेश करना भर है? कलाकार तो संवेदनशील माने जाते हैं। क्या एनएसडी विद्यार्थियों की संवेदना को इस तरह खत्म कर देता है कि उन्हें माता-पिता और परिवारजनों के सामने ऐसा करने में कुछ गलत महसूस नहीं होता? ऐसी शिक्षा देने वाले संस्थान के हर विद्यार्थी पर भारत सरकार सालाना करीब एक करोड़ रुपये खर्च करती है!
एनएसडी में एक सत्र में तीनों वर्ष के करीब 81 विद्यार्थी पढ़ते हैं। ऐसी शिक्षा के लिए यह खर्च क्या कुछ ज्यादा और अनावश्यक नहीं है? यह वही एनएसडी है, जिसमें 2017 के प्रारंभ में प्राध्यापिका त्रिपुरारी शर्मा के निर्देशन में तृतीय वर्ष के विद्यार्थियों द्वारा प्रदर्शित नाटक 'ट्रेटर्स' की करीब 16 पृष्ठों वाली विवरिणका में 250 से अधिक गलतियां थीं! एनएसडी खुद को राष्ट्रीय स्तर का शैक्षणिक संस्थान मानता है, लेकिन एक विवरणिका की प्रूफ-रीडिंग तथा अनुवाद भी ठीक से नहीं हो सकता, तो ऐसे संस्थान को स्वयं को 'राष्ट्रीय स्तर का शैक्षणिक संस्थान' मानने का क्या अधिकार हो सकता है? संस्थान विद्यार्थियों को किस तरह की शिक्षा दे रहा है, यह समझने में किसी को दिक्कत नहीं हो सकती। एनएसडी के अन्य नाटक देखने पर यह दिक्कत और भी कम हो जाती है। यदि एनएसडी किसी नाटक के जरिये किसी विदेशी निर्देशक को भारत के राजनीतिक मामलों में दखल देने के लिए आमंत्रित करने लगे, तो यह प्रश्न उठना अस्वाभाविक नहीं है कि क्या एक विदेशी को हमारे अंदरूनी मामलों में दखल देने का अधिकार हो सकता है? साथ ही, यह प्रश्न यह भी उठता है कि किसी नाटक की विषय-वस्तु के लिए कौन जिम्मेदार होता है? विशेषज्ञ नाटक की विषय-वस्तु के लिए निर्देशक को जिम्मेदार मानते हैं। अगर नाटक किसी संस्थान ने करवाया है, तब वे संस्थान के प्रमुख को जिम्मेवार मानते हैं। किसी संस्थान के दैनंदिन कार्यों का प्रमुख उस संस्थान का निदेशक होता है और संस्थान का नीति-निर्धारक उस संस्थान की समिति का अध्यक्ष होता है।
अप्रैल 2017 के प्रथम सप्ताह में एनएसडी के तृतीय वर्ष के विद्यार्थियों द्वारा प्रस्तुत नाटक 'एलिय-न-एशन' ये सारे प्रश्न खड़े करता है। यह एक 'डिवाइज्ड' नाटक (आशु प्रस्तुति) है, जो संभवत: 1989-1990 के एक अमेरिकी टीवी धारावाहिक से प्रेरित है। इसके निर्देशन के लिए जर्मनी की नाट्य-निर्देशिका सोफिया स्टेप्फ को आमंत्रित किया गया था, जो भारतीय राजनीति पर कटाक्ष करने वाले नाटकों के निर्देशन के लिए चर्चित रही हैं। नाटक के विवरणिका/पोस्टर पर भी 'अंतिम वर्ष छात्रों एवं सोफिया स्टेप्फ द्वारा तैयार आशु-प्रस्तुति' लिखा है। हालांकि, इसी विवरणिका/पोस्टर में निर्देशन का श्रेय सोफिया को दिया गया है। तो इस नाटक की निर्देशिका सोफिया हैं या नहीं? एनएसडी ने उन्हें जो भुगतान किया, वह नाटक के 'निर्देशन' के लिए था या 'आशु-प्रस्तुति' तैयार करने के लिए? उनके वीजा के लिए एनएसडी ने विदेश मंत्रालय को जो पत्र लिखा, उसमें कैसे शब्द प्रयुक्त किए गए होंगे? इस नाटक पर दिल्ली के वरिष्ठ समीक्षकों की टिप्पणियां नाटक से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।
सर्वप्रथम, एनएसडी ने इस नाटक को समीक्षकों, पत्रकारों और आमजन की निगाहों से बचाने का प्रयास किया। अमूमन संस्थान नाटक देखने के लिए समीक्षकों को निमंत्रण भेजता है, लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं किया गया और न ही अखबारों में विज्ञापन दिया गया। संस्थान का तर्क था कि डी.ए.वी.पी. के जरिये विज्ञापन देने की समस्या के कारण ऐसा नहीं किया गया (जबकि अभी तक सभी नाटकों के विज्ञापन आते रहे हैं)! पत्रकारों का आरोप था कि निर्देशिका का साक्षात्कार लेने से रोकने की भी कोशिश की गई। अगर ऐसा है तो यह बेहद गंभीर आरोप है, क्योंकि यह नाटक 'आजादी' की बात करता है और प्रश्न करने की आजादी तो इस देश के पत्रकारों को भी है…या नहीं? क्या एनएसडी को पत्रकारों की आजादी को रोकने का अधिकार है? या क्या यह शहरी मार्क्सवाद की आवश्यकता ही है कि केवल अपनी बात कही जाए और किसी के प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया जाए? एनएसडी के निदेशक, इसकी समिति तथा समिति के अध्यक्ष को भी इन प्रश्नों का उत्तर देना चाहिए। सरकारी संस्थान होने के नाते इन प्रश्नों का उत्तर देने की जिम्मेवारी संस्कृति मंत्रालय के अधिकारियों की भी है।
इनकी जिम्मेवारी और अधिक हो जाती है, क्योंकि सोफिया ने नाटक में प्रयुक्त सामग्री की जिम्मेवारी लेने से ही इनकार किया। उनका कहना था कि उनकी जिम्मेवारी केवल नाटक की रूपरेखा की निगरानी की थी। उन्होंने कहा, ''यह विद्यार्थियों की आशु प्रस्तुति है। मुझे तो हिन्दी आती भी नहीं। इसमें प्रयुक्त सामग्री के लिए विद्यार्थी ही जिम्मेवार हैं।'' इस नाटक के बारे में उनका एक वक्तव्य बेहद अहम है- ''नाटक तैयार करने के लिए इन असमानताओं या भिन्नताओं का प्रयोग मुझे तर्कसंगत ही लगा। यानी भारतवासियों के बीच की असमानताओं या भिन्नताओं पर नाटक करना एक विदेशी के लिए तर्कसंगत है! क्या कोई और देश एक विदेशी को इसकी अनुमति देगा? क्या यह तर्क उन तमाम विदेशी पर्यटकों को वैधता प्रदान नहीं करता, जो भिखारियों की तस्वीरें ले जाकर अपने देश में भारत के पिछड़ेपन का ढिंढोरा पीटा करते हैं!
जैसा कि कुछ विद्वानों ने बताया कि यह एक 'राजनीतिक' नाटक है, तो एक और प्रश्न उठता है। क्या किसी विदेशी को हमारे अंदरूनी मसलों में दखल देने का अधिकार है? किसी विषय पर टिप्पणी करने का अधिकार किसी को भी है। अमेरिका में ट्रंप के जीतने पर भारत और रूस सहित दुनियाभर के लोगों ने अपने-अपने विचार दिए। लेकिन उसी ट्रंप ने 2016 में अमेरिका में हुए चुनावों में दखल देने पर रूस के खिलाफ जांच शुरू कराई, जिसके कारण कतिपय अधिकारियों को इस्तीफा देना पड़ा।
एक समुदाय को उत्पीडि़त और दूसरे समुदाय को उत्पीड़नकारी दिखाते हुए किसी विदेशी नाट्य-निर्देशक द्वारा राजनीतिक-सामाजिक मुद्दे पर भारतीयों को प्रभावित करने की एकपक्षीय कोशिश को देश के अंदरूनी मामलों में दखल ही तो माना जाएगा! नाटक के दौरान इन्टरनेट पर प्लेकार्ड के जरिये संवाद करना भारत के समकालीन संदर्भों में एक विशिष्ट अर्थ रखता है। सोफिया इससे अनभिज्ञ नहीं हैं, क्योंकि उन्हीं के शब्दों में, 'मेरा कार्य राजनीतिक रंगमंच के दायरे में अधिक आता है।' वरिष्ठ रंगसमीक्षक रवींद्र त्रिपाठी ने इस नाटक को 'हिंदुत्व की राजनीति को ललकारता एनएसडी का नया नाटक' की संज्ञा दी है। वे आगे कहते हैं, ''इसमें योगी आदित्यनाथ का नाम लेकर हिंदुवादी राजनीति की कड़ी आलोचना की गई है। यह बताया गया है कि हिंदुत्ववादी ताकतें राम का नाम लेकर एक खास कौम के खिलाफ घृणा का प्रचार कर रही हैं। तीस साल से अधिक समय से एनएसडी के नाटक देख रहा हूं, पर हिंदुत्व की राजनीति को इस तरह ताल ठोक कर चुनौती देने वाला नाटक आज तक नहीं देखा। जो काम जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय नहीं कर पा रहे हैं उसे एनएसडी ने कर दिखाया है। यह कहना और बताना कि जो लोग आजादी के नारे के खिलाफ होते हैं, वे दरअसल मर्दवादी और नारी विरोधी हैं- कम साहसिक काम नहीं। ऐसे समय में जब देश में हिंदुत्ववादी राजनीति का डंका जोर से बज रहा है एनएसडी ने इसके खिलाफ जोरदार बिगुल बजाया है। इस बिगुल को सुनिए।'' अगर एक सरकारी संस्थान ऐसा करने के लिए किसी विदेशी को आमंत्रित करता है, तो उसके परिणामों का जिम्मेवार संस्थान होगा, न कि विद्यार्थी। जहां तक बौद्धिक-राजनीतिक संवाद की बात है, जीपी देशपांडे लिखित नाटक 'रास्ते' भी एक राजनीतिक नाटक है। इसकी सबसे बड़ी खासियत है इसका संतुलित दृष्टिकोण। यह दोनों पक्षों के तर्कों को पेश करता है और दर्शकों की बुद्धि पर भरोसा करते हुए उन्हें अपनी राय बनाने के लिए स्वतंत्र छोड़ देता है। लेकिन दूसरे पक्ष की बात सुने बिना किसी धर्म/समाज/संस्कृति/विचारधारा पर एकपक्षीय प्रहार कहां तक उचित कहा जा सकता है? किसी संस्थान को इस प्रकार के राजनीतिक पक्षपात को फैलाने का अधिकार हो सकता है? क्या एक ही पक्ष के आलाप को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहा जा सकता है?
एक प्रश्न और। पढ़ाई के दौरान विद्यालय के निर्देशानुसार किए गए कार्य के लिए क्या किसी विद्यार्थी को व्यक्तिगत रूप से जिम्मेवार ठहराया जा सकता है? यदि नहीं, तो क्या सोफिया द्वारा इस नाटक में प्रयुक्त सामग्री की जिम्मेवारी एनएसडी के विद्यार्थियों पर डालना उपयुक्त और तर्कसंगत हो सकता है? आईआईटी दिल्ली के एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त वरिष्ठ प्राध्यापक प्रो. बी.एल. खंडेलवाल विद्यालय के निर्देशों के अनुसार किए गए काम के लिए किसी भी प्रकार की जिम्मेवारी विद्यार्थियों पर डालने को अध्यापकों का घोर अनुचित व्यवहार मानते हैं। उनका कहना है कि जिस नाटक के सामग्री की जिम्मेवारी छात्रों पर डाली जा रही है, वह एक अत्यंत औसत दर्जे के नुक्कड़ नाटक के स्तर का नाटक था, जिसमें एनएसडी की ट्रेड मार्क अश्लील गालियों के स्थान पर भद्दे हाव-भाव थे! हल्के संवादों की बौछार क्या कहती है? कलात्मकता का कौन सा उच्च स्तर एनएसडी इन गालियों और भद्दे हाव-भाव के सहारे हासिल करना चाहता है! एनएसडी के वर्तमान अध्यक्ष और निदेशक एनएसडी के ही विद्यार्थी हैं। रतन थियम के काम की उच्च कलात्मकता तो अनुपम मानी जाती है! वामन केंद्रे का भी एक नाटक 'रणांगण' को देखकर मैं करीब डेढ़ दशक पहले उनकी कला का प्रशंसक बना था। लेकिन एनएसडी का प्रशासक बनने के बाद क्या इन दोनों के लिए कलात्मकता का अर्थ केवल गालियां, यौन मुद्राएं और भद्दे हाव-भाव भर रह गए हैं? कैसे कलात्मक स्वतंत्रता के नाम पर यह बीमार मानसिकता स्वीकार्य हो सकती है? रतन जी और वामन जी, क्या कहीं कोई सीमा-रेखा खींची जानी चाहिए? अपने कर्तव्य से विमुख होना किसी भी प्रशासक के लिए लज्जा का विषय नहीं होगा क्या?
इस वर्ष मई में एनएसडी के एक पुराने स्नातक सीआर जाम्बे द्वारा दूसरे वर्ष के विद्यार्थियों के साथ किए गए कालिदास के विश्वविख्यात नाटक 'मालविकाग्निमित्रम्' की कथा को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने की प्रक्रिया में यह एक बार फिर उभर कर सामने आई। नाटक की विवरणिका में जाम्बे कहीं भी कालिदास और उनके साहित्य की महानता की चर्चा नहीं करता, बल्कि भूषण भट्ट द्वारा नायक राजा अग्निमित्र को एक विदूषक के रूप में चित्रित कर देने पर ही प्रसन्नता प्रकट करता हुआ नजर आता है। भारतीय संस्कृति को तोड़-मरोड़ कर और घटिया दर्जे का चित्रित करने का एनएसडी का यह कोई पहला या आखिरी प्रयास नहीं था। एनएसडी की भूतपूर्व अध्यापिका कीर्ति जैन द्वारा निर्देशित गुजरात में भूकंप की घटना पर आधारित 2001 का नाटक 'तिनका तिनका' इसका एक और उदाहरण है। इसमें एक हनुमान भक्त को हिन्दू होने पर इतनी ग्लानि होती है कि क्रोध में आकर अपने इष्टदेव की मूर्ति ही उठाकर बाहर फेंक देता है! करीब तीन वर्ष पहले एनएसडी रंगमंडल के लिए निर्देशित नाटक 'गजब तेरी अदा' में भी देश की आज की परिस्थितियों में एनएसडी के निदेशक वामन केंद्रे जवानों को युद्ध से विरत करने के लिए उनकी पत्नियों द्वारा उन्हें 'काम' से वंचित रखने की युक्ति का सहारा लेते हैं (वामन द्वारा इस नाटक के मूल लेखक का नाम पत्रक में नहीं देने पर भी काफी विवाद हुआ था)। एनएसडी के नाटकों से ऐसे कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं।
क्रांति के पुरोधा एनएसडी के यही विद्यार्थी जब पढ़ कर बाहर निकलते हैं, तो क्रांति की बात भूल कर सीधे मुंबई की फिल्म नगरी का रुख करते हैं। वहां कुछ समय गुजारने और असफल होकर दिल्ली वापस लौटने पर ये क्रांतिकारी रंगकर्मी सीधे एनएसडी निदेशक के पास जाकर कुछ काम मांगते हैं। निदेशक के साथ संबंधों के आधार पर एनएसडी द्वारा आयोजित किए जाने वाले भारंगम जैसे रंग महोत्सवों में इन्हें काम दिया जाता है।
इन्हें एनएसडी की अन्य विभिन्न गतिविधियों, जैसे एनएसडी के प्रथम, द्वितीय व तृतीय वर्ष के विद्यार्थियों द्वारा किए जाने वाले नाटकों में विभिन्न क्षेत्रों में सहायक, देश के विभिन्न हिस्सों में आयोजित की जाने वाली कार्यशालाएं, बिस्तार पाठ्यक्रम इत्यादि में भी काम दिया जाता है। जब से एनएसडी के पास भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की प्रोडक्शन ग्रांट का वितरण आया है, तब से एनएसडी के स्नातकों ने दिल्ली में नाटक करने शुरू किए हैं। इसके पहले दिल्ली में रहने वाले एनएसडी के कुछ पुराने, वरिष्ठ स्नातक ही यहां नाटक करते थे। पहले देश के विभिन्न रंग-समूहों को दी जाने वाली सैलरी ग्रांट भी एनएसडी को दे दी गई थी, परन्तु अब किन्हीं कारणों से यह उससे वापस ले ली गई है। हम केवल आशा कर सकते हैं कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जे.एन.यू. या जादवपुर यूनिवर्सिटी में परिवर्तित नहीं होगा।, क्योंकि, ऐसा परिवर्तन प्रजातंत्र के लिए और हिन्दुस्थान के रंगकर्म के विद्यार्थियों के लिए भी एक अभिशाप साबित होगा। किसी शिक्षण संस्थान को राजनीति का अखाड़ा बना देना किसी भी शिक्षक के लिए एक घोर निंदनीय कार्य ही कहा जा सकता है। प्रजातंत्र में संवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबसे महत्वपूर्ण पक्ष होते हैं, लेकिन तभी जब वे दोनों पक्षों के लिए हों, न कि किसी एक पक्ष पर हमला करने के लिए प्रयोग किए जाएं। ल्ल
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