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रूचं नो धेहि ब्राह्णेषु रूचंराजसु नस्कृधि
रूचं विश्येषु शूदे्रषु मयि धेहि रूचा रूचम्॥
यजुर्वेद:18.48)
अर्थात् हमारे ब्राह्मणों में प्रकाश, क्षत्रियों में तेजस्विता, वैश्यों में क्रांति तथा शूद्रों में दीप्ति का प्रसार करो। मुझमें भी यह दीप्ति कूट-कूट कर भर दो।
भारतीय ग्रंथ यथा वेद, पुराण, संहिता, श्रुति, स्मृति, वेदांग, वेदांत, पुराण, टीका, गीता, रामायण, महाभारत, वांगमय, भाष्य, इत्यादि हमारे मार्गदर्शक ग्रंथ रहे हैं जिनके कुछ संदर्भों को उठाकर औपनिवेशिक अभिकरणों द्वारा हमारे समाज को गुमराह करने की भरपूर कोशिश की जाती रही है। हम 'ब्रेनवाश्ड रिपब्लिक' पुस्तक के दोनों लेखकों नीरज अत्री एवं मुनीश्वर सागर की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं जिन्हांेने गंभीरता से इन प्रश्नों की प्रस्तुति मेंं पर्याप्त साक्ष्य संग्रह किए हैं। मैं भी उनके इस प्रयास को आगे बढ़ाने हेतु प्रयासरत हूं। भारतीय चिंतन परम्परा को मोटे तौर से तीन हिस्से में बांटकर मैं देखता हूं तो मुझे प्राचीनकाल मंे मन-केंद्रित समाज दिखाई पड़ता है, मध्यकाल में मनु-केंद्रित प्रतीत होता है एवं आधुनिक काल मानव-केंद्रित दृष्टिगोचर होता है। मन की व्याख्या को भारतीय दर्शन में विभिन्न रूपों में प्रख्यापित किया गया है। मन को निर्मल बनाने में आनुष्ठानिक आयोजनों की भी अत्यधिक चर्चा मिलती है। मन शब्द का अंग्रेजी रूपांतरण हार्ट, माईण्ड या सोल कतई नहीं हो सकता। अत: इसके समानांतर पाश्चात्य दुनिया में कोई शब्द है ही नहीं। वैसे भी मनुष्य शब्द की निर्मिति मन शब्द से ही हुई है। पश्चिमी अवधारणा में जीवन को एक रेखीय माना जाता है एवं हमारी अवधारणा में जीवन चक्रीय है।
हम यह मानते रहे हैं जहां गति है, वह व्यवस्था चक्रीय होती है। इसलिए अपने यहां इतिहास सृजन नहीं, बल्कि इतिहास की पुनरावृत्ति ही अवलोकित होती है। जिस समाज ने परम्परा और आधुनिकता में संतुलन सीखा है, वही समाज निर्बाध गति से आगे बढ़ा है। हमें यह स्वीकारना चाहिए कि परम्परा और आधुनिकता द्विभाजक नहीं है, अपितु इनके बीच अनवरत अविच्छिन्नता (उङ्मल्ल३्रल्ल४४े) की स्थिति है। वैसे भी परम्परा एक सापेक्ष शब्द है। यदि किसी समाज के लिए कोई भी चीज परम्परागत है तो दूसरे किसी समाज के लिए आधुनिक भी हो सकती है। हमारे ऐसे कई तौर-तरीकों को विभिन्न देशों द्वारा अपनाया जा रहा है। यदि भारतीय समाज तथा संस्कृति की कुछ खास विशेषताओं को ध्यान करें तो मुख्य रूप से चार बातें सामने आती हैं- पहला, पदानुक्रम (ऌ्री१ं१ूँ८) है, जिसमें वर्ण से लेकर जाति व्यवस्था तक पदानुक्रम का नियम देखा जा सकता है। उसमें विशेषकर चार संख्या पर जोर होता है जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। वैसे ही धर्म, अर्थ काम और मोक्ष पुरुषार्र्थ के लिए चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम तथा युग भी चार सतयुग, द्वापर, त्रेता एवं कलयुग हैं।
दूसरा साकल्यवाद (ऌङ्म'्र२े) है जिसके अंतर्गत हम बिंदु से सिंधु की बात करते हैं। इसमें हम व्यक्ति का स्थान, परिवार, समाज, जाति, गोत्र, मूल, धर्म एवं ब्रह्मांड से जुड़ा हुआ मानते हैं और प्रत्येक व्यक्ति को निश्चित सामाजिक मूल्यों के अनुसार ही जाना जाता है। व्यक्तिवादिता (कल्ल्रि५्रि४ं'्र२े) का भारतीय परम्परा-समाज में भी महत्व रहा है।
अनवरतता (उङ्मल्ल३्रल्ल४्र३८) भारतीय संस्कृति की परिवर्तन की प्रक्रिया का नियम है जो सदैव चक्रीय होता है। समाज मंे काल परिवर्तन एक वर्तुल गति से होता है। इससे विश्व की निरंतरता का बोध होता है। भारतीय दर्शन में सिर्फ निरंतरता नहीं, बल्कि जीवों की निरतंरता की भी बात की गई है। हम यह मानते हैं कि सभी जीव नश्वर और परमात्मा अमर है। प्रत्येक जीव के अंतर्गत आत्मा के रूप में उस परमात्मा का निवास होता है। जन्म, मृत्यु, आत्मा, परमात्मा पुनर्जन्म इन सभी अवधारणाओं से निरतंरता का भाव प्रकट होता है।
चौथा इन्द्रियतीतता (ळ१ंल्ल२ूील्लिील्लूी) है। इसके अंतर्गत चार पुरुषाथार्े में से दो धर्म और मोक्ष का जीवन में अलौकिक उद्देश्य है, जबकि दो अर्थ एवं काम लौकिक उद्देश्य हैं। इन सभी उद्देश्यों से मोक्ष की प्राप्ति परम उद्देश्य मानी गयी है। व्यक्ति के जीवन में संन्यास एवं वानप्रस्थ आश्रम के विधान के पीछे इसी इन्द्रियतीतता की बात दिखती है। जीवन में सद्कर्मों के द्वारा मुक्ति के मार्ग
पर अग्रसर होना भी एक प्रकार की इन्द्रियतीतता है।
इन चारों को आत्मसात करना ही भारतीयता एवं हिंदू दर्शन का मुख्य उद्देश्य हम मानते हैं। आक्रांताओं ने इसकी गहराई को बिना सोचे-समझे जो नये-नये आख्यान गढ़े, उनका हमारा समाज शिकार होता गया। हमारे समाज ने ज्ञान तथा नवनीत ब्राह्मणों को दे रखा था। इसलिए सर्वाधिक पीड़ा इसी समाज के लोगों ने झेली। आज भी ब्राह्मणवाद या मनुवाद जैसे नाम से मनगढं़त आरोपों से हमारी संस्कृति को तुच्छ दिखाने की साजिश की जाती है। 'ब्रेनवाश्ड रिपब्लिक' में जिन प्रसंगों का उल्लेख किया गया है, वे हम सभी के लिए मर्मस्पर्शी एवं अनुकरणीय हैं। हमारे यहां 'एकता में विविधता' के सिद्धांत को पलटकर 'विविधता में एकता' कर दिया गया है। यह हम सभी के लिए हमारे मूल पर पहला शूल था। जिन कौमों ने हम पर शासन किया और संपदा लूटने आया उन्होंने हमारी एकता को तार-तार करने का भरपूर प्रयास किया। उसी का परिणाम है कि हमारी मान्यताएं, हमारा दर्शन, चिंतन के मानकों को इन सभी ने पहले तो ध्वस्त किया, फिर अपने-अपने ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया। आज उन्हीं दस्तावेजों का सहारा लेकर हमारा समाज 'टूटन-फूटन और घुटन' का शिकार है। हम सब लोग ब्राह्मणवाद और मनुवाद पर हमले बौद्धिक और वैचारिक रूप से सुनते रहे हैं। हम अपने ब्राह्मणवाद या मनुवाद को एक स्थापित या सर्वस्वीकृत ग्रंथ नहीं मानते मगर ब्राह्मण और मनु दो महत्वपूर्ण प्रामाणिक मानक भारतीय समाज के अवश्य रहे हैं। जिस पर समाज अवलंबित रहा है। इस संदर्भ में डॉ. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक 'हू आर शूद्राज' में दस पहलुओं को स्थापित कर अपनी मान्यताओं को प्रस्तुत की है, जो अपने आप में स्वयंसिद्घ हैं।
' यह कहा जाता है कि शूद्र आचार्य थे और आयार्ें के शत्रु थे तथा आयार्ें ने उन्हें पराजित कर दास बनाया। यदि यह बात सत्य है, तो यजुर्वेद तथा अथर्ववेद के ऋषियों ने शूद्रों का गुणगान क्यों किया तथा अपने को शूद्रों का कृपा पात्र होने की कामना, क्यों व्यक्त की?
' यह भी कहा जाता है कि शूद्रों को वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं, तब एक शूद्र सुदास ने ऋग्वेद के श्लोकों की रचना कैसे की?
' यह भी कहा जाता है कि शूद्र यज्ञ नहीं कर सकता, क्योंकि शूद्रों को यज्ञ करने का अधिकार नहीं था, तब सुदास ने अश्वमेघ यज्ञ किस प्रकार किया तथा शतपथ-ब्राह्मण में यज्ञ करने वाले शूद्र के अभिवादन की विधि का उल्लेख क्यों है?
' यह भी कहा जाता है कि शूद्रों को उपनयन करने का अधिकार नहीं था। यदि शूद्रों को उपनयन का अधिकार नहीं था, तो यह विवाद कैसे चल पड़ा और बाद्री तथा संस्कार गणपति यह क्या कहते हैं कि शूद्र उपनयन के अधिकारी हैं।
' यह भी कहा जाता है कि शूद्रों को धन-संचय करने का अधिकार नहीं था। यदि ऐसा मान लिया जाए, तो मैत्रायणी एवं काठक संहिताओं में शूद्रों को धनी एवं वैभवशाली कैसे बताया गया?
' ऐसा माना जाता है कि शूद्र राज्य का अधिकारी बनने के लिए अयोग्य घोषित थे, तब महाभारत में शूद्रों के मंत्री से राजा होने तक का उल्लेख कैसे मिलता है?
' यह कहा जाता है कि शूद्र का कार्य ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य तीनों वणार्ें की सेवा करना है। तब यह कैसे हो सकता है कि शूद्रों में से राजा हुए, जैसा कि सुदास और अन्य के बारे में सायणाचार्य ने वर्णन किया है?
' यदि शूद्रों को वेद पढ़ने का कोई अधिकार नहीं था, यदि उन्हें उपनयन का कोई अधिकार नहीं था, यदि उन्हें यज्ञ करने का कोई अधिकार नहीं था, तो यह प्रश्न उठता है कि उन्हें उपनयन का, वेदाध्ययन का तथा यज्ञ करने का अधिकार क्यों नहीं दिया गया?
' शूद्रों का उपनयन संस्कार होना, वेदों को पढ़ने की उनकी योग्यता, उनका यज्ञ करना वे सब शूद्रों के महत्व के कार्य थे या नहीं, ब्राह्मणों के लिए लाभ का अवसर प्रदान करने वाले अवश्य थे, क्योंकि वेदांे को पढ़ाने एवं धार्मिक रीतियों के संचालन पर ब्राह्मणों का ही एकाधिपत्य था। यह ब्राह्मण वर्ग ही है जो शूद्रों को उपनयन का अधिकार, यज्ञ करने का अधिकार, वेदों को पढ़ने का अधिकार प्रदान कर, भारी शुल्क अर्जित करने के लिए खड़ा हुआ था। ब्राह्मण शूद्रों को ये सुविधा प्रदान न करने के लिए इतने दृढ़प्रतिज्ञ क्यों थे, जबकि उन्हें प्रदान करने से कोई हानि नहीं होनी थी, बल्कि इससे उनकी अपनी आय में ही वृद्धि होती।
' यदि शूद्रों को उपनयन, या और वेदों के अध्ययन का कोई अधिकार नहीं भी था, तब भी ब्राह्यण अपनी स्वविवेक-शक्ति से शूद्रांे को ये अधिकार देकर उन्हें स्वीकृति प्रदान करा सकते थे? जब ये प्रश्न व्यक्तिगत ब्राह्मण के स्वतंत्र चिंतन के लिए क्यों नहीं छोड़े गये? यदि एक ब्राह्यण इनमें से कोई भी वर्जनीय कार्य करता था, तब उस पर दण्ड क्यों आरोपित किया जाता था?
डॉ. आंबेडकर के उपर्युक्त विचारों से यह स्पष्ट होता है कि वे मानते थे कि शूद्र अनार्य नहीं थे और न ही वे आयार्ें द्वारा पराजित किये गये थे। वे शूद्रों को वेदाध्ययन, यज्ञ एवं उपनयन का अधिकारी मानते थे तथा उनकी दृष्टि में दलितों को धन-संचय का भी अधिकार था और वे राजा तथा मंत्री भी हो सकते थे।
मन को मस्तिष्क से जोड़ना या उसके समक्ष खड़ा करना पश्चिम के टीकाकारों की यह सबसे बड़ी भूल रही है। हमारे यहां आत्म परिष्कार एवं 'मनसा-वाचना-कर्मना' की एकात्मकता पर काफी जोर रहा है। बुद्ध, चार्वाक, लोकायत दर्शन एवं मार्क्स के चिंतन को तार्किकता, भौतिकता और सांसारिकता पर अधिक जोर दिया।
जबकि हमारे यहां इससे परे आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, लौकिक-अलौकिक, जन्म-पुनर्जन्म आदि को दृष्टिगत करते हुए 'व्यक्ति-समाज' एवं 'राष्ट्र-समाज' पर विचार होता रहा है। आत्म साक्षात्कार ही जीवन का एक लक्ष्य रहा है। इन चीजों को समझने हेतु हमें मन की ताकत को समझना होगा जो एक चालक (ऊ१्र५्रल्लॅ ाङ्म१ूी) है। उसी मन शब्द से मनु का भी निर्माण हुआ, ऐसा मुझे लगता है। आखिर विलियम जोंस नामक अंग्रेज ने 1794 में मनुस्मृति का अंग्रेजी में अनुवाद करके हिंदू विधि-विधान को अपने ढंग से व्याख्यायित करना शुरू किया। मनुस्मृति की लगभग 50 से अधिक हस्तलिपि मिली हैं, जो मानव धर्मशास्त्र के नाम से उल्लिखित हैं। विलियम जोन्स ने कुलुक्का भट्ट वाले कलकत्ता का अनुवाद किया। विद्वानों ने बाद में इसकी प्रमाणिकता को चुनौती दी और यह पाया कि विभिन्न हस्तलिपियों का कोई साक्ष्य नहीं था। ब्रिटिश लेेखक ओलीवेले (ड'्र५ी''ी) ने भी यह स्वीकार किया है कि मनुस्मृति संग्रहित ज्ञान का एक संचय मात्र है। जिसमें 1,00000 श्लोक एवं 1,080 अध्याय थे। उन श्लोकों का सहारा लेकर ही आज मनुवाद नामक बनावटी विध्वंसक विचारांे को फैलाकर द्वंद और तनाव पैदा करने की कोशिश की जा रही है। इससे हमारी संस्कृति का अतिशय क्षरण हुआ है। आज जिन लोगों ने इसे मनुवाद कह कर भारतीय समाज को कलुषित करने का प्रयास किया है, उनसे हम जैसे लोगों को जूझना होगा। मन की महिमा और मानव की गरिमा की परिचर्चा करके ही हम सब लोग इस वसुधा की विसंगतियों से विरक्त हो सकते हैं। आज दुनिया में 3 पी की चर्चा हो रही है- ढ-ढ'ंल्ली३ पृथ्वी, ढ-ढ'ंल्ली३ (शांति) ढ-ढीङ्मस्र'ी (लोग)। इसे बचाने की जिम्मेदारी समस्त मानवजाति की है।
इस जिम्मेदारी को निभाने हेतु हमें एकात्म मानववाद दर्शन का सम्यक् चिंतन करना होगा जिसे राष्ट्रऋषि पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने प्रतिपादित किया था। दीनदयाल जी के इस दर्शन में आंबेडकर जी का 'अंत्योदय' गांधीजी का 'सवार्ेदय' और लोहिया जी का 'अभ्युदय' भी है। हमें इन भारतीय मूल्यों का संकलन, संचयन एवं संवर्द्घन करके 'पुनरोदय' अभियान में अनवरत, एवं निर्बाध गति से चलना होगा।
( लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा की राष्ट्रीय
कार्यकारिणी के सदस्य हैं।)
-प्रो. संजय पासवान
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