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आवरण कथा/ समाज में हिंसक विभाजन
जिसे हिन्दू समाज कहते हैं, वही सनातन धर्म का वाहक रहा है। इसलिए यह एक महान समाज है और सम्मान और श्रद्धा का पात्र है। भारत में आज सारे सामाजिक लेखन में जितनी गड़बड़ी होती है वह मूलत: इस सत्य की अनदेखी करने से ही होती है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि ऐसा करने वाले स्वयं हिन्दू परिवारों में जन्मे लेखक, विद्वान या टिप्पणीकार हैं। चाहे उन्होंने यह अनजाने भी किया हो, फिर भी इससे हमारे देश और समाज की निरंतर हानि होती रही है।
प्राय: हमारे बहुतेरे लेखक, प्राध्यापक अपने देश, समाज या राष्ट्र की वैसी व्याख्या करने लगते हैं जो यूरोप में प्रचलित है। जैसे, यह कहना कि भारत हमारी प्रिय-भूमि है क्योंकि यह हमारी जन्मभूमि (यूरोपीय शब्दावली में, पितृभूमि) है। इतने तक सीमित रहने से यह दृष्टि भारत को हमारे लिए भी एक सांयोगिक भूगोल में बदल देती है। इससे भारत किसी भी अन्य देश के समान हो जाता है, क्योंकि सभी देशों के लोग अपने-अपने देश से स्वाभाविक प्रेम करते हैं। किन्तु इसमें सनातन धर्म की महत्ता छूट जाती है। जबकि भारत की सच्ची समझ के लिए सनातन धर्म, हिन्दू समाज और भारतवर्ष—इन तीनों की महत्ता का ध्यान रखना आवश्यक है।
यह ध्यान न रखने से ही यहां भारतीय इतिहास या वर्तमान के बारे में विभाजक, विखंडनवादी दृष्टि अपनाने में कुछ अटपटापन नहीं लगता। जो विद्वान सनातन धर्म का अर्थ, भूमिका और महत्व नहीं समझते, वे भारतीय समाज को ऐसे विविध खानों, विभाजनों में बंटा देखना शुरू कर देते हैं जिनमें प्रमुख चीज आपसी दुराव, टकराव है। वे इससे बड़ी, भारतीय जन-गण को जोड़ने वाली, चीज को कमतर कर देते हैं। यह चीज सनातन धर्म है, जिससे भारत का अस्तित्व और महत्ता रही है। सनातन धर्म और इसकी भूमिका को जांचने-परखने में कोई बुराई नहीं, पर इसे विचार से ही बाहर कर देने से भारत के बारे में सारा सामाजिक अध्ययन भ्रामक हो जाता है।
भारत के संपूर्ण ज्ञात इतिहास और शास्त्रों के सरसरी अवलोकन से भी झलक उठता है कि जिसे आज हिन्दू धर्म कहा जाता है, वह सनातन धर्म कोई रिलीजन नहीं, एक संपूर्ण सभ्यता है। यह आधारभूत सत्य है। सनातन धर्म आधारित सभ्यता अनादि काल से इस भारतभूमि पर फलती-फूलती रही है। विगत कई सदियों से यह सभ्यता विदेशी हमलों, विदेशी शासनों और वैचारिक प्रहारों से संघर्ष कर रही है। फिर भी यह अस्तित्वमान है, आज भी जीवंत है। इसलिए इसे नजरअंदाज कर भारत का कोई भी वर्णन, विश्लेषण सही नहीं हो सकता।
आश्चर्य यह है कि हमारे ऐसे विद्वान इसे भूल जाते हैं कि यूरोपीय, अमेरिकी, अरबी समाजों के वर्णन-विश्लेषण में वहां के 'रिलीजियस' पक्ष को अनदेखा नहीं किया जाता। जबकि भारत का विश्लेषण करने में यहां के सनातन, हिन्दू धर्म के मूल्यों तथा जन-जीवन में इसकी जीवन्त अभिव्यक्तियों को दरकिनार कर दिया जाता है। जबकि वर्तमान सामाजिक गड़बडि़यों, समस्यायों आदि का कारण उसी धर्म को बताने की आदत बना ली गई है। इस प्रवृत्ति का सबसे आश्चर्यजनक पक्ष यह है कि ऐसा करने में किसी प्रमाण-परीक्षण की चिंता नहीं की जाती। इसे सपाट रूप से केवल घोषित करके थोप दिया जाता है।
डॉ. नीरज अत्रि और मुनीश्वर सागर की पुस्तक 'ब्रेनवाश्ड रिपब्लिक' (2017) में लेखकों ने इसी प्रवृत्ति को प्रामाणिक रूप से रेखांकित किया है। यह पुस्तक दिखाती है कि हमारे ही लेखकों ने भारतीय बच्चों के लिए ऐसा इतिहास लिखा है जिसमें कदम-कदम पर सनातन धर्म की निंदा, विदेशी, साम्राज्यवादी विचारधाराओं की प्रशंसा और भारतीय समाज को तरह-तरह के खानों में बांटकर एक-दूसरे के विरुद्ध दिखाने का काम किया गया है। जिस तरह से ऐसे इतिहास लिखे गये हैं, उससे प्रतीत होता है कि इतिहास लिखने के बजाए हिन्दू धर्म पर कीचड़ उछालना और भारतीय समाज को तोड़ने की दिशा में प्रेरित करना ही मानो इनका उद्देश्य हो।
आखिर ऐसे इतिहास लेखन को क्या कहें जिसमें हजार वर्ष पहले के एक विश्व-विख्यात मुस्लिम विद्वान के उद्धरणों से ठीक ऐसा वाक्य हटा दिया जाए और मूल शब्द बदल दिया जाए, जिस से संपूर्ण कथन का वास्तविक अर्थ ही छिप जाए? उदाहरण के लिए, इतिहास की एक पाठ्यपुस्तक में 14वीं सदी के प्रसिद्ध यायावर-लेखक इब्ने-बतूता का एक लंबा उद्धरण दिया गया है जिसमें भारत पर इस्लामी हमले के बाद भारतीय राजाओं के जंगल में जाकर अपने लोगों को बचाने और सुरक्षित करने का विवरण है। लेकिन उनके बारे में मूल लेख में दिए गए 'काफिर' शब्द को हटाकर सरदार ('चीफटेन') कर दिया गया है। विद्यवान दृष्टि से यह दोहरा अपराध है।
एक तो किसी लेखक के मूल शब्द बदल देना, दूसरे ऐसा शब्द बदलना जो हमलावरों की पूरी मानसिकता को उजागर करती हो। यह कोई सामान्य शब्द नहीं, बल्कि बुनियादी पहचान का शब्द है जिस से किसी मानवीय समूह के प्रति हमलावरों की घृणा व शत्रुता परिलक्षित होती है। ऐसा शब्द बदलकर तथा कोई केंद्रीय वाक्य हटाकर इतिहास लिखने का उद्देश्य यह है कि पाठकों को छलपूर्वक एक विशेष राजनीतिक विचारधारा के प्रति सहानुभूतिशील बनाया जा सके। ऐसे इतिहास लेखन में इस तरह की कई तकनीकें उपयोग की गई हैं।
जैसे, बार-बार केवल कल्पना के बल पर यह दोहराना कि भारत में विभिन्न जातियां आपस में लड़ती, मरती रही थीं। हमारे देश को बार-बार 'कास्ट-बेस्ड सोसायटी' कहते हुए एक स्थायी नकारात्मक छवि देना मानो ये 'कास्ट' बिल्कुल अलग-अलग जीवन जीते रहे हों और इनमें कोई आपसी एकता, सदभाव या संयुक्त जीवन का प्रश्न ही न रहा हो।
इसी तरह, हमारे देश के जंगलों में रहने वाली जन-जातियों को ऐसे 'ट्राइब' कहना जो कदापि हिन्दू नहीं थे, बल्कि हिन्दू विरोधी थे। इस तरह के दावे करने में कहीं कोई प्रमाण नहीं दिया जाता। स्वयं जन-जातियों की अपनी अभिव्यक्तियों, मंतव्यों, देवी-देवताओं, उपासना प्रतीकों, कला-कृतियों, रिवाजों, आदि को अनदेखा किया जाता है। जान-बूझकर केवल ऐसे तथ्य लिए जाते हैं जिन से उन्हें गैर-हिन्दू बताने का उपक्रम किया जा सके। चाहे उन तथ्यों की भी मनमानी व्याख्या करके। अन्य तकनीक यह है कि वैसे इतिहासकारों द्वारा भारतवर्ष को जान-बूझकर बिना नाम का महाद्वीप ('सबकान्टिनेन्ट') कहा जाता है। केवल इसलिए क्योंकि भारतवर्ष आज कई टुकड़ों में टूटा नजर आता है। इस हालिया विखंडन को वे इतिहासकार मानो पुराने समय से ही लागू मानकर चलते हैं। इसलिए इसे भारतवर्ष नहीं कहते, चाहे वे सदियों पहले की बात क्यों न कर रहे हों।
इसी तरह, इस्लामी हमलावरों और शासकों द्वारा भारत में जोर-जबरदस्ती कराए गए कन्वर्जन के सारे प्रत्यक्ष विवरणों, दृष्टांतों को छिपा कर वे सपाट रूप से यह लिखते हैं कि ''पंजाब, सिंध और उत्तर-पश्चिम के कबीलों ने बहुत पहले ही इस्लाम अपना लिया था।'' मानो किसी ने किसी को गोद ले लिया हो, यह ऐसी ही सरल सामान्य घटना थी।
कुछ इतिहास-पुस्तकों का गंभीर परीक्षण कर 'ब्रेनवाश्ड रिपब्लिक' में यही दिखाया गया है कि उन पुस्तकों को पढ़कर किसी को हिन्दू धर्म और समाज से वितृष्णा हो सकती है। ऐसे ही इतिहास लेखन के प्रति प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. रमेशचंद्र मजूमदार ने कहा था कि ऐसा इतिहास पढ़ाने से अच्छा है कि इतिहास न पढ़ाया जाए। प्रो. मजूमदार ने यह बात आज से 55 वर्ष पहले कही थी। अर्थात्, तभी ऐसा इतिहास यहां पढ़ाने का उपक्रम हो रहा था, जिसे देख कर उन्होंने अपना क्षोभ प्रकट किया था। सन् 1962 में प्रो. मजूमदार के कहे शब्द स्वयं देखें… ''भय होता है कि भविष्य में इतिहास केवल प्रचार का माध्यम बन जाएगा, और (इस मामले में) भारत फासिस्टों और कम्युनिस्टों के रास्ते चला जाएगा। अभी यह खतरा सब को स्पष्ट नहीं है, मगर देखने वाला देख सकता है कि दूर क्षितिज में दिखने वाला काला बादल अभी आदमी के हाथ के बराबर है किंतु जल्द ही पूरे आसमान को आच्छादित कर सकता है।'' (सेमिनार, अंग्रेजी मासिक, नई दिल्ली, नवंबर 1962)
''ब्रेनवाश्ड रिपब्लिक'' दिखाती है कि प्रो. मजूमदार का भय दु:खद रूप से सच हुआ है। मार्क्सवादियों दवारा गढ़े इतिहास ने हमारी शिक्षा को आच्छादित कर लेने में भरपूर सफलता पाई। फलत: हमारी नई पीढि़यों को हिन्दू-विरोधी इतिहास पढ़ाकर मानसिक और राजनीतिक रूप से रुग्ण बनाया जाता रहा। इस के प्रति हमारे देश के अग्रणी लोग पूरी तरह गाफिल रहे।
यही कारण है कि गत पचास वर्षों में यहां तरह-तरह के राजनीतिक परिवर्तनों के बावजूद भाषा-साहित्य-संस्कृति और सामाजिक अध्ययन के प्रति उदासीनता रही। तभी कम्युनिस्ट लेखकों और अन्य हिन्दू-विरोधी राजनीतिक तत्वों ने शिक्षा में अपनी मनमानी थोपी। यह अनवरत चल रहा है। हमारे नौनिहालों को आज भी उन्हीं विषैली बातों से भरी पुस्तकें पढ़ाई जा रही हैं, जब भारत में 'हिन्दुत्वाद' वर्चस्व बताया जाता है। यही नहीं, उन्हीं पुस्तकों के आधार पर बने शैक्षिक निष्कर्षों को विद्यार्थी आत्मसात करें, इस की नई व्यवस्था की जा रही है। इस से हमारी विडंबना समझी जा सकती है!
इतिहास में वैसी विकृतियां सेक्युलरिज्म के शब्दजाल की आड़ में की जाती रही हैं। यद्यपि सेक्युलरिज्म की पृष्ठभूमि यूरोपीय इतिहास और ईसाई-चर्च की तानाशाही से जुड़ी है। उसका भारतीय इतिहास या वर्तमान से कोई संबंध नहीं है। अतएव भारत में यदि सेक्युलरिज्म का कोई अर्थ हो सकता था तो यही कि वैसी रिलीजियस-मजहबी विचारधाराओं के विरुद्ध जागरूकता जिन्होंने मानवीय विवेक को अवरुद्ध करके लोगों पर अपनी जोर-जबरदस्ती थोप रखी है।
वास्तविक भारतीय इतिहास यह है कि इस भारत भूमि पर हिन्दू एक समुदाय मात्र नहीं हैं। वे स्वयंमेव एक राष्ट्र हैं। श्रीअरविन्द ने अपने ऐतिहासिक उत्तरपाड़ा भाषण में ठीक इसी संदेश को रेखांकित करते हुए कहा था,''सनातन धर्म ही हमारे लिए राष्ट्रीयता है।'' यह भी ध्यातव्य है कि हिन्दू ही इस देश की एकता, अखंडता, शान्ति और उन्नति में स्वभाविक रुचि रखते हैं।
जहां तक मुसलमानों और ईसाइयों की बात है तो वे बाहरी राजनीतिक विचारधाराओं द्वारा कैद या बरगलाए गए हमारे अपने लोग हैं। वे पहले के हिन्दू हैं जिन्हें भय, लोभ और छल के सहारे हिन्दुओं से विलग किया गया। इसीलिए, भविष्य में उन्हें अपने घर लौटाना हमारी भावना होनी चाहिए। यह कहने में इसलिए कोई संकोच नहीं, क्योंकि ईसाइयत और इस्लाम स्वयं कन्वर्जन करने वाले 'रिलीजन' हैं। जब वे दूसरों को अपने मजहब में लाना अपना अधिकार मानते हैं, तो हिन्दुओं को भी अपने पुराने बंधुओं, बिछड़े लोगों को पुन: अपने स्वभाविक धर्म में पुनर्स्थित कराने का और भी स्वाभाविक अधिकार है।
इसीलिए भारत में 'कंपोजिट कल्चर' या 'कंपोजिट नेशनलिज्म' की शब्दावली भी ऐसे राजनीतिक नारे ही हैं जो हिन्दू धर्म-समाज के विरुद्ध प्रयोग किए जाते हैं। ये हमारे स्वभाविक राष्ट्रवाद को खारिज करने, बल्कि उसे तोड़ने के शब्दजाल हैं, चाहे उसे कितने ही सद्भावपूर्ण रूप में पेश किया जाए। आखिर यह प्रश्न तो प्रत्यक्ष है कि किसी इस्लामी प्रभुत्व के देश में ऐसे सेक्युलरिज्म, सर्व-धर्म सम-भाव या कंपोजिट कल्चर की बातें क्यों नहीं की जातीं? उन देशों के लिए देशी-विदेशी विद्वान उन्हीं शब्दावलियों को लागू करने की चिंता क्यों नहीं करते, जो भारत के संदर्भ में उन का केंद्रीय हठ रहा है? मामूली परीक्षण से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत के समाज अध्ययन विमर्श में ऐसी शब्दावलियां हिन्दू-विरोधी राजनीति के औजार मात्र रही हैं। इसलिए सच्चे राष्ट्रभावियों को इसे त्यागना चाहिए।
भारतीय इतिहास का तीसरा आधारभूत सत्य यह है कि भारत हिन्दू धर्म का अनूठा निवास-स्थान है। इस सत्य को स्वाधीनता आंदोलन के दौर में सहज माना जाता था। बंकिम के वन्दे मातरम् में संपूर्ण हिन्दू भावना थी, जिस से पूरा देश आलोडि़त होता था। वही हमारा सर्वमान्य राष्ट्र-गान था। स्वामी दयानन्द से लेकर श्रीअरविन्द, गांधीजी तक बड़े-बड़े राष्ट्रीय नेताओं ने यहां हिन्दू और राष्ट्रीय को समानार्थी बताया था। यह तो स्वतंत्र भारत में वामपंथियों ने नेहरूवादी सत्ता के सहयोग से हिन्दू और राष्ट्रीय को अलग कर दिया। इस से भी आगे बढ़कर हिन्दूपन को पिछड़ेपन, और अंधविश्वास का नाम दे दिया।
वही चीज धीरे-धीरे शिक्षा में अव्यक्त रूप से जोड़ी और स्थापित की गई। आम जनता इस धोखे को समय रहते नहीं समझ सकी। पर यह आधारभूत सत्य है कि भारतवर्ष हिन्दू भूमि है। आज पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान के अलग, हिन्दू-विरोधी मतवादों के वर्चस्व में दिखने से भी यह सत्य नहीं बदलता। भारत और सनातन धर्म के अस्तित्व के लिए यह अनिवार्य है कि इस विलगाव को स्थायी न माना जाए। श्रीअरविन्द ने 15 अगस्त, 1947 को अपने संदेश में इस पर बल दिया था। कोई कारण नहीं कि हम अपने इस आधुनिक मनीषी की सीख को याद न रखें।
भारत के इतिहास लेखन में यह आधारभूत सत्य भी सदैव परिलक्षित होना चाहिए कि भारतवर्ष का इतिहास हिन्दू समाज व संस्कृति का इतिहास है। कैसे हिन्दुओं ने एक सभ्यता बनाई जो विश्व में हजारों वर्षों से सबसे प्रमुख सभ्यता बनी रही। कैसे वे बदलते समय में भी निश्िंचत रहे और अपने घर की रक्षा करने के प्रति लापरवाह हो गए। फिर भी, कैसे उन्होंने तरह-तरह के बाहरी हमलावरों को पराजित किया या उन्हें अपने में समाहित कर लिया। कैसे उन्होंने इस्लामी, ईसाई और ब्रिटिश साम्राज्यवाद से सदियों लोहा लिया। कार्ल मार्क्स जैसे विदेशी विद्वानों से लेकर यदुनाथ सरकार और सीताराम गोयल तक हमारे अपने इतिहासकारों ने भी स्पष्ट लिखा है कि भारत में मुस्लिम शासनकाल कोई स्वदेशी राज्य-व्यवस्था नहीं थी। वह ब्रिटिश राज की तरह ही विदेशी सत्ता थी।
भारत के बारे में आर्य-आगमन सिद्धांत भी एक कपोल-कल्पना है, जिस का हिन्दू विरोधी राजनीति में गत सौ साल से उपयोग हो रहा है। इस सिद्धांत की परिकल्पना करने वाले विदेशियों ने भी इसे बाद में त्याग दिया क्योंकि इसके पक्ष में कोई साक्ष्य नहीं मिले। श्रीअरविन्द और डॉ. आंबेडकर ने भी यही पाया है। किन्तु आज भी भारतीय सामाजिक अध्ययन में इसे तथ्य के रूप में रखा जाता है कि भारत में विदेशी आर्यों का आगमन या आक्रमण हुआ था, और दक्षिण भारत के लोग मूल, अनार्य निवासी हैं, दोनों में विभेद और टकराव है, आदि। हर तरह से इसे निराधार पाने के बाद भी इतिहास और राजनीतिक विमर्श में दोहराया जाता है। इसकी हिन्दू विरोधी और अलगाववादी धार तरह-तरह से पहचानी जा सकती है। इस विकृति को भी दूर करने की आवश्यकता है।
वस्तुत: स्वतंत्र भारत में शिक्षा को हिन्दू विरोधी रूप दे दिया जाना एक गंभीर विषय है। इस पर ध्यान देकर कई राजनीतिक विकृतियों को दूर किया जा सकता है। साथ ही एक सबल, आत्मविश्वासपूर्ण भारत बनाने में भी इसका केंद्रीय महत्व है। हमें यह समझना और समझाना चाहिए कि यहां नेहरूवाद, मार्क्सवाद, आदि विचारधाराएं एक ऐसी मानसिकता से पनपीं जिस ने अज्ञानवश विदेशी आक्रांताओं के सैन्यबल और क्रूरता को उच्चतर संस्कृति समझ लेने की भूल की। नेहरू जैसे ऐसे असंख्य हिन्दू आत्मविलगाव के शिकार हुए और अपनी ही सभ्यता, संस्कृति से अनजान बन गए। भारत में चल रहा इतिहास अध्ययन-अध्यापन उसी भावना का उदाहरण है। यह संयोग नहीं है कि नेहरूवादी शासन ने भारत के साथ वही व्यवहार किया जो ब्रिटिश करते थे। उन्होंने भारत को बहु-नस्ली, बहु-धर्मी, बहु-जातीय, मानव ढेर के रूप में देखा और यहां के मुख्य समाज, हिन्दू समाज का दमन किया। इस दमन में उन 'अल्पसंख्यकों' का उपयोग किया जो वस्तुत: विदेशी आक्रांताओं द्वारा भारत में बनाए गए उपनिवेश थे। उनके सहारे और भी नए-नए 'अल्पसंख्यक' बनाना और हिन्दू समाज को तरह-तरह से विखंडित करना, इन शासनों का अहर्निश धंधा रहा है। विशेष सुविधाएं दे-देकर हिन्दुओं के एक-एक हिस्से को तोड़कर अल्पसंख्यक बनाना, उन्हें हिन्दू समाज से विमुख करना इन शासनों का सर्वप्रमुख कार्य रहा। इस प्रकिया में हिन्दू समाज को सदैव किसी दुष्ट, दानव जैसा प्रस्तुत किया जाता है। विगत चार-पांच दशकों से भारत में पढ़ा-पढ़ाया जाने वाला समाज अध्ययन इसी का एक औजार और परिणाम रहा है। इसे समय रहते पहचानना और उपाय करना अत्यावश्यक है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
-शंकर शरण
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