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दल की ओर से दिल्ली के एक व्यक्ति को मौत की सजा दी गई थी और यह भी तय हो गया था कि किसी एक और साथी को लेकर मैं उस फैसले को पूरा करूं। लेकिन यह दूसरा साथी कौन हो, यह तय नहीं हो पा रहा था। एक-एक कर कानपुर के सभी नामों पर विचार किया गया। कुछ को दल ने इस काम के उपयुक्त नहीं समझा और कुछ अपने घरेलू मामलों के कारण मजबूर थे। काफी सोच-विचार के बाद किसी ने सुझाया कि बनारस में एक मराठा साथी हैं, उनसे बात की जाए। नाम, पता आदि लेकर मैं बनारस पहुंचा।
राजगुरु उस समय बनारस के एक म्युनिसिपल स्कूल में ड्रिल मास्टर थे। स्कूल के काम से फुर्सत मिलने पर दोनों समय एक अखाड़े में लाठी-गदका आदि की शिक्षा देते थे। लाठी मास्टर और वह भी अखाड़े के। मैंने अपने दिमाग में एक लंबे-चौड़े फौजी जवान का नक्शा बना डाला।
दूसरे दिन प्रात: जब उसकी तलाश में अखाड़े पहुंचा तो उस दिन की शिक्षा समाप्त हो गई थी और लड़के वापस जा चुके थे। इधर-उधर निगाह दौड़ाई देखा पास ही एक छोटी सी कोठरी में एक व्यक्ति लाठियां और लकड़ी की नकली रायफलें गिनने में व्यस्त है। सोचा, अखाड़े का चौकीदार या चपरासी होगा। पास जाकर राजगुरु का पता पूछा। वह व्यक्ति मुझे पास आया देख रुखाई से उठ कर खड़ा हो गया। ''कहिए क्या काम है?'' उसने पूछा।
''राजगुरु से मिलना चाहता हूं।''
''मैं ही राजगुरु हूं—कहये क्या काम है?''
साधारण डील-डौल, सांवला रंग, आकर्षण-रहित लंबा चेहरा, पिचके गाल और उन पर उभरी हुई हड्डियां। मैंने अपने दिमाग में राजगुरु का जो नक्शा बनाया था वह एक झटके में हवा हो गया। सामने रह गया खाकी कमीज और खाकी निकर में एक साधारण सा नौजवान, जो उम्र में मुझसे भी कम था। सांकेतिक शब्द का संकेत में ही सही उतर पा जाने के बाद तो यह सोचने का कोई प्रश्न ही नहीं रहा कि जिस व्यक्ति से बात कर रहा हूं, वह राजगुरु नहीं है।
''आपसे कुछ बातें करनी है।''- मैंने कहा।
राजगुरु ने जल्दी-जल्दी काठरी बंद की और चुपचाप मेरे साथ हो लिया। मोती झील की तरफ जाकर एक सुनसान स्थान पर हमलोग आमने-सामने बैठ गए। मैंने एक बार गौर से राजगुरु के चेहरे पर निगाह डाली। वह चुपचाप बैठा मेरी बात का इंतजार कर रहा था— न किसी प्रकार की हंसी, न मुस्कराहट, न कोई उत्सुकता। दल के किसी साथी से मिल कर जो एक प्रकार की खुशी और अपनापन अनुभव होता है, उसने उसका भी कोई प्रदर्शन नहीं किया। दुनिया की ठोकरें खाकर समय से पहले ही जो लोग पक जाते हैं, उनकी आकृति और व्यवहार में एक प्रकार की प्रौढ़ता, गंभीरता और रूखापन सा आ जाता है। पहली मुलाकात में बीस साल के राजगुरु का भी मुझपर ऐसा ही कुछ प्रभाव पड़ा।
मैंने संक्षेप में उसे दल का फैसला बतलाया और इच्छा प्रकट की कि इस काम में वह मेरा साथ दे। प्रस्ताव सुनकर उसके रूखे चेहरे पर खुशी की मुस्कान दौड़ गई। ''पार्टी ने मुझे किसी योग्य समझा तो'' उसने आहिस्ते से कहा।
कुछ देर चुप रह कर उसने पूछा, ''तो फिर मुझे कब और कहां पहुंचना होगा?''
उत्तर में मैंने उसे कानपुर डीएवी कॉलेज के साइंस ब्लॉक के अपने कमरे (हॉस्टल में जगह न होने के कारण मैं उन दिनों कॉलेज के साइंस ब्लॉक के एक कमरे में रहता था। कॉलेज समाप्त हो जाने पर वहां बड़ा सन्नाटा हो जाता और इस दृष्टि से वह कमरा दल के काम के लिए बड़ा उपयुक्त था) का पता दे दिया। कहा- ''जितनी जल्द हो सके आ जाना।''
करीब एक सप्ताह बाद वह कानपुर आ गया। उस समय तक हमलोग एक ही पिस्तौल की व्यवस्था कर पाये थे। अस्तु।
सोने वाला मेहमान
राजगुरु को मेरे कमरे में करीब दो सप्ताह ठहरना पड़ा। यह पन्द्रह दिन उसने अपने आपको चारों तरफ से रजाई में लपेट कर सोने में गुजार दिए। कॉलेज के समय दिन भर मेरे कमरे में विद्यार्थियों का आना-जाना लगा रहता था।
मेरे सहपाठियों के बीच मेरा सोने वाला मेहमान आम चर्चा का विषय बन गया। राजगुरु सबेरे तड़के उठता और जल्दी-जल्दी नित्यकर्म से निवृत्त हो फिर रजाई में घुस जाता। मैंने मेस में मेहमान के लिए कमरे में ही खाना भिजवाने के लिए कह रखा था। नौकर दोनों समय खाना लाता, मेज चारपाई से सटा कर उस पर खाना-पानी रख देता, फिर राजगुरु को हिला कर कहता- ''बाबू खाना रखा है।'' राजगुरु मुंह खोले बगैर जवाब देता- ''अच्छा।'' नौकर के चले जाने पर वह जल्दी-जल्दी खाना समाप्त कर थाली में ही हाथ धोता और थाली चारपाई से नीचे सरका कर फिर सो जाता। मैंने लाख आग्रह किया किया, जाकर कहीं घूम आया करो। इस तरह पड़े रहने से लोग तरह-तरह के सवाल पूछते हैं। लेकिन उसकी समझ में एक न आई।
आगे चलकर राजगुरु की प्राय: सभी आदतें बदल गईं। छोटी जिंदगी के आखिरी दिनों में वह एक बदला हुआ आदमी था। हमारे बीच आने के बाद उसे करीब चार ही साल की जिंदगी और मिली। लेकिन इन चार सालों में उसका स्वभाव, विचार, रहन-सहन, खाना-पीना, सब बदल चुका था। हां, अंत तक अगर किसी चीज ने उसका साथ नहीं छोड़ा तो वह थी सोने की बीमारी। जरा सा मौका मिला नहीं कि राजगुरु ने आंखें बंद कीं। फिर किसी को मजाल थी कि आसानी से उसे उठा सके।
एक बार भगत सिंह, राजगुरु और मैं गोरखपुर में सरकारी खजाने की तलाश में जा रहे थे। हम लोगों ने पांच रुपये महीने पर एक पुरानी दुकान किराये पर ले ली थी। दिनभर इधर-उधर घूमने में बीत जाता। दुकान सिर्फ रात को सोने के काम आती थी। हमें अधिक दिनों तक तो वहां रहना नहीं था, इसलिए बाहर का हिस्सा ही साफ करवा लिया था। दुकान का अंदर वाला कमरा बड़ा गंदा था, उसे न छेड़ना ही ठीक समझा गया।
पहली ही रात का वाकया है। हमलोग जमीन पर दरियां बिछाकर सो रहे थे। करीब एक बजे मेरी आंख खुली तो किसी के अजीब तरह से गहरी सांस छोड़ने की आवाज सुनाई दी। टॉर्च उठाकर अंदर के कमरे के दरवाजे की ओर रोशनी फेंकी। देखा राजगुरु के सर से करीब दो फीट पर एक बड़ा सांप फन उठाये बैठा है।
'तंग मत करो'
मैंने भगतसिंह को जगाया। उसने राजगरु के पैर पकड़ कर दूर खींच लिया और जोर से कहा- ''उठो, तुम्हारे सर के पास सांप है।'' रोशनी और आवाज से सांप सरक कर कोठरी में चला गया और राजगुरु यह कहकर कि तंग मत करो यार दूसरी ओर करवट बदल कर सो गया।
गोरखपुर में काम न बनते देखकर एक दिन को रात को हमलोग वहां से चल दिए। वहां से हमें बनारस जाना था। टिकट दिन में खरीद लिए थे। गाड़ी छूटने में काफी देर थी इसलिए राजगुरु से स्टेशन चलने के लिए कह हम लोग हलधर वाजपेयी से मिलने चले गए। तय हुआ कि रेलवे पुल के पास राजगुरु हमारा इंतजार करेगा।
हलधर से बात समाप्त कर जब हमलोग स्टेशन पहुंचे तो गाड़ी छूटने में करीब बीस मिनट बाकी थे। पुल के पास पहुंचे, लेकिन वहां राजगुरु नहीं था। सोचा शायद गाड़ी पर जाकर बैठ गया होगा। दोनों ने मिलकर तीन बार सारी गाड़ी छान डाली, पर उसका कहीं पता न चला। बहुत तलाश करने पर भी जब वह नहीं मिला तो हार मानकर गाड़ी पर जा बैठे। दल के नियमों के अनुसार एक साथी के अचानक इस प्रकार गायब हो जाने के बाद गोरखपुर में हमारे ठहरने का कोई प्रश्न भी नहीं था। रास्ते भर हमलोग तरह-तरह के अनुमान लगाते रहे।
भिखारियों के बीच
दूसरे दिन खा-पीकर दोपहर को जयदेव के कमरे में बैठे ही थे कि राजगुरु आया और हमलोगों पर बुरी तरह बरस पड़ा- ''आप लोग खुदगर्ज हैं, मुझे इस तरह बिना टिकट, बिना पैसा छोड़कर चले आए''आदि। उसका गुस्सा शांत हुआ तो पूछा, ''आखिर तुम थे कहां? हमलोगों ने तो सारा स्टेशन तलाश कर डाला था।''
''मैं वहीं पुल की बगल में भिखारियों के बीच चादर ओढ़े सो रहा था। तुम लोगों ने मुझे जगाया क्यों नहीं?'' उल्टे हमलोगों पर रोब कसते हुए उसने जवाब दिया।
''लेकिन तुम से तो पुल के सामने मिलने के लिए कहा गया था?'' मैंने कहा।
''गाड़ी छूटने में 1 घंटा बाकी था। इतनी देर वहां बैठे-बैठे क्या झख मारता? सोचा एक घंटा से लूं। मुझे क्या पता था कि तुमलोग मुझे सोता छोड़कर चले आओगे।'' उसने शिकायत भरे लहजे में जवाब दिया।
''हमलोग तो समझे कि तुम्हें कोई पुलिस वाला धर ले गया।'' भगत सिंह ने कहा।
''और यह भाई बम्पूलाट जी किस मर्ज की दवा हैं?'' कोट के नीचे से फौजी रिवॉल्वर निकालकर हाथ से उछालते हुए उसने जवाब दिया। राजगुरु से उस समय तर्क करना बेकार था। इसलिए बात मजाक में टाल दी गई। लेकिन बाद में जब भगत सिंह ने उसे समझाया तो उसने अपनी गलती मान ली।
जब कानपुर में राजगुरु का करीब 15 दिन तक इंतजार करने के बाद भी दूसरे पिस्तौल की व्यवस्था नहीं हो सकी तो एक ही पिस्तौल लेकर हमलोग दिल्ली रवाना हो गए। दिल्ली पहुंचकर एक सराय में अपना सामान रख हमलोग उस व्यक्ति की तलाश में निकल गए। पूछताछ करने पर पता चला कि वह रोज शाम को सात और आठ के बीच घूमने जाता है। नई दिल्ली उस समय तक नहीं बस पाई थी। लोकसभा भवन तथा कुछ और इमारतें बन गई थीं। बाकी सब जंगल था। मथुरा रोड तो बिल्कुल वीरान था।
दूसरे दिन राजगुरु के सर में दर्द था, इसलिए मैं अकेले ही मौके पर गया। उसके बहुत जिद करने पर भी उसे सराय में ही छोड़ गया। लौटा तो रात के साढ़े नौ बज चुके थे। राजगुरु कंबल ओढ़े सड़क पर सराय से बाहर मेरी प्रतीक्षा में खड़ा था।
''इतनी ठंड में तुम बाहर मैदान में क्या कर रहे हो?'' मैंने आते ही प्रश्न किया।
बात क्या है?
''मैं इस सराय में एक मिनट भी नहीं ठहरूंगा। हमलोगों को अभी कहीं दूसरा इंतजाम करना होगा।''
मैंने बहुत पूछा- ''आखिर बात क्या है?'' लेकिन उसने एक न सुनी।
''पहले यहां से चलो, बात दूसरी जगह चलकर बताऊंगा।'' उसने जिद की।
सामान के नाते हमारे पास दो कंबल और एक झोला था। एक कंबल मैं अपने साथ ले गया और दूसरा कंबल तथा झोला वह उठा लाया था। उसने मुझे सराय में घुसने तक नहीं दिया। वह रात हमलोगों ने रेलवे स्टेशन पर तीसरे दर्जे के मुसाफिरखाने में गुजारी।
मुसाफिरखाने में जब हम दोनों पास-पास लेटे तो मैंने सराय से भागने का कारण पूछा। राजगुरु बुरी तरह झेंप रहा था। ''दुष्ट हैं, खराब लोग हैं, गुंडे हैं, बदचलन हैं'' आदि विशेषणों से आगे पूछने पर वह शर्म से बात टालने की कोशिश करने लगता। मामला संगीन कम और दिलचस्प ज्यादा है, इतना तो समझ ही गया था।
''जब तक ठीक-ठीक नहीं बताओगे मैं सोने नहीं दूंगा।''- मैंने धमकी दी। यह राजगुरु का कमजोर पहलू था और उसने झेंपते-झेंपते सारी कहानी बता डाली। उस दिन शाम को खाना खाकर जैसे ही राजगुरु अपने कमरे में पहुंचा, वैसे ही एक सफेद दाढ़ी वाले बुजुर्ग ने आकर लंबी सलाम मारी। राजगुरु ने सोचा शायद उसी जैसा कोई मुसाफिर है जो वक्त काटने के ख्याल से चला आया है।
''आइये बड़े मियां।'' कह कर उसने उनका स्वागत किया। बड़े मियां ने खड़े-खड़े ही पूछा, ''किसी बात की तकलीफ तो नहीं है हुजूर।''
''शुक्रिया।'' राजगुरु ने उत्तर दिया। कुछ देर चुप रहकर बड़े मियां ने फिर कहा-''शर्माने की कोई बात नहीं है। यह आप ही का घर है। हमलोग ताबेदार हैं। आपके कहने भर की देर है। सब इंतजाम आपकी मर्जी के मुताबिक मिनट में हो जाएगा।'' राजगुरु फिर भी इशारा नहीं समझा। ''नहीं, सब ठीक है, आप फिक्र न करें।'' उसने उत्तर दिया। बड़े मियां जल्दी पीछा छोड़ने वाले नहीं थे। शायद छोकरा अभी नया-नया इस जिंदगी में आया है।
(जारी)
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