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जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में आई नूतन दस्तावेजी पुस्तक ‘जम्मू-कश्मीर और महाराजा हरि सिंह’ पर बात शुरू करने से पहले भारत की संसद द्वारा 22 फरवरी,1994 को पारित उस प्रस्ताव को हृदयस्थ कर लें कि ‘संपूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है’। अब चर्चा 20 अध्यायों के अंतर्गत वरिष्ठ पत्रकार, लेखक हरबंस सिंह की लिखी उक्त पुस्तक की। दरअसल यह पुस्तक इसी लेखक की 2011 में प्रकाशित अंग्रेजी पुस्तक ‘महाराजा हरिसिंह: द ट्रबल्ड इयर्स’ का हिन्दी रूपान्तर है। इसमें मुख्यत: तत्कालीन जम्मू-कश्मीर रियासत के महाराजा हरि सिंह के जीवन के उस कालखण्ड की विशद चर्चा है जिसके बारे में दो तरह के विवरण मिलते रहे हैं। एक, सेकुलर और शेख खानदान से प्रभावित लेखकों के लिखे, और दूसरे, तथ्याधारित पठन-पाठन के बाद प्रामाणिक स्रोतों को खंगालते हुए लिखे गए। पहले में जहां महाराजा को जम्मू-कश्मीर की विकट परिस्थितियों का ‘दोषी’ ठहराते हुए उनके 1949 में बम्बई (अब मुम्बई) ‘भाग’ जाने पर सेकुलर अंदाज में टीकाएं हैं तो वहीं दूसरीे तरह के विवरणों में हम जम्मू-कश्मीर को मौजूदा हालात में पहुंचाने के दोषी शेख अब्दुल्ला परिवार के महाराजा के विरुद्ध रचे गए षड्यत्रों, नेहरू से शेख की नजदीकियों के चलते शेख द्वारा प्रदेश में पैदा की गर्इं देश-विरोधी परिस्थितियों का तथ्यात्मक लेखन पाते हैं। यह पुस्तक इस दूसरे वर्ग में रखी जा सकती है। इसका कारण यह है कि महाराजा के पुत्र डॉ. कर्ण सिंह ने खुद पुस्तक की प्रस्तावना में संस्तुति करते हुए लिखा है कि भ्रामक सेकुलर धारणाओं से विपरीत इस पुस्तक में लेखक का विशद् अध्ययन झलकता है। साफ है कि डॉ. कर्ण सिंह इसमें दिए तथ्यों के प्रति संतुष्ट हैं।
अब एक नजर पुस्तक के अध्यायों पर। आरम्भ में जम्मू्-कश्मीर के इतिहास और कल्हण की राजतरंगिणी की विस्तृत मीमांसा में पूर्व के राजाओं, प्रजाओं, ऋषि-मुनियों और उपासना पद्धतियों के साथ ही विभिन्न कालखंडों में सीमान्त प्रदेश जम्मू-कश्मीर पर रहे देशी-विदेशी प्रभावों की चर्चा करके लेखक ने एक भूमि तैयार की है। यह सही भी है, क्योंकि जिस गंभीर विषय को आगे रखा गया है उसकी एक भाव-भूमि तो पाठक के मन में उतरनी ही चाहिए। शुरू के दो अध्यायों में 1949 के जून माह की परिस्थितियों और ब्रिटिश ताने-बाने पर प्रकाश डालने के बाद अध्याय 3 में लेखक ने अब्दुल्ला परिवार की आरम्भ से रही सांप्रदायिक और एक हद तक उन्मादी सोच को रेखांकित किया है। बात तब की है जब शेख अब्दुल्ला के तथाकथित ‘कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन की तपिश में डोगरा लोगों को सुलगाने की साजिश रची गई थी। वह लिखते हैं, ‘‘ऐसे वातावरण में, जब यह स्पष्ट हो चुका था कि अब अंग्रेज अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर अपने घर लौट जाने का निश्चय कर चुके हैं, शेख अब्दुल्ला ने ‘कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन चलाने का निर्णय लिया था। उस समय अंग्रेजों के घर लौट जाने के निर्णय से राजा-महाराजाओं के राज्यों पर भी प्रभाव पड़ना था, परन्तु यह सब जानते हुए भी उस समय कांग्रेस नेताओं ने अब्दुल्ला के आंदोलन को समर्थन देने का निश्चय किया।…..शेख अब्दुल्ला द्वारा जम्मू और कश्मीर राज्य में डोगरा शासक से राज्य छोड़ने के लिए कहा जा रहा था ताकि कश्मीरी न केवल कश्मीर घाटी बल्कि समूचे जम्मू और कश्मीर राज्य पर शासन कर सकें। शेख अब्दुल्ला का दावा, कि ‘डोगरा घाटी में विदेशी हैं’, यदि मान लिया जाए तो उसी मापदण्ड के आधार पर कश्मीरियों को जम्मू, लद्दाख और गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र में विदेशी कहना होगा।…यदि अब्दुल्ला के इस तर्क को मान लिया जाए कि उनका ‘कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन डोगरों के विरुद्ध न होकर निरंकुश राजतंत्र के विरुद्ध है तो क्या ऐसे आंदोलन को घाटी के साथ-साथ राज्य के बाकी क्षेत्रों में समर्थन नहीं मिलना चाहिए था? सच तो यह था कि शेख अब्दुल्ला की मांग को तो राज्य के पूरे मुस्लिम समुदाय का समर्थन भी प्राप्त नहीं था। हिन्दुओं से समर्थन की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी और जम्मू के असंतुष्ट मुसलमानों के नि:संदेह रूप से नेता गुलाम अब्बास ने तो सार्वजनिक रूप से ‘कश्मीर छोड़ो’ मांग का विरोध किया था।’’ इसी तरह कई ऐतिहासिक घटनाओं को हवाला देते हुए लेखक ने यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि किस तरह शेख की दुर्नीतियों से प्रभावित नेहरू ने डोगरा जनता के प्रति दुर्भावना दर्शाते हुए आंखें मूंदे रहकर शेख की हर बात का समर्थन करने की ठाने रखी थी।
अध्याय 12 में उस दौर की राजनीतिक उठापटक का ब्योरा है जब पाकिस्तान के सैनिकों ने पठानों और कबाइलियों के वेश में 1947-48 में जम्मू-कश्मीर पर हमला बोलकर हिंसा और लूटपाट मचाई थी। ऐसे में महाराजा की सेना उनके नेतृत्व में पूरी बहादुरी से लड़ तो रही थी, पर भारत से सैन्य मदद की जरूरत थी। लेखक लिखते हैं, ‘‘…समय बहुत तीव्र गति से बीत रहा था।…महाराजा तूफान के आने से पहले सारी तैयारी कर लेना चाहते थे। इसी सिलसिले में वह आशा कर रहे थे कि भारत सरकार से उन्हें कोई सकारात्मक संकेत प्राप्त हो। उधर प्रधानमंत्री नेहरू इस हठ पर अड़े थे कि भले ही बिना शर्त राज्य का भारत में विलय प्रस्ताव क्यों न आ जाए, पर वह तब तक निरर्थक होगा जब तक लिखित रूप से प्रशासन की बागडोर शेख अब्दुल्ला को न सौंप दी जाए।…विलय पत्र के साथ ही महाराजा हरि सिंह ने भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन को एक पत्र लिखा जिसमें उन्हें यह सूचित किया कि उनके राज्य में गंभीर स्थिति बन गई है।…अंत में उन्होंने लिखा-राज्य में व्याप्त स्थिति और आपात परिस्थितियों को देखते हुए मेरे पास भारत डोमिनियन से सहायता मांगने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।…तद्नुसार मैंने उस कदम को उठाने का फैसला कर लिया है और विलय पत्र को स्वीकार करने के लिए इस पत्र के साथ संलग्न कर रहा हूं।’’ पुस्तक में दिए तथ्यों से स्पष्ट है कि उस स्थिति में, जब पाकिस्तानी पठान कश्मीर के लोगों को हलाक कर रहे थे, मां-बेटियों की इज्जत से खेल रहे थे, उस वक्त शेख अब्दुल्ला दिल्ली आकर नेहरू की गोद में दुबककर बैठे थे और राज्य की कमान अपने हाथ में लेने के लिए नेहरू से महाराजा पर जोर डालने को कह रहे थे। और जब महाराजा हरि सिंह ने विलय पत्र के साथ ‘अपनी प्रजा की रक्षा हेतु’ शेख को हुकूमत में हिस्सा देने की बात बेमन से मान ली तभी दिल्ली से सैनिकों को लेकर उड़े विमान में अब्दुल्ला गुपचुप श्रीनगर पहुंचे थे। बम्बई (अब मुम्बई) में 1961 में अपनी मृत्यु तक महाराजा जम्मू-कश्मीर पर बाहरी आक्रमण के वक्त नेहरू के छल-प्रपंच, शेख के उन्मादी व्यवहार और सोच तथा युवराज के व्यवहार से आहत तो रहे, पर मन की पीड़ा किसी से साझा नहीं की। पुस्तक शोधार्थियों और जम्मू-कश्मीर का सच जानने के इच्छुक पाठकों के लिए एक बहुमूल्य संदर्भ के रूप में देखी जा सकती है। लेखक ने कहीं से ऐसा आभास नहीं होने दिया है कि यह मूल अंग्रेजी पुस्तक का रूपान्तर है। यह जानकर अच्छा लगा कि पुस्तक ब्रिगेडियर (सेनि) वी.के. शर्मा की प्रेरणा और सुझाव पर लिखी गई है, इसमें दिए मानचित्र उन्हीं के द्वारा बनाए गए हैं। ल्ल आलोक गोस्वामी
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