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संघ के खिलाफ घोर नफरत कम्युनिस्ट-मार्क्सवादी दिमाग में गहराई तक बैठी है

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Aug 7, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Aug 2017 10:56:11

 

संघ ने मार्क्सवादियों के गढ़ कन्नूर जिले में अपनी जगह बनाई। इससे मार्क्सवादी बौखला गए। उन्होंने दुश्मनी निकालने के लिए हर तरह का हथकंडा अपनाया, जिसमें संघ और भाजपा कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतारना भी शामिल था। 1980 के दशक में संघ विरोधी हत्या की राजनीति में उफान देखा गया

पी. परमेश्वरन
केरल का कन्नूर जिला पूरे देश में हिंसा की नीतियों के कारण कुख्यात हो गया है, जो पिछले चार दशकों से चली आ रही है और आज भी जारी है। सुनने में यह अजीब लग सकता है कि अपनी लगभग शत-प्रतिशत साक्षरता के लिए विख्यात राज्य में ऐसे कई बड़े इलाके हैं, जहां लोग राजनीतिक विचारधारा के मतभेदों के आधार पर नृशंस हत्याओं और आगजनी पर उतर आते हैं। यह सब इतने समय से बिना रुके चला आ रहा है।
स्वाभाविक तौर पर सही सोच रखने वाले देश भर के लोग घटनाओं के इस प्रकार के असभ्य और अमानवीय मोड़ लेने पर चिंतित हैं। बार-बार सामने आने वाली इन समस्याओं का स्थायी हल निकालने के लिए इस मामले को सही परिप्रेक्ष्य में देखना जरूरी है। इसका एक लंबा इतिहास है, जिसके बारे में केरल के आम लोगों और राज्य के बाहर के लोगों को तो और भी कम जानकारी है। संघ परिवार के खिलाफ घोर नफरत कम्युनिस्ट-मार्क्सवादी दिमाग में गहराई तक बैठी है। पहली बार यह 1948 की जनवरी में तिरुअनंतपुरम में खुलकर सामने आई थी, जब कम्युनिस्ट प्रेरित छात्रों की ओर से आयोजित एक विरोध जुलूस रा.स्व.संघ की रैली पर टूट पड़ा, जिसे गुरु गोलवलकरजी संबोधित कर रहे थे। ऐसा करने के लिए किसी तरह का कोई उकसावा नहीं था। एक बार फिर वर्ष 1949 में भी दो संगठित हमले किए गए। एक कोझिकोड में और दूसरा अलेप्पी में, जहां श्रीगुरुजी संघ स्वयंसेवकों की एक सभा को संबोधित कर रहे थे। उस समय रा.स्व.संघ केरल में कोई बहुत बड़ी ताकत नहीं था। ये हमले पूर्व नियोजित और महज असहिष्णुता से प्रेरित एवं पूरी तरह से एकतरफा थे।
संघ का जैसे-जैसे विस्तार हुआ और वह लोकप्रिय होता चला गया, कम्युनिस्ट पार्टी और उसके मीडिया ने भयंकर दुष्प्रचार करना शुरू कर दिया। 1950 के दशक में रा.स्व.संघ का काम केरल के उत्तरी हिस्से, विशेष रूप से कन्नूर जिले तक फैला। कम्युनिस्ट पार्टी ने कन्नूर को पहले ही अपना गढ़ बना लिया था। यहां प्रचार के लिए जाने वाले रा.स्व.संघ प्रचारकों को न केवल धमकी दी गई, बल्कि उनका सामाजिक बहिष्कार भी किया गया, जिसमें रहने और खाने-पीने की सुविधा भी शामिल थी। उन्हें रेलवे स्टेशन जैसी जगहों पर सिर छुपाना पड़ता था। इन सारी बातों के बावजूद जब संघ के काम का विस्तार हुआ, तो उन पर हमले शुरू हो गए। आज भी ऐसे हमले कभी तेजी से तो कभी बीच-बीच में होते रहते हैं।
इमरजेंसी के दौरान रा.स्व.संघ और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच अघोषित युद्धविराम था, क्योंकि दोनों ही यातना के शिकार थे। असल में दोनों ने ही अलग-अलग कोठरियों में जेल की सजा साथ-साथ काटी। इसका नतीजा यह हुआ कि जब इमरजेंसी हटाई गई और चुनाव हुए तो दोनों ने ही लगभग साथ मिलकर काम किया और कांग्रेस को हराया। लेकिन यह सब कुछ दिनों तक ही चला। इमरजेंसी के खिलाफ ईमानदारी से संघर्ष करने वाले रा.स्व.संघ को भारी जन-समर्थन मिला था, जो मतदान के तरीके से भी साफ हो गया। यह स्पष्ट था कि संघ ने मार्क्सवादियों के गढ़ कन्नूर जिले में जगह बना ली थी। इससे मार्क्सवादी बौखला गए। इसके बाद उन्होंने दुश्मनी निकालने के लिए हर तरह का हथकंडा अपनाया, जिसमें संघ और भाजपा कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतारना भी शामिल था। 1980 के दशक में संघ विरोधी हत्या की राजनीति में उफान देखा गया, जिसमें दर्जनों कार्यकर्ताओं की जान चली गई।
इन घटनाओं के बाद हंगामा मच गया और एम.एस. नंबूदिरीपाद, ई.के. नयनार, बी.एस.एस. नेता दत्तोपंत ठेंगड़ी और सीटू नेता आर. राममूर्ति ने हालात को बेहतर बनाने के लिए दखल दिया। कोच्चि में कुछ नेताओं की बैठक हुई, जिसमें एक समझौते का मसौदा तैयार किया गया। लेकिन सीपीआई(एम) का राज्य स्तरीय नेतृत्व इसे आगे बढ़ाने से मुकर गया। हत्या की इस राजनीति का एक विचित्र और उल्लेखनीय पहलू यह है कि सीपीआई (एम) ने अपना विरोध केवल संघ और भाजपा तक ही सीमित नहीं रखा। उनके निशाने पर अन्य सारे राजनीतिक दल भी थे। यह सरासर असहिष्णुता थी, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं और इसे बरदाश्त नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ा सच यह है कि सीपीआई(एम) पूरे कन्नूर जिले को सिर्फ अपना इलाका मानती है और मानती है कि उस जिले में सत्ता पर उनका ही एकाधिकार है। कोई भी पार्टी बेरोकटोक न तो वहां काम कर सकती है, न ही संविधान से मिले अपने मौलिक अधिकारों का इस्तेमाल कर सकती है। अगर किसी ने उनके इस अंधे कानून को तोड़ा तो इसका नतीजा उसे भुगतना होगा।
संघ परिवार पर खुलकर हमला बोलने के पीछे सीपीआई(एम) की एक और सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक वजह है। यह केरल के बुरी तरह से सांप्रदायिक हो चुके माहौल में अल्पसंख्यकों के भारी समर्थन को हासिल करने की भी रणनीति है। वे खुलकर दावा करते हैं कि अल्पसंख्यकों का मुक्त रूप से सर्वनाश करने से केवल वही रा.स्व.संघ को रोक सकते हैं। वे दावा करते हैं कि सीपीआई(एम) ही है, जो ‘हिन्दू कट्टरपंथियों’ से उन्हें सुरक्षा देती है।
यह एक सर्वविदित तथ्य है, जिसे सीपीआई(एम) के सिवाय सभी खुलकर स्वीकार करते हैं कि कन्नूर जिले में कई पंचायतें और सैकड़ों पोलिंग बूथ हैं, जहां मुक्त लोकतांत्रिक चुनावों के मौलिक अधिकारों को इतने वर्षों तक कभी इस्तेमाल नहीं करने दिया गया। इसका कारण यह है कि मार्क्सवादी पार्टी उन पर कब्जा जमा लेती है, यह तय करती है कि कौन मत डालेगा और कौन नहीं। इसने कन्नूर जिले के बहुत बड़े इलाके में अन्य सभी दलों के कार्यकर्ताओं तथा मतदाताओं के मन में भय और असुरक्षा की भावना पैदा कर दी है। यह सीपीआई(एम) नियंत्रित लोकतंत्र और सीपीआई(एम) की ओर से ‘मैनेज’ चुनाव का मामला बन गया है। अंदरखाने असंतोष बढ़ता जा रहा है, जिसे अब तक कोई भी सरकार दूर नहीं कर सकी है। हाल में हुई हत्याओं के सिलसिले को अत्याचार, असहिष्णुता और मार-काट के लंबे इतिहास की रोशनी में देखा जाना चाहिए। जब तक इस सच को समझा नहीं जाएगा और अन्याय का हिसाब-किताब पूरी तरह नहीं होगा, मताधिकार का खुलकर इस्तेमाल नहीं करने दिया जाएगा, तब तक कोई शांतिपूर्ण और स्थायी समाधान नहीं हो सकता है। टुकड़ों में और अधूरे मन से किया गया कोई भी प्रयास इस मुद्दे का हल हमेशा-हमेशा के लिए नहीं निकाल सकता है।
ऐसा लगता है कि तीन सूत्री एजेंडा होना चाहिए, जिसे सभी संबंधित दलों, विशेष रूप से सीपीएम को समझना और स्वीकार करना होगा:
1. सीपीआई (एम) को विशेष राजनीतिक क्षेत्र (एसपीजेड) के सिद्धांत को छोड़ना होगा, जिसे उसने कन्नूर जिले पर थोपने की कोशिश की है।
2. सीपीआई (एम) को स्वीकार करना होगा कि संघ का आंदोलन जिस प्रकार भारतीय गणतंत्र के किसी भी दूसरे हिस्से में चल रहा है, उसी तरह कन्नूर जिले की भी सच्चाई है। यह कड़वा सच है, जिसे मिटा डालने के तौर-तरीकों से न तो भुलाया जा सकता है, न ही रोका जा सकता है। शाखा इसकी अभिन्न अंग है।
3. उन्हें इस दूषित सोच को छोड़ना होगा कि हत्या की राजनीति के साथ ही रा.स्व.संघ को यातना देना चुनावी रणनीति में अल्पसंख्यकों को उनके पाले में बनाए रखने की एक सफल रणनीति होगी। अल्पसंख्यक भी इतने समझदार हैं कि वे ऐसे किसी जाल में नहीं फंसेंगे। न ही सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग कर ऐसा करना सही या लंबे समय तक संभव है।
(31 मार्च, 2008 को कन्नूर हिंसा पर जारी पी.परमेश्वरन का वक्तव्य)

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