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उदारवादी बौद्धिकों का कहना है कि हिन्दू तीर्थयात्रियों की बस पर आतंकी हमला हुआ तो मुसलमान होने के बावजूद सलीम ने उनकी जान बचाई। कथित बुद्धिजीवी क्या उम्मीद कर रहे थे? क्या मुसलमान किसी की जान नहीं बचा सकते?
मेरे देश के गद्गद उदारवादी बौद्धिकों ने यह पता लगा लिया है कि अमरनाथ यात्रियों की बस को जो सलीम चला रहा था, वह मुसलमान है। इससे पहले वे इसका भी पता लगा चुके थे कि अमरनाथ गुफा की खोज एक मुसलमान चरवाहे ने की थी। मैं तो समझता था कि पुरास्थलों की खोज पुरातत्वविद् करते हैं!
…तो किस्सा-कोताह यह है कि तीर्थयात्रियों की बस पर आतंकवादियों द्वारा हमला बोला गया। तीर्थयात्री हिन्दू थे, लेकिन आतंकियों का कोई मजहब नहीं था! जिस कश्मीर में यह हमला हुआ, वहां कोई ‘मजहबी मुसीबत’ नहीं है। यानी ऐसा हरगिज नहीं है कि पाकिस्तान का हाथी निकल जाने के बाद कश्मीर की पूंछ की जो मांग की जा रही है, उसके मूल में कोई मजहब हो।
आतंकवाद का कोई ‘मजहब’ नहीं होता।
पाकिस्तान का कोई ‘मजहब’ नहीं होता।
कश्मीर का कोई ‘मजहब’ नहीं होता।
हुर्रियत का भी कोई मजहब नहीं, जिसके आह्वान पर इसी कश्मीर में पांच लाख मुसलमान सड़कों पर उतर आए थे, ताकि अमरनाथ यात्रियों को 99 एकड़ जमीन नहीं दी जाए। ‘पांच गांव तो क्या सुई की नोक जितनी भूमि भी हिन्दू तीर्थयात्रियों को नहीं दी जाएगी’… जिन पांच लाख लोगों ने सड़कों पर उतरकर यह कहा, उनका कोई ‘मजहब’ नहीं था।
केवल सलीम का मजहब था। केवल सलीम मुसलमान था। लेकिन यह ‘केवल’ इतना अकेला भी नहीं था। मसलन, जुनैद भी मुसलमान था, अखलाक भी मुसलमान था। मुसलमान केवल तभी मुसलमान होता है, जब वह या तो मजलूम होता है या मददगार होता है। जब मुसलमान जालिम होता है या दहशतगर्द होता है, तब वह मुसलमान नहीं होता! दूसरी तरफ, हिन्दू केवल तभी हिन्दू होता है, जब वह गुंडा गोरक्षक होता है। जब वह गुजरात, मालेगांव, बाबरी, दादरी होता है, लेकिन मरता हुआ हिन्दू सेकुलर होता है! आतंक का कोई मजहब न हो, लेकिन आतंक का रंग जरूर होता है। भगवा आतंक!
कहने का मतलब यह है कि हिन्दू तीर्थयात्रियों की बस पर जब बिना किसी धर्म के आतंकवादियों ने हमला किया, तब उस बस को जो चला रहा था, उसका एक मजहब था! मेरे उदारवादी बंधु इस इलहाम से गद्गद हैं। वे कह रहे हैं, ‘‘सलीम मुसलमान था इसके बावजूद उसने हिंदुओं की जान बचाई।’’
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना के बारे में इसी तर्ज पर कहा था, ‘‘डिस्पाइट बींग अ वुमन’’ तो हंगामा बरपा था। वह किसको याद है? वॉट डू यू मीन, मिस्टर प्राइम मिनिस्टर! डिस्पाइट बींग अ वुमन! तो क्या औरतें प्रधानमंत्री नहीं बन सकतीं! अगर इजाजत हो तो मैं इसी तर्ज पर अपने सेकुलर बंधुओं से पूछना चाहूंगा : ‘‘वॉट डू यू मीन, डियर लिबरल्स! डिस्पाइट बींग अ मुस्लिम! तो क्या मुसलमान किसी की जान नहीं बचा सकते!’’ यानी आप क्या उम्मीद कर रहे थे, सलीम गाड़ी खड़ी कर देता और आतंकियों के साथ मिलकर तीर्थयात्रियों को गोलियों से भून देता?
मेरे मुसलमान भाइयो! देखो आपके सेकुलर शुभचिंतक आपके बारे में किस तरह के ख्याल रखते हैं। आपकी नेकी पर जो चौंक उठे, क्या वह आपका दोस्त हो सकता है, तनिक तफ़्तीश तो करो। इतने पारदर्शी, इतने हल्के, इतने लचर आपके तर्क हैं, मेरे सेकुलर दोस्तो कि जिस दिन हिन्दुस्तान तंग आकर एक गहरी सांस छोड़ेगा, उड़ जाओगे। आतंक का कोई मजहब हो या ना हो, सेकुलरिज्म का जरूर कोई ईमान नहीं होता। तुम बेईमान हो, मेरे सेकुलर दोस्तो! क्या यही सितम है कि तुम इतने बेलिहाज हो!
(सुशोभित की फेसबुक वॉल से)
कोई और नहीं मीडिया से अधिक हिन्दूघाती
अमरनाथ यात्रियों पर आतंकी हमला होते ही मीडिया और सेकुलरों का पहला जवाब— बस पंजीकृत नहीं थी। जब पता चला कि बस पंजीकृत थी, तब दूसरा जवाब- बस चालक का नाम हर्षल देसाई नहीं, सलीम है। यही वे लोग हैं जो जुनैद, पहलू खान और अखलाक की हत्या पर आंदोलन करने और पुरस्कार लौटाने आ जाते हैं, लेकिन रिया, डॉ. नारंग और बंगाल के दंगों पर बिलों में छिप जाते हैं। अफजल गुरु के लिए नारे लगाने वालों के साथ खड़े पाए जाते हैं और याकूब मेनन के लिए रात के दो बजे अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं। फिर इस्लामी आतंकवाद के समकक्ष हिन्दू आतंकवाद की कहानी गढ़ने का प्रयास करते हैं।
कथित चालक सलीम को मीडिया ने तुरंत नायक बना दिया। बिना जांच पड़ताल किए, ताकि देश में आतंकवाद पर चर्चा न हो। इस भयंकर आत्मघाती स्थिति के लिए पत्रकार सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। मीडिया से अधिक हिन्दूघाती कोई और नहीं है। कांग्रेस, जो इन ‘खलीफाओं’ की स्वयंभू नेता है, उसका नकाब तो पूर्ण रूप से उतर चुका है। अब तो इंतजार 2019 का है, जब हर हिन्दुस्तानी इनके ताबूत में आखिरी कील ठोक देगा। (प्रिया द्विवेदी की फेसबुक वॉल से)
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