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वर्ष: 14 अंक: 4
1 अगस्त ,1960
शक्ति सम्पन्न राष्ट्र ही जगत्गुरु का स्थान प्राप्त करता है
-: बापूराव :-
अपने सम्पूर्ण समाज में सुसंगठित, संस्कार युक्त एवं आदर्शपूर्ण जीवन रचना के लिए एक बहुत बड़ा संन्यासियों का सम्प्रदाय निर्माण किया गया, जिन्होंने अपना जीवन इसके लिए अर्पण कर दिया। राष्ट्र के वैशिष्ट्यपूर्ण जीवन को, उसके आदर्शों को पुन: प्रस्तावित करने के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया।
कोई भी संस्कार से अछूता न रहे— समाज के व्यक्ति-व्यक्ति को उन संस्कारों से संस्कारित करने के लिए उनको भिन्न-भिन्न क्षेत्र दिया गया, उनके पंथ बनाये गए। जैसे एक पंथ का नाम तीर्थ आता है। तीर्थस्थान के अन्दर संस्कार पहुंचाने की व्यवस्था ठीक प्रकार से चलती रहे, ऐसे लोगों का एक पंथ बना। दूसरे पंथ को सागर तटके सब स्थान देकर उनका एक अलग सम्प्रदाय बनाया गया। किसी एक तीसरे पंथ को यह कार्य दिया कि जंगल में रहते हुए आस-पास के देहातों में रहने वाले समाज तक यह संस्कार पहुंचाए। एक चौथा पंथ इसी प्रकार से बना, उस पंथ के लिए जितने नगर हैं उन नगरों का क्षेत्र दिया गया। जो अपने भिन्न-भिन्न विद्यापीठ हैं इन विद्यापीठों का ठीक प्रकार से कार्य चलता रहे, वहां के लोगों पर भी यह संस्कार ठीक प्रकार से होते रहें, इसके लिए उनकों विद्यापीठों का क्षेत्र दिया गया। इस प्रकार भिन्न-भिन्न क्षेत्र देते हुए इस प्रकार की गई कि जिसमें समाज के व्यक्ति-व्यक्ति तक यह संस्कार पहुंच सके। समाज का हर एक व्यक्ति इस एकता का अनुभव कर सके। कुछ लोगों को सम्पूर्ण देश में भ्रमण का भी काम दिया गया है। इसी के साथ-साथ जो लोग स्थायी रहकर के इसको दूसरे ढंग से चला सकते थे, उन्हें कथा, कीर्तन और प्रवचन द्वारा अपने आदर्शों के संबंध में प्रचार करने के लिए नियुक्त किया गया। इस प्रकार एक त्यागी ब्राह्मण वर्ग का निर्माण हुआ। ऐसे लोग आज भी जगह-जगह दिखाई पड़ते हैं।
समाज का प्रत्येक वर्ग अग्रसर—इन बातों को फैलाने के लिए साहित्यकार ने भी योगदान दिया। राजा महाराजाओं ने भी देश में एकसूत्रता निर्माण करने की दृष्टि से एक क्षत्रिय राज्य स्थापित किया। साधु-संत तथा अन्य व्यक्तियों ने भी इसी दृष्टि से प्रयत्न किए। जिसके पास जो-जो गुण थे, उस गुण के द्वारा समाज को सेवा कर सकता था। उस एक ही बात को लेकर भिन्न-भिन्न प्रकार से अपने प्रयत्न इसी दिशा में लगाए और धीरे-धीरे यह संस्कार फैलने लगे, समाज का व्यक्ति-व्यक्ति एकता का अनुभव करने लगा।
विकास की चरम सीमा- सभी क्षेत्रों का अभूतपूर्व विकास हुआ। इसी कारण इस युग के लोग इतिहास का स्वर्ण युग कहते हैं। जहां यह परिस्थिति थी कि लोगों के अन्दर देश और धर्म के प्रति की श्रद्धा नष्ट हो गई थी, उस सम्पूर्ण परिस्थििति में परिवर्तन लाते हुए एक वृहदरा,्ट्र व्यापी योजना के द्वारा व्यक्ति-व्यक्ति को इन संस्कारों से ओत-प्रोत किया गया ।
‘कृष्णवन्तो विश्वमार्यम’— इस प्रकार एक कर्म चेतना यहां पर निर्माण हुई जिससे इस देश में हमने समृद्धि प्राप्त की, और स्वर्णयुग निर्माण किया। इससे भी बढ़कर अपने जीवन की आकांक्षाओं के अनुरूप कृष्णवन्तो विश्वमार्यम का नारा लेकर हम लोग सम्पूर्ण दुनिया के अंदर चारों ओर प्रशस्त होने लगे।
पश्चिम का अंधानुकरण हमारी
चिर एकता को नष्ट कर रहा
इतिहास साक्षी है कि सर्वप्रथम हमने ही संसार को राष्ट्र की कल्पना दी और चिरकाल से हम एक राष्ट्र के सूत्र में आबद्ध चले आ रहे हैं, परन्तु हमारे भूतपूर्व गौरांग-शासकों ने हमारी राष्ट्रीय एकता को अपमानित और लांछित करने के लिए संपूर्ण संसार में योजनाबद्ध रीति से यही प्रचार किया कि भारत कभी भी एक राष्ट्र के रूप में नहीं रहा है। अपने प्रचार की सत्यता प्रमाणित करने के लिए नितांत असत्य और भ्रामक तर्क उपस्थित किए-कि भौगोलिक दृष्टि से भारत एक देश नहीं है, वरन अनेकों छोेटे-बड़े राष्ट्रों से मिल कर बना हुआ एक विशाल भू-प्रदेश है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी भारतीय इस भूमि के मूल निवासी नहीं हैं, वरन् भिन्न-भिन्न कालों में भिन्न-भिन्न स्थानों से आकर यहां के निवासी बन गए हैं, राजनैतिक दृष्टि से भी भारतीय कभी भी एक सूत्र में आबद्ध नहीं रहे, वरन् यह लोग एक-दूसरे पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए परस्पर संघर्ष ही करते रहे हैं। भाषा की दृष्टि से तो यहां के निवासी एक-दूसरे के लिए नितांत अपरिचित हैं। सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से भी भारतीयों की मान्यताएं और श्रद्धा केन्द्र पृथक-पृथक हैं। केवल इतना ही नहीं, इन गौरांग शासकों ने हमें विस्मृति की चिरनिद्रा में सुलझाने के लिए, हमारे साहित्य, इतिहास और पाठ्य पुस्तकों में आमूल-चूल परिवर्तन करके उनकी पुनर्रचना भी उपरिलिखत आधारों पर ही करवाई। दु:ख है तो केवल इस बात का कि स्वाधीन हो जाने पर भी अपने-अनेकों बांधव आज भी अपने को उस विस्मृति के गर्त से नहीं निकाल पाए हैं और न हीनत्व की भावना ही दूर कर पाए हैं। इसमें संदेह नहीं कि भारत अनेकताओं से भरा हुआ एक अनुपम देश है। क्षेत्रफल की विशालता के कारण ही जलवायु, वर्ण, शारीरिक गठन, वेशभूषा और जीवन के साधनों में इतनी भिन्नताएं दृष्टिगोचर होती हैं। अनेकों जातियों और संस्कृतियों को उदरस्थ कर लेने के कारण बाह्य परिवर्तन तो स्वाभाविक रूप से हुए ही है, परन्तु भारत की आत्मा सदैव ही अप्रभावित रही है। यही कारण है कि हमारे पूर्वजों ने उस समय, जबकि शेष सम्पूर्ण संसार अज्ञानान्धकार में पड़ा, नग्न प्राय व्यवस्था में जीवन व्यतीत कर रहा था, राष्ट्रीय एकता के महत्व को समझाया था।
कश्मीर पर पीछे-हट असह्य
मिर्जा अफजल बेग के ऊपर से प्रतिबंध हटाने तथा शेख अब्दुल्ला को दिल्ली में मुक्त कर देने के बाद वे तत्व फिर से सक्रिय हो गए हैं जो कश्मीर को भारत से अलग कर देना चाहते हैं। उनके तर्क यद्यपि थोथे सिद्ध हो चुके हैं तथा जनता ने सम्पूर्ण देश में और कश्मीर में भी उनके सुझावों को अराष्ट्रीय और अव्यावहारिक मानकर ठुकरा दिया है, फिर भी वे समय-कुसमय अपनी रट लगाने से बाज नहीं आते। पाकिस्तान से मित्रता का लालच दिखाकर वे भारत-शासन का समर्थन प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहे हैं। किन्तु अब समय आ गया है कि इन शांति और न्याय के स्वयंभू संरक्षकों को, पाकिस्तान को तथा अन्य दूसरी शक्तियों को, जो उस प्रश्न पर दखल देती हैं, हमें बता देना होगा कि कश्मीर भारत की सार्वभौम सत्ता का अविभाज्य अंग है तथा उसके बारे में कोई समझौता नहीं हो सकता। —पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-7, पृ. 83)
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