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गंगा में हर साल 4 मिलीमीटर गाद जमा हो रही है। इसके कारण नदी लगातार अपनी दिशा बदल रही है जिससे इसके किनारे बसे नगरों पर बाढ़ का खतरा मंडराने लगा है। लोगोें के शव दाह के बाद राख के साथ अधजली लकड़ियां और पूजन सामग्री फेंकने से मोक्षदायिनी का अस्तित्व खतरे में है
सुनील राय
सनातन धर्म में गंगा के तट पर शव के अंतिम संस्कार की परंपरा है। अंत्येष्टि के बाद चिता की राख को गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है। गंगा के प्रति लोगों की यह श्रद्धा ही उसके लिए सबसे बड़ी समस्या बन गई है। शव के अंतिम संस्कार के बाद गंगा में प्रवाहित की जाने वाली राख से नदी में इतनी गाद जमा हो चुकी है कि इसका पाट छिछला होता जा रहा है। इसके कारण गंगा किनारे बसे नगरों पर बाढ़ का खतरा मंडराने लगा है।
गंगा में हर साल 4 मिलीमीटर गाद जमा हो जाती है, जिससे इसकी गहराई कम हो रही है और बहाव क्षेत्र बदल रहा है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग में प्रोफेसर एस.एस. ओझा ने एक अध्ययन में पाया कि प्राकृतिक और इनसानों द्वारा प्रवाहित किए जाने वाले अपशिष्ट से गंगा में गाद जमा हो रही है। संगम पर यमुना की गहराई करीब 80 फुट है, जबकि गंगा की गहराई इतनी कम है कि उस जगह खड़े होकर स्नान किया जा सकता है। इस जगह गंगा की सहायक नदी यमुना की गहराई कम होनी चाहिए थी, लेकिन हालात इसके विपरीत हैं।
यमुना की गहराई अधिक होने के कारण संगम स्थल पूरब की ओर खिसक रहा है। स्थिति यह है कि अकबर ने जिस किले का निर्माण कराया था, अब संगम स्थल वहां पहुंच चुका है। प्रोफेसर ओझा बताते हैं कि संगम पहले सरस्वती घाट के पास था, लेकिन गंगा के लगातार छिछले होने से यह पूरब की ओर खिसकता हुआ किले के पास आ गया है। यह क्रम आगे भी जारी रहेगा। उनके मुताबिक, गंगा तट पर शव दाह के बाद राख के साथ प्रवाहित की जाने वाली अधजली लकड़ियां तल में जाकर बैठ जाती हैं।
1990 के बाद पॉलिथिन का इस्तेमाल बढ़ने से यह समस्या और विकराल हो गई है। लोग भगवान की तस्वीरें, कैलेंडर, मूर्तियां या पूजन सामग्री पॉलिथिन में बांध कर गंगा में फेंकने लगे। पॉलिथिन के तलहटी में बैठ जाने से गंगा का पानी जमीन के भीतर नहीं जा पा रहा है। आलम यह है कि नदी के आसपास जो कुएं थे, वे या तो सूख चुके हैं या जिनमें पानी है भी तो उसमें आर्सेनिक की मात्रा काफी अधिक है। यह स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक है। प्रो. ओझा के मुताबिक, भू-जल में आर्सेनिक की मौजूदगी का सबसे पहला मामला पश्चिम बंगाल में पाया गया था। उसके बाद बिहार और अब कानपुर आदि जिलों में भू-जल में आर्सेनिक की मौजूदगी आम बात हो गई हैं।
वे बताते हैं, ‘‘करीब 25 वर्ष पहले गंगा पर कर्जन पुल बनाते समय 120 मीटर गहराई तक खुदाई करनी पड़ी थी। यह गंगा में जमी हुई गाद थी। गाद जमने के पीछे एक और वजह है। दरअसल, जहां से गंगा का उद्गम हुआ है, हिमालय के उस क्षेत्र में कटाव हो रहा है, जिससे गाद नदी की तलहटी में जमा हो रही है। इसके अलावा इसकी सहायक नदियों से मैदानी इलाकों में जो कटाव होता है, उससे भी गाद जमा हो रही है।
राम गंगा को ही लें तो यह बड़ी मात्रा में धामपुर और गजरौला स्थित चीनी मिलों का कचरा अपने साथ बहाकर गंगा में ले आती है। इसके अलावा, कोसी भी अपने साथ बड़े पैमाने पर कचरा लाकर गंगा में छोड़ देती है। कोसी में भी काफी गाद जमा है। इसी कारण वह बार-बार अपना बहाव क्षेत्र बदल रही है।’’ प्रो. ओझा के मुताबिक, जब भी कोई नदी बार-बार अपना बहाव क्षेत्र बदलती है तो उसका मतलब साफ है कि सहायक नदी से उसके मिलने में कोई बाधा है। इसलिए वह दूसरा रास्ता तलाश लेती है। इलाहाबाद में संगम पर यमुना के मिलते ही इसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। उद्गम स्थल से लेकर जहां-जहां से यमुना बहती है, उसके उत्तर में ही नगर बसे हैं, जबकि दक्षिणी हिस्से में चट्टानें हैं जहां नगर नही बस सकते। लेकिन गंगा के दोनों तटों पर नगर बसे हुए हैं। इसलिए यमुना के मुकाबले गंगा में बड़े पैमाने पर नगरों का कचरा और नालों का पानी मिल रहा है।
इसी तरह यमुना की सहायक नदियां, जैसे चंबल, बेतवा और केन आदि पठारी इलाकों से निकलती हैं। इनके बहाव से धीरे-धीरे चट्टानों का कटाव होता है और यमुना में बालू जमा होती रहती है। चूंकि बालू के लिए इन नदियों में अवैध खनन भी होता रहता है, इसलिए एक तरह से इनमें जमा गाद निकल जाती है। लेकिन गंगा के साथ ऐसा नहीं है। इसलिए गंगा की जो बालू है, उसका खनन नहीं होता है। अगर गंगा से भी बालू खनन होता रहता तो शायद इतनी गाद जमा नहीं होती।
बहरहाल, मोक्षदायिनी गंगा को स्वच्छ बनाने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलाया गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कई अवसरों पर गंगा की स्थिति को लेकर चिंता जता चुके हैं। साधु-संतों के साथ करोड़ों देशवासियों को उस दिन का बेसब्री से इंतजार है जब गंगा अविरल होकर बहेगी।
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