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चीन में माओ के बाद बहुराष्टÑीय कंपनियों का तेजी से विस्तार हुआ, जिनके साथ पश्चिमी चर्च ने वहां अपनी जड़ें जमानी शुरू की थीं। आज वहां ईसाई सत्ताधारी कम्युनिस्टों की संख्या को पीछे छोड़ने वाले हैं। बताते हैं, ऐसा प्रोटेस्टेंट चर्च की योजना से हो रहा है जो पश्चिम में नास्तिकता की आंधी से होने वाले नुकसान को लेकर चिंतित है
मोरेश्वर जोशी
पौंड और प्रोटेस्टेंट पंथ ब्रिटेन के साम्राज्यवादी विस्तार के दो बहुत महत्वपूर्ण घटक रहे हैं। 2016 के मध्य इन दोनों में काफी उतार देखने में आया है। प्रोटेस्टेंट पंथ तो वहां अनिश्वरवाद की आंधी के चलते अल्पसंख्यक बन चुका है, लेकिन उसके संभावित अभाव की भरपाई के लिए प्रोटेस्टेंट पंथ ने चीन में कथित 12 करोड़ लोगों का ईसाईकरण कर दिया है।
ब्रिटेन में ईसाइयों के अल्पसंख्यक हो जाने पर पूरी दुनिया में प्रतिक्रिया देखने को मिली है। भारत को छोड़कर दुनिया भर के अखबारों में इस पर हैरानी जताते हुए संपादकीय टिप्पणियां देखने में आई हैं। पूर्वी एशिया में इस विषय को बड़ा महत्व मिला, क्योंकि पिछले 15-20 साल में ईसाई मिशनरियों ने पूर्वी एशियाई देशों में ईसाईकरण पर बहुत ज्यादा जोर दिया है। इसमें अगुआई ब्रिटेन के चर्च की ही रही है। चीन में तो ईसाईकरण की मुहिम इतनी तेज है, कि वहां वर्तमान 12 करोड़ ईसाइयों के आंकड़े को अगले 15-20 साल में 30 करोड़ तक पहुंचाने का लक्ष्य है। फिलहाल यूरोप-अमेरिका में ईसाइयों की जो संख्या कम हो रही है, उसकी काफी हद तक भरपाई चीन में हो रहे कन्वर्जन ने कर दी है। मिशनरियों के अनुसार, चीन दुनिया में सबसे ज्यादा ईसाई जनसंख्या वाला देश बनने की ओर है। इतना ही नहीं, चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी की वर्तमान संख्या-7.5 करोड़ है—से भी ज्यादा ईसाई होने पर मिशनरियों को खुशी है कि वहां ईसाई ही राजनीतिक सत्ता के दावेदार हो जाएंगे। कन्वर्जन से सत्तांतरण का उनका इरादा स्पष्ट होता है।
दुनिया में आज ईसाई पंथों और उपपंथों के अनुयायियों की संख्या 2000-2,250 करोड़ है। इसकी तुलना में मुसलमानों की संख्या 160 करोड़ है। यूरोप-अमेरिका में बढ़ती नास्तिकों की संख्या पर गौर करें तो दुनिया में जनसंख्या के आधार पर अग्रणी स्थान कायम रखने के लिए चर्च संगठनों ने मध्य अफ्रीका क्षेत्र में संख्या बढ़ाने पर जोर दिया है। भारत में मुसलमानों ने अन्य समुदायों की जनसंख्या वृद्धि की तुलना में ज्यादा बच्चों को जन्म देकर देश की कुल जनसंख्या वृद्धि में एक करोड़ संख्या वृद्धि दर्ज की है। अमेरिका और यूरोप में हालांकि मुस्लिम आबादी अधिक नहीं है, लेकिन पिछले 10 वर्ष में उनकी तादाद दुगुनी हो गई है।
एक तरफ अपने मत की जनसंख्या बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है, तो वहीं दूसरी तरफ नास्तिकों की संख्या भी बढ़ी है जिसमें यूरोप-अमेरिका में तो आज ‘नो रिलीजन’ का नारा बुलंद करने वालों की लहर जैसी चल रही है। आखिर ‘पंथ को अफीम की गोली’ मानने वाले चीन में इतना बड़ा परिवर्तन कैसे हुआ, इसका परीक्षण करने की आवश्यकता है। दरअसल चर्च चीन में साम्यवाद और नास्तिकता के बीच समय के साथ बने शून्य को भर रहा है। यह पश्चिम की आधी दुनिया अपने नियंत्रण में वापस लेने की कोशिश ही है। चीन में बड़े पैमाने पर कन्वर्जन पिछले कुछ ही वर्षों में घटा है। 1980 के बाद वहां धीरे-धीरे उदार वादी हवा बहने लगी थी। अमेरिकी कंपनियां वहां जाने लगी थीं। कम्युनिस्ट सरकार पंथ को लेकर भले कुछ भी महसूस न करे, लेकिन चूंकि एशियाई व्यक्ति मूलत: आस्थावान होता है, इसलिए वहां के लोगों ने सामने दिखने वाले पंथ की उपासना शुरू की, ईसाइयत को बढ़ावा मिलने लगा और धीरे-धीरे आज की परिस्थिति उपजी। चीनी सरकार का बड़े पैमाने पर कन्वर्जन को लेकर मानना है कि ‘स्थिति उनके नियंत्रण में है’। ध्यान रहे कि पश्चिमी महाशक्तियों की आंखों में चीन केवल एक उदाहरण है। लेकिन इसमें गंभीरता से लेने योग्य बात यह है, कि पश्चिमी देशों ने कहीं चर्च संगठनों की मदद से तो कहीं विकास में मदद के बहाने सरकार में सक्रिय भागीदारी लेना शुरू किया है। दुनिया के 110 देशों में से हर एक के लिए जैसे महाशक्तियों की निश्चित नीति होती है वैसे ही चर्च की भी एक उसे समर्थन देने वाली अपनी अलग नीति है।
चीन सरकार को भले ही लगे कि स्थिति उसके नियंत्रण में है, लेकिन पिछले करीब 30 वर्ष में जो घटनाएं घटी हैं, उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। माओ के वक्त में चर्च मिशनरियों को चीन की सीमा के आसपास भी फटकने नहीं दिया जाता था। लेकिन आज वहां कम्युनिस्ट शासन में भी चर्च का काम जारी है। वहां नेशनल चर्च, इंडिपेंडेंट चर्च, गैर पंजीकृत चर्च, भूमिगत चर्च जैसे अनेक चर्च संगठन खड़े हुए। चीन में कन्वर्जन का काम कर रहा है ब्रिटेन के प्रोटेस्टेंट पंथ का उपपंथ बैप्टिस्ट चर्च। लेकिन पिछले 2 वर्ष में चीन में चर्च संगठन और सरकार के खिलाफ संघर्ष तेज हो चुका है। चीन में ईसाइयों की बढ़ती संख्या से शह पाकर यूरोप-अमेरिका में बहुत से लोगों ने बोलना शुरू कर दिया है कि ‘‘चीन में जल्दी ही चर्च के वर्चस्व वाली सरकार आ सकती है’’। इसे देखकर चीन सरकार ने ऐसे लोगों के विरुद्ध एक बड़ा अभियान शुरू किया और एक ही प्रांत में एक साल में 500 चर्च ध्वस्त कर दिए। वहां अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों के तहत एक भूमिगत चर्च है। इसके खिलाफ भी वहां की सरकार ने कड़ी कार्रवाई की। चीन में चर्च का प्रचार करने वाले बहुत से लोग अपने ऊपर कार्रवाई का अंदेशा होते ही हांगकांग में प्रश्रय ले लेते हैं।
भारत में भी ईसाई देशों के ईसाइयत के प्रसार के प्रयास जारी हंै। भारत को उस पर गौर करने की आवश्यकता है। भारत 1,000 साल तक गुलाम रहा है। 400 वर्ष अफगानिस्तानी आक्रांताओं ने यहां राज किया। बाद में 400 वर्ष मुगलों ने राज किया। फिर ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी करनी पड़ी। भारत में वर्तमान में जो आतंकवादी हमले जारी हैं, वे केवल छोटी-मोटी घटनाएं नहीं हैं, बल्कि दीर्घकालिक लड़ाई का हिस्सा हैं। इसलिए जागरूकता होनी आवश्यक है।
एक सौ वर्ष पूर्व दुनिया में ईसाइयों की संख्या केवल 61 करोड़ थी। आज वह संख्या बढ़कर दो अरब बीस करोड़ हो चुकी है। हां, आज वह यूरोप-अमेरिका में नास्तिकता की लहर के कारण आधे पर आई है। जबकि इसकी भरपाई के लिए मिशनरियों ने दुनिया भर में कन्वर्जन के आधार पर इसकी संख्या को तीन अरब तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है।
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