|
डॉ. संतोष कुमार तिवारी
जून 2017 में कर्नाटक विधानसभा ने दो पत्रकारों को एक-एक वर्ष जेल की सजा सुनाई और दस-दस हजार रुपये का जुर्माना भी ठोका। इन पत्रकारों पर विधायकों के विरुद्ध अवमाननापूर्ण लेख लिखने का आरोप है। जुर्माना नहीं भरने पर दोनों को छह माह अतिरिक्त कैद की सजा भुगतनी पड़ेगी। इन पत्रकारों के नाम हैं रवि बेलागेरे और अनिल राजू। इसी प्रकार अगस्त 2002 में महाराष्ट्र विधान परिषद ने ‘महानगर’ के संपादक निखिल वागले को एक दिन कैद की सजा सुनाई थी। उन पर आरोप था कि उन्होंने 1998 में एक लेख में विधान परिषद की अवमानना की। अप्रैल 1987 में तमिलनाडु विधानसभा ने ‘आनंद विकटन’ साप्ताहिक के संपादक बालासुब्रमण्यम को कैद की सजा सुनाई थी। उन पर आरोप था कि पत्रिका में छपे कार्टून से विधानसभा की अवमानना हुई है।
विधानसभाओं द्वारा पत्रकारों को जेल भेजने की घटनाएं करीब हर दो-चार साल में देश में कहीं न कहीं होती हैं। 1964 में उत्तर प्रदेश विधानसभा ने तो गजब ही कर दिया था। विधानसभा अध्यक्ष ने गोरखपुर निवासी केशव सिंह को अवमाननापूर्ण पत्र लिखने के आरोप में सात दिन कैद की सजा सुनाई थी। इसके विरुद्ध केशव सिंह के वकील बी. सोलोमन ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में रिट याचिका दायर की। मामले के अंतिम निबटारे तक खंडपीठ के दो न्यायाधीशों ने केशव सिंह को जमानत दे दी। लेकिन इससे नाराज विधानसभा अध्यक्ष ने केशव के वकील और दोनों न्यायाधीशों को पकड़ कर विधानसभा में पेश करने का आदेश दिया। इस आदेश को निरस्त कराने के लिए दोनों न्यायाधीशों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय से अपील की। उच्च न्यायालय की 28 जजों वाली पूर्ण पीठ ने विधानसभा के आदेश पर रोक लगा दी। इस बीच, राष्ट्रपति ने मामले के प्रमुख बिंदुओं पर उच्चतम न्यायालय की राय मांगी। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि दोनों न्यायाधीशों को केशव सिंह को जमानत पर रिहा करने का पूरा अधिकार था। (न्यायालय की राय का वर्णन राम जेठमलानी और बीएस चोपड़ा की पुस्तक ‘केसेज एंड मेटेरियल आॅन मीडिया लॉ’ के पृष्ठ संख्या 889-981 में किया गया है। पुस्तक का प्रकाशन 2010 में टॉमसन रायटर्स ने किया।) प्रश्न है कि विधानसभाओं, विधान परिषदों और संसद के दोनों सदनों को जेल की सजा देने का यह विशेषाधिकार कहां से और क्यों मिला है?
संविधान के अनुच्छेद 105(3) और 194(3) में क्रमश: संसद और राज्यों की कर्नाटक विधानसभा द्वारा पिछले दिनों दो पत्रकारों को गिरफ्तार कराने के बाद फिर से चर्चा हाउस आॅफ कॉमंस के उस विशेषाधिकार की तरफ मुड़ी है जिसका उपयोग भारत के विधायी सदन आज भी कर रहे हैंविधानपालिकाओं के दोनों सदनों को विशेषाधिकार दिए गए हैं। जब संविधान लागू हुआ था, तब ये विशेषाधिकार वही थे जो कि उस तारीख पर ब्रिटिश हाउस आॅफ कॉमंस के थे। ब्रिटिश हाउस आॅफ कॉमंस को विशेषाधिकारों की आवश्यकता इसलिए पड़ी, क्योंकि उसका उद्भव और विकास ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध हुआ। जब हाउस आॅफ कॉमंस का गठन हुआ, तब राजा अपने कुछ खास गुर्गों को उसमें भेजता था, जो राजा को बताते थे कि उसके विरुद्ध कौन-कौन बोल रहा है। इसके बाद हाउस आॅफ कॉमंस के बाहर उन सदस्यों की पिटाई हो जाती थी। इस प्रकार हाउस आॅफ कॉमंस को इस विशेषाधिकार की आवश्यकता पड़ी कि अनजान लोगों को कार्रवाई देखने की इजाजत न दी जाए। आज भी देश में संसद या विधानसभा की कार्रवाई देखने के इच्छुक लोगों को पास जारी किया जाता है।
अधिकांश लोगों को यह मालूम नहीं होगा कि ब्रिटिश राजा या रानी हाउस आॅफ कॉमंस में प्रवेश नहीं कर सकते। 1642 में अंतिम बार चार्ल्स प्रथम ने हाउस आॅफ कॉमंस में प्रवेश किया था। 1648 को चार्ल्स प्रथम की हत्या कर दी गई थी। ज्यों-ज्यों हाउस आॅफ कॉमंस का विकास हुआ, उसे विशेषाधिकारों की जरूरत पड़ती गई। इनमें एक था जेल भेजने का अधिकार, लेकिन 1880 के बाद हाउस आॅफ कॉमंस ने इस विशेषाधिकार का उपयोग नहीं किया। 1948 में ब्रिटिश अखबार ‘डेली मेल’ ने लेबर पार्टी के एक सांसद को कम्युनिस्टों का एजेंट करार दिया था।
जब यह मामला हाउस आॅफ कॉमंस की विशेषाधिकार समिति के समक्ष रखा गया तो समिति ने फैसला दिया कि जेल भेजने के विशेषाधिकार का उपयोग प्रेस स्वातंत्र्य के विरुद्ध न किया जाए। 26 जनवरी, 1950 से हाउस आॅफ कॉमंस पत्रकारों को जेल भेजने के विशेषाधिकार का प्रयोग नहीं कर रही, क्योंकि यह उसके लिए अनुपयोगी हो चुका है।
भारत की संसद, विधानसभा और विधान परिषदों को ऐसा कोई अधिकार नहीं है कि वे पत्रकारों को जेल भेज सकें। 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 के तहत अनुच्छेद 105(3) और 194(3) में कुछ संशोधन किए गए थे। प्रख्यात कानूनविद् डॉ. दुर्गादास बसु का मानना है कि आज भी भारत की संसद और विधानमंडलों के विशेषाधिकार वही हैं जो 26 जनवरी 1950 में ब्रिटिश हाउस आॅफ कॉमंस के थे। इन अनुच्छेदों में यह व्यवस्था है कि हमारे देश की संसद और विधानमंडल अपने विशेषाधिकारों का संहिताकरण करेंगे। परंतु 67 वर्षों के बाद भी किसी ने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है।
(लेखक झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय, जनसंचार विभाग के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं)
टिप्पणियाँ