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मार्क्स और लेनिन को पढ़ने वाला जब मां नर्मदा की स्तुति लिखता है तो उस वामतंत्र की पोल खुलने लगती है,जो धर्म को अफीम बताकर दिलों में जहर भरता रहा है और केवल बंदूक की भाषा जानता है
लोकेन्द्र सिंह
समें संदेह नहीं है कि संसार की बेहतरी के लिए कम्युनिज्म से ज्यादा बेहतर मार्ग भारतीय संस्कृति और ज्ञान-परंपरा में दिखाया गया है। कोई व्यक्ति जवानी में कम्युनिस्ट क्यों होता है और बाद में उससे विमुख क्यों हो जाता है? इसके पीछे का कारण बड़ा स्पष्ट है। एक समय में देश के लगभग सभी शिक्षा संस्थानों में कम्युनिस्टों की घुसपैठ थी, उनका वर्चस्व था। यह स्थिति अब भी ज्यादा नहीं बदली है। जब कोई युवा उच्च शिक्षा के लिए महाविद्यालयों में आता है, तब वहां कम्युनिस्ट शिक्षक उसके निर्मल मनो-मस्तिष्क में कम्युनिज्म का बीज रोपकर हर दिन उसमें जहर भरते हैं। बचपन से वह जिन सामाजिक मूल्यों के साथ बड़ा हुआ, जिन परंपराओं का पालन करने में उसे आनंद आया, मां के साथ मंदिर आने-जाने से भगवान के जिन भजनों में उसका मन रमता था, उससे उसे दूर रहने के लिए कहा जाता है। बस यहीं से उसके दिमाग में कम्युनिज्म विचारधारा का बीज अंकुरित होकर आकार लेने लगता है। तब वह इन्हीं सबसे घृणा की हद तक नफरत करने लगता है। इस हकीकत को समझने के लिए फिल्म निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की फिल्म 'बुद्धा इन ट्रैफिक जाम' को देखा जा सकता है। बहरहाल, जब वह नौजवान महाविद्यालय से निकलकर असल जिंदगी में आता है, तब उसे कम्युनिज्म की सब अवधारणाएं खोखली और अव्यवहारिक लगने लगती हैं। कॉलेज में दी जा रही कम्युनिज्म की 'डोज' की जकड़न से यहां उसके विवेक को आजादी मिलती है। उसका विवेक जागृत होता है, वह स्वतंत्रता के साथ विचार करता है। परिणाम यह होता है कि कुछ समय पहले जो विचार क्रांति के लिए उसकी रगों में उबाल ला रहा था, अब उस विचार से उसे बेरुखी हो जाती है। वह विचारधारा उसे मृत प्रतीत होती है। यानी विवेक जागृत होने पर कम्युनिज्म का भूत उतर जाता है।
जवानी के दिनों में कम्युनिस्ट रहे ऐसे ही एक व्यक्ति से मेरी मुलाकात अमरकंटक के जंगलों में हुई। अपने कॉलेज के दिनों मेंं कॉमरेड रहे रामदास अब 'उदासीन संत रामजीदास' महाराज के रूप में जाने जाते हैं। एक जमाने में कार्ल मार्क्स, लेनिन, स्टालिन और माओ को पढ़ने वाले रामदास अब पौराणिक देवी मां कर्मा के जीवन पर महाकाव्य 'कर्मा चरित प्रकाश' सद्साहित्य की रचना कर रहे हैं। कम्युनिज्म के प्रभाव में धर्म को अफीम मानने और बताने वाले रामजी अब अध्यात्म की शरण में हैं और धूनी रमाकर मां नर्मदा की स्तुति करते हैं।
नर्मदा के उद्गमस्थल अमरकंटक में घने जंगल के बीच एक स्थान है, धूनी-पानी। नर्मदा उद्गम से महज 4-5 किमी दूर स्थित यह साधु-संतों की तपोस्थली है। ऐसा माना जाता है कि किसी समय एक संन्यासी ने यहां धूनी रमा कर तपस्या की थी। यहां पानी नहीं था। उन्हें पानी लेने के लिए थोड़ी दूर स्थित 'चिलम पानी' जाना पड़ता था। संन्यासी ने जल के लिए मां नर्मदा से प्रार्थना की, तब 'धूनी' के समीप ही पांच जल स्रोत फूट पड़े। बस तभी से इस स्थान का नाम धूनी-पानी पड़ा। बहरहाल, जब हम इस स्थान पर पहुंचे तो देखा कि धूनी वाले स्थान पर एक दोमंजिला मंदिरनुमा घर बना है, जिसके द्वार पर एक ‘संत रामजीदास’ खड़े हैं। उनसे मेरी अनौपचारिक मुलाकात हुई। इसी दौरान बातचीत के समय उनके मुंह से सहज निकल गया कि वे कम्युनिस्ट थे। मैंने बात पकड़ ली। उसके बाद हमारी समूची बातचीत कम्युनिज्म पर ही केंद्रित रही। मैंने उनसे पूछा— ‘‘कम्युनिज्म को छोड़कर आप अध्यात्म की तरफ कैसे आए, जबकि कम्युनिस्ट तो धर्म को अफीम मानते हैं? ’’ साथ ही 'जवानी में कम्युनिस्ट और बुढ़ापे में अध्यात्म' के कथन पर भरोसा करते हैं? इन प्रश्नों का उत्तर जब वह दे रहे थे, उसी समय मैंने उनसे यह भी प्रश्न किया कि कम्युनिज्म से दुनिया का मोहभंग क्या इसलिए हो रहा है, क्योंकि कम्युनिज्म के विचार व्यावहारिक नहीं हैं? उन्होंने विस्तार से अपनी 'कम्युनिज्म से अध्यात्म की यात्रा' सुनाई और इन सब सवालों पर साफगोई से अपने विचार एवं अनुभव प्रकट किए।
करीब 70 साल के संत रामजीदास इन प्रश्नों का जवाब देते हुए कहते हैं,‘‘गायत्री परिवार से मेरे आध्यात्मिक जीवन की यात्रा शुरू हुई थी। रीवा जिले की त्योथर तहसील मेरी जन्मस्थली है। कॉलेज की पढ़ाई खत्म करने के बाद यायावर बनकर सामाजिक क्रांति की योजनाएं बनाते रहते थे। उन्हीं दिनों गांव में गायत्री परिवार की ओर से यज्ञ, दीक्षा और प्रवचन के कार्यक्रम का आयोजन हुआ। एक रिश्तेदार ने आयोजन में मुझसे भी चलने का आग्रह किया। पहले तो मैंने चलने के लिए न कहा और बताया कि धार्मिक कर्म-काण्डों में हम नहीं जाते। यह सब बेकार की बातें हैं। लेकिन, बार-बार आग्रह करने के बाद मैं उनके मन को रखने के लिए तैयार हो गया। गायत्री परिवार के कार्यकर्ता श्री रघुवंशी वहां प्रवचन देने के लिए आए थे। बस यहीं से सब बदल गया। जो रामजीदास इस कार्यक्रम में आने के लिए तैयार नहीं था अब वे उनके प्रवचनों को सुनकर मंत्रमुग्ध था।’’ वह बताते हैं, ‘‘ मेरे ऊपर उन प्रवचनों का कुछ ही समय में ऐसा प्रभाव हुआ कि मैं उनका शिष्यत्व स्वीकार करने की जिद करने लगा। तब श्री रघुवंशी ने मुझे हरिद्वार चलने के लिए कहा और आचार्य श्रीराम शर्मा से मुझे दीक्षा दिलाई।’’ संत रामजीदास बातचीत में बताते हैं कि मैंने श्री रघुवंशी से कहा कि आपके प्रवचनों में जो कहा गया, वह कम्युनिस्ट विचार से भी ज्यादा अच्छा है। कम्युनिस्ट होकर मैं समाज के लिए जो नहीं कर सका, संभवत: वह गायत्री परिवार के साथ जुड़कर कर पाऊंगा।
वे आगे की यात्रा के बारे में बताते हैं, ‘‘दीक्षा लेने के बाद मैं सात साल तक गायत्री परिवार का हिस्सा रहा और गांव-गांव जाकर समाज के वंचित लोगों से कर्मकांड और यज्ञ करा कर सामाजिक समरसता का कार्य करता रहा। इसी दौरान उदासीन अखाड़े से जुड़ा पर मन नहीं लगा। आखिर में धूनी-पानी से मां नर्मदा का बुलावा आ गया। तब से यहां रहकर मां नर्मदा की स्तुति में गीत लिख रहा हूं।
वे कहते हैं,‘‘यह सही है कि कम्युनिज्म विचारधारा अपरिपक्व नौजवानों को आकर्षक लगती है। उस दौर में तो कम्युनिज्म का जबरदस्त प्रभाव था। लेकिन, यह भी हकीकत है कि कम्युनिज्म विचारधारा व्यावहारिक नहीं है। इस विचारधारा और उसकी शासन व्यवस्था में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है। जहां कम्युनिस्ट शासन रहा वहां आप खुलकर व्यवस्था के विरुद्ध नहीं बोल सकते। बस हुक्म मानना पड़ता है। एक विचारवान व्यक्ति के लिए यह स्थिति बड़ी कष्टकारी होती है। दुनियाभर में अपना प्रभाव जमाने वाली कम्युनिज्म विचारधारा के खत्म होने का कारण यही है कि यह मूलत: तानाशाही है। आज कहीं भी मार्क्स और स्टालिन का कम्युनिज्म नहीं बचा है। चीन में भी साम्यवाद अब पूंजीवाद में बदल गया है। अपने बाजार को विस्तार देने के लिए चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग को भी अब अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप से मिलना पड़ता है।’’ धर्म विरोधी होने के प्रश्न पर उन्होंने कहा, ‘‘कम्युनिस्ट यहीं असफल रहे हैं। वे धर्म और अध्यात्म को ठीक से समझ नहीं पाए। धर्म का विरोध करना किसी भी प्रकार से उचित नहीं है। धर्म अफीम नहीं है।’’ बहरहाल, गोस्वामी तुलसीदास जी के रामचरितमानस से प्रेरित होकर रामजीदास ने देवी कर्मा के जीवन पर 'कर्मा चरित प्रकाश' महाकाव्य की रचना की है। वह आचार्य श्रीराम शर्मा से भी प्रेरित हैं। वे कहते हैं कि जिस प्रकार आचार्य ने गायत्री मां और गायत्री मंत्र को स्थापित किया है, उसी तरह वे भी देवी कर्मा को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं। ल्ल
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