सलीब और सवाल :सांसत में ईसाइयत!
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सलीब और सवाल :सांसत में ईसाइयत!

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Jul 3, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Jul 2017 10:11:56

स्कैंनडिनेवियाई देशों सहित यूरोप के कई देशों में आज ईसाइयत के प्रति रुझान में आ रही गिरावट के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। उन देशों में नास्तिकों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है जो कभी अपनी अकूत संपत्ति और चर्च के दम पर दूसरे देशों को गुलाम बनाया करते थे
मोरेश्वर जोशी

रोप का हर देश सदियों से रही अपनी ईसाई पहचान को आज किस तरह समाप्त कर रहा है, इसके नित नए प्रमाण सामने आ रहे हंै। और यह चलन केवल पंथ तक सीमित नहीं है। यूरोप-अमेरिका के आज तक जो भी ताकत के केन्द्र थे, वे सब अब खंडित होते दिखाई दे रहे हैं। केवल आर्थिक शक्ति के बल पर पूरी दुनिया के बाजारों पर पकड़ बनाए रखने वाली इन महाशक्तियों को बड़ी जनसंख्या वाले देशों से चुनौती मिलने लगी है। चीन, भारत और रूस में आम जनता की मेहनत को अहमियत देने वाली सत्ताओं के उभार के कारण उन देशों में महाशक्तियों का अर्थतंत्र बेअसर होने लगा हैं। अमेरिका में राष्टÑपति के पद पर डोनाल्ड ट्रंप का बैठना इस तरफ एक संकेत करता है। पश्चिमी देशों में अर्थसत्ता और पांथिक सत्ताओं के बीच रोजाना के कामकाज में संबंध न होने पर भी वे उन महाशक्तियों का आधार हंै।
इस संदर्भ में कई बड़े ईसाई देशों में वही सब घट रहा है जो यूरोप के अन्य छोटे देशों में देखने में आ रहा है। इन सारी घटनाओं पर भारत सहित दुनिया में तीसरी दुनिया के देशों को गंभीर दृष्टि डालने की जरूरत है। कारण यह कि, आज भी तीसरी दुनिया के 125 देशों पर चर्च संगठनों की पकड़ है। भारत में चर्च संगठनों ने यहां के जिहादी आतंकवाद और माओवादी संगठनों की आतंकी गतिविधियों में साजिशपूर्ण भूमिका निभाई है। राजीव मल्होत्रा की ‘ब्रेकिंग इंडिया’ पुस्तक में इसके सैकड़ों प्रणाम दिए गए हैं। इन्हीं आतंकी गतिविधियों में वे तमिल आंदोलनकारियों और पूर्वोत्तर के विद्राहियों को भी जोड़ने के लिए प्रयासरत हंै। भारत में इन आतंकवादी संगठनों के हमदर्द सेकुलर राजनीतिक दलों पर इन पश्चिमी चर्च पोषित संगठनों का ही वरदहस्त है। समय आ गया है कि जब हमें पश्चिमी महाशक्तियों की अर्थसत्ता और चर्च के दबदबे का यह बोझ उतार फेंकने की जरूरत है।
पश्चिमी देशों में ईसाइयत के विखंडित होने की इस प्रक्रिया के बारे में हम पहले बात कर चुके हैं। इस संदर्भ में बाल्टिक देशों, स्कैंडिनेवियाई देशों, लातिनी अमेरिकी देशों, न्यूजीलैंड, फिलिपींस आदि में घट रही घटनाएं उतनी ही महत्वपूर्ण हंै। पूर्वोत्तर यूरोप में नीदरलैंड्स कोई बड़ा देश नहीं है। लेकिन वहां के बुद्धिजीवियों ने अपने देश के पंथ के बारे में कई सूक्ष्म बातों का अध्ययन किया है। इस देश के एक समाचारपत्र ‘एन. एल. टाइम्स’ ने 15 जनवरी को किए अपने एक अध्ययन में पाया है कि देश में ईसाइयत के अनुयायियों की तुलना में नास्तिकों की संख्या अधिक है। ठीक यही स्थिति यूरोप के कई देशों में है। लेकिन नीदरलैंड्स की विशेषता यह है कि जो लोग पंथ को भले न मानते हों, पर वे परमेश्वर नाम की शक्ति को मानते हंै। ऐसे लोगों के लिए वहां ‘एग्नोस्टिक’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। नीदरलैंड्स में 53 प्रतिशत  लोगों का आज भी मानना है कि ‘मृत्यु के बाद जीवन’ है और 40 प्रतिशत लोग खुद को आस्थावान की बजाय आध्यात्मिक कहलाना पसंद करते हैं। वहां के सामाजिक और सांस्कृतिक योजना के अध्ययन के अनुसार वहां ईसाइयत के अनुयायियों की संख्या तेजी से कम हो रही है। 2012 के अध्ययन में देखा गया था कि पंथ को न मानने वालों की तुलना में आस्तिकों की संख्या अधिक थी, लेकिन उसके बाद स्थिति तेजी से बदल गई। वहां के एक मनोवैज्ञानिक जॉक वॅन सान के अनुसार, 21वीं सदी में आम आदमी जिस जीवनशैली पर चल रहा है, उसमें ईश्वर का अस्तित्व मानने की बजाय आधुनिकता को अपनाना प्राथमिक विषय बन गया है। आम आदमी के निजी जीवन में विज्ञान का प्रभाव अधिक होने की वजह से अन्य बातों का महत्व कम होने लगा है। लेकिन यूरोप के कई अन्य देशों एवं नीदरलैंड्स में एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि यूरोप की युवा पीढ़ी का रुझान आध्यात्मिकता की ओर अधिक है। हालांकि इससे आगे के उनके चलन के बारे में कोई निष्कर्ष निकालना अभी जल्दबाजी होगी, लेकिन यह देखना महत्वपूर्ण होगा।
इसी अध्ययन में यूरोपीय देशों के अलावा चीन, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देश भी शामिल थे। 4 साल पहले आई इस अंतरराष्ट्रीय अध्ययन रपट का निष्कर्ष है कि उन 57 देशों में ईश्वर में विश्वास न करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है और आज दुनिया में ऐसे लोगों का अनुपात 10 प्रतिशत से ज्यादा हो गया है। सर्वेक्षण में 51,000 लोगों से पूछा गया था कि आप किस मठ, मंदिर, मस्जिद या चर्च में जाते हैं, इसकी बजाय यह बताएं कि आप पंथ को मानते हैं या पंथ को नहीं मानते हैं या निश्चित रूप से नास्तिक (एथीस्ट) हैं। इसमें 13 प्रतिशत लोगों ने उत्तर दिया कि वे निश्चित रूप से नास्तिक हैं। 59 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे निश्चित रूप से परमेश्वर को मानते हंै। 23 प्रतिशत ने कहा कि वे पंथ को नहीं मानते। नास्तिक वह है जो कड़ाई से ईश्वर के अस्तित्व को नकारे और पंथ को न मानने वाला वह होता है जिसका पंथ पर विश्वास नहीं होता।
पंथ पर यकीन न करने वालों की संख्या 2005 में 9 प्रतिशत थी जो आज 23 प्रतिशत है। सर्वेक्षण करने वाली संस्था ‘रेड सी’ आयरलैंड की है। ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से बाहर निकलना है या स्वतंत्र रहना है, इस बारे में इस संस्था द्वारा किए गए अध्ययन के निष्कर्ष मतदान से पहले ही अचूक आए थे। दुनिया के अन्य स्थानों पर किए गए निरीक्षणों और ‘रेड सी’ द्वारा पूरी दुनिया में किए गए अध्ययनों की रपट में महत्वपूर्ण फर्क यह है कि ‘रेड सी’ का कहना है कि पंथ को न मानने वालों में महिलाओं की संख्या अधिक है। जबकि आम मान्यता है कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक आस्थावान होती हंै। उक्त सर्वेक्षण में स्पष्ट हो चुका है कि 14 प्रतिशत महिलाएं नास्तिक हैं। इस संदर्भ में पुरुषों का अनुपात 12 प्रतिशत है। उसमें भी जिनकी शिक्षा विश्वविद्यालय स्तर तक की है उनमें नास्तिक भाव रखने वाली 19 प्रतिशत हंै, लेकिन विश्वविद्यालय से और उच्च शिक्षा वाली 65 वर्ष से अधिक उम्र वालों में ईश्वर में विश्वास करने का अनुपात 66 प्रतिशत है। यह स्पष्ट हो चुका है कि दुनिया में नास्तिकों की सर्वाधिक संख्या वाला देश चीन है जहां 47 प्रतिशत लोग नास्तिक हैं। इसके बाद स्थान आता है जापान का। औद्योगिक क्रांति का अनुभव करने वाले जापान में 31 प्रतिशत नास्तिक हंै। उसके बाद हैं क्रमश: चेक गणराज्य 30 प्रतिशत, फ्रांस 29 प्रतिशत, दक्षिण कोरिया 15 प्रतिशत, जर्मनी 15 प्रतिशत, नीदरलैंड्स 14 प्रतिशत, आॅस्ट्रिया 10 प्रतिशत, आॅस्ट्रेलिया 10 प्रतिशत और आयरलैंड 10 प्रतिशत। भगवान में विश्वास करने वालों की जो सूची संस्था के सर्वेक्षण से उभरी है, वह भी ऐसी ही चौंकाने वाली है। इसमें अफ्रीका के घाना देश का पहला स्थान है जहां के 96 प्रतिशत लोग ईश्वरभक्त हैं।  नाइजीरिया के 93 प्रतिशत लोग ईश्वर में विश्वास करते हंै। ये दोनों देश पश्चिमी अफ्रीका में हैं। उसके बाद है फिजी जहां 92 प्रतिशत लोगों की ईश्वर में आस्था है। अगला स्थान मेसेडोनिया का है जहां 90 प्रतिशत लोग ईश्वर को मानते हैं।  उसके बाद पूर्व यूरोप का रोमानिया है। इस देश में लंबे समय तक पूर्व सोवियत संघ का हिस्सा रहने के बावजूद ईश्वर के अस्तित्व में यकीन किया जाता है। सूची में आगे के देश इस प्रकार हैं-इराक (88 प्रतिशत), केन्या (88 प्रतिशत), पेरू (86 प्रतिशत) और ब्राजील (85 प्रतिशत)। अमेरिका में 22 राज्यों में कुल 60 प्रतिशत ईश्वरनिष्ठ लोग हैं। वहां 30 प्रतिशत ईश्वर को न मानने वाले हैं, जबकि 5 प्रतिशत ने स्पष्ट रूप से नास्तिक होने की बात कही है। यह रपट चार साल पहले की है। जिस देश में सबसे तेजी से ईश्वर में आस्था कम हुई है वह देश है आयरलैंड। वहां 2005 में 69 प्रतिशत आस्तिक थे। जो 2012 में 47 प्रतिशत रह गए। वहां रोमन कैथोलिक संप्रदाय लंबे समय तक प्राथमिक विषय रहा था। इसमें एक मुद्दा उभरता है कि यूरोप के नीदरलैंड्स जैसे छोटे और स्कैंडिनेवियाई देशों का अपना अलग प्रभाव है।
इन देशों की विशेषता यह है कि पिछली 5 शताब्दियों के दौरान जब हर यूरोपीय देश के कई दूसरे देशों में अपने-अपने उपनिवेश हुआ करते थे, उस समय उक्त देशों के बहुत ज्यादा उपनिवेश नहीं थे। दुनिया में यूरोपीय उपनिवेशों का समय 16वीं सदी में शुरू होता है और 20वीं सदी के मध्य तक चलता है। लेकिन इन देशों को 100-150 वर्ष का ही समय मिला। नीदरलैंड्स को जो जिम्मेदारी मिली वह थी अफ्रीका से गुलाम इकट्ठे करना और उन्हें अन्य देशों को बेचना। अफ्रीका, अमेरिका और एशिया में भी नीदरलैंड्स के कुछ उपनिवेश थे। मुख्यतया आज का न्यूयॉर्क शहर लंबे     समय तक डच यानी नीदरलैंडवासियों के कब्जे में था। भारत पर आक्रमण करने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी को खड़ा करने में इस देश की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ये छोटे देश ब्रिटेन की तरह महाशक्ति बनने की होड़ नें कभी भी नहीं थे, लेकिन फिर भी आने वाली 5-6 सदियों तक उनके वैभव में कोई कमी नहीं आएगी। लेकिन यह देश ईसाइयत से दूर हटने वालों में सबसे आगे है। फिर भी यहां लोग ईश्वर में यकीन रखने वालों के तौर पर अपनी भूमिका सहेजते आए हैं।     ल्ल

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