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दार्जिलिंग में जारी आंदोलन गोरखालैंड के लिए नहीं, बल्कि अपनी पहचान साबित करने के लिए है। गोरखाओं के लिए ‘मी गोरखाली’ सबसे पहले है। सुविधाओं का अभाव क्रोध को हवा देता है
निधि सिंह
देश में जब भी किसी बड़े राज्य को बांट कर नया राज्य बनाया गया, उसके पीछे हर बार मुद्दा विकास ही रहा। इनमें बेहतर शिक्षा, रोजगार, अच्छी सड़कें, नए उद्योग इत्यादि प्रमुख थे। लेकिन दार्जिलिंग में यही मुद्दे बार-बार विफल हो रहे हैं। सवाल यह है कि क्या ये मुद्दे लोगों के हैं या उनके नेताओं के? आखिर हर बार कुछ साल तक शांत रहने के बाद आंदोलन क्यों भड़कता है?
आंदोलन चाहे 1986 में गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा या 2008 में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा की अगुआई वाला हो, यह विकास या अलग राज्य को लेकर नहीं था। यह सिर्फ और सिर्फ अपनी पहचान साबित करने या इसे बनाए रखने के लिए था। एक नेपाली भाषी गोरखा को यही बात संवेदनशील लगती है। ‘मी गोरखाली’: यह वाक्य अधूरा लगता है, लेकिन है पूर्ण, क्योंकि यह उस अभिव्यक्ति का हिस्सा है जिसमें उसकी पहचान छिपी है। मेरा नाम … है, मैं … का निवासी हूं। भारतीय मूल का हिंदू राष्ट्रवादी हूं, लेकिन सबसे पहले गोरखा हूं। उत्तर बंगाल के आम लोग, चाहे वे गोरखा हों या अन्य, उनका एक ही सपना है— बेहतर जीवन। ये खुद को बहुसंख्यक बंगालियों के करीब बिल्कुल नहीं पाते। यहां यह समझना जरूरी है कि इनमें सिर्फ गोरखा ही नहीं, अपितु भूटिया, लेपचा, लिम्बू, राइ, तमांग, सुब्बा, राजवंशी जैसे समुदायों के अलावा वनवासी जनजातियां भी हैं जिन्हें अंग्रेज लेकर आए। यहां व्यापार पर मजबूत पकड़ रखने वाले राजस्थान के मारवाड़ी समुदाय की संख्या भी अच्छी खासी है। वस्तुत:
यह इलाका लेपचा जाति का है, जो बौद्ध अनुयायी हैं।
निस्संदेह दार्जिलिंग क्षेत्र का विस्तार ब्रिटिश काल में हुआ, लेकिन इस पर भूटान, सिक्किम और नेपाल की राजशाही का प्रभाव दिखता है। कलिम्पोंग में भूटान के राजघराने की संपत्ति आज भी है। वहीं, मिरिक, दार्जिलिंग टाउन, तेराई और डुअर्स में रहने वालों के नेपाल में पारिवारिक संबंध हैं। दरअसल, उत्तर बंगाल के निवासी खुद को उत्तर-पूर्वी भारत के ज्यादा करीब मानते हैं। खासकर उनका खान-पान, पहनावा, सोच, धर्म और सामाजिक संरचना उत्तर-पूर्व की तरह है। उत्तर-पूर्व को विशेष दर्जा हासिल है। पड़ोस में सिक्किम को ही ले लें, जहां हर सुविधा उपलब्ध है, लेकिन इन लोगों को अपनी हर जरूरत के लिए कोलकाता जाना पड़ता है। लिहाजा तंगहाली, सहूलियतों के अभाव से परेशान लोगों के सामने आंदोलन ही एकमात्र रास्ता दिखता है।
दार्जिलिंग के चाय उद्योग पर नियंत्रण कोलकाता से होता है। इसमें स्थानीय लोगों की कोई भूमिका नहीं होती। हालांकि कुछ चाय बागान मालिक बदलते दौर के मुताबिक कामगारों के साथ तालमेल बैठाकर चलते हैं। लेकिन कोलकाता में बैठे अधिनायक के लिए वास्तव में यह उगाही का एक माध्यम है, जिसे वह खोना नहीं चाहता। रही बात पर्यटन उद्योग की तो, उसकी भी हालत कमोबेश ऐसी ही है। बार-बार होने वाले आंदोलन से पर्यटन उद्योग प्रभावित हो रहा है। इस बार भी आंदोलन शुरू होने पर सैलानी सिक्किम चले गए, लेकिन वहां के हालात भी बिगड़ गए। हेल्प टूरिज्म के राज बासु का कहना है, ‘‘इस बार आंदोलन का असर दार्जिलिंग के साथ सिक्किम में
भी दिखा।
हमारी परंपरा में अतिथि देव के समान है। पहले उसे आमंत्रित करना और रात में उठाकर भेज देना, यह सब ठीक नहीं हुआ। होटल उद्योग के साथ एक दिन का ‘होम स्टे’ पर्यटन का अहम हिस्सा है, जिसका सीधा फायदा स्थानीय लोगों को होता है। वहीं, सिलीगुड़ी का बाजार खुला जरूर है, मगर खरीदार नहीं हैं। सिलिगुड़ी में 70 फीसदी खरीदार पहाड़ से आते हैं। आंदोलन के कारण बाजार ठप है। यह एक राजनीतिक परिस्थिति है और समाधान भी उन्हीं के पास है।’’
हालांकि इस बार भी आंदोलन में आम जनता की हिस्सेदारी पहले की ही तरह रही। मौजूदा सरकार ने इसे और भड़काया। सत्तारूढ़ दल ने इस मुद्दे पर राजनीति ही की। राज्य सरकार ने बेवजह हर समुदाय के नाम पर 15 बोर्ड गठित कर दिए। लेकिन तमाम बोर्ड, स्वायत्त निकाय और परिषद अब तक इस समस्या का समाधान नहीं खोज पाए हैं। वास्तव में तृणमूल सरकार की मंशा ‘फूट डालो और राज करो’ की ही रही है। कलिम्पोंग को जिला और मिरिक अनुमंडल का दर्जा देने के बाद अचानक एक भाषा का मुद्दा उभर आया और घूम-फिर कर सुई उसी मौलिक पहचान पर अटक गई।
यह भाषा के आधार पर अलग राज्य की मांग नहीं है, बल्कि ऐसी भाषा के विरुद्ध है जिसे गोरखा अपना नहीं मानते। गोरखा भारती विचार मंच के सी.के. श्रेष्ठ कहते हैं, ‘‘अलग गोरखा राज्य मांगने का उद्देश्य अपनी पहचान सिद्ध करना है। हम हिंदू हैं, भारतीय हैं। देश के स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर अब तक हम अपना योगदान दे रहे हैं। इसके बावजूद हमारे लिए देश में ऐसी कोई जगह नहीं, जहां हम रह सकें। जिसे हम अपना पता-ठिकाना कह सकें। यह लड़ाई दार्जिलिंग के पहाड़ पर रहने वाले 8-10 लाख गोरखाओं की नहीं है, बल्कि देश के हर कोने में रहने वाले 1.5 करोड़ गोरखाओं की है, जो अपने ही देश में पहचान की तलाश कर रहे हैं।’’
हालांकि इस बार के गोरखालैंड आंदोलन का मिजाज कुछ अलग-सा है। आंदोलन में स्थानीय नेताओं की कमी नहीं है, लेकिन राजनेताओं को लगता है कि इसकी बागडोर आम जनता के हाथ में है। वैसे भी दार्जिलिंग में अमूमन हर राजनीतिक दल की स्वतंत्र इकाई है, जो अपने फैसले खुद लेते हैं, न कि उन्हें कोलकाता से निर्देश मिलते हैं। आंदोलन को देश भर के नेपाली भाषी समुदायों से ही नहीं, बल्कि विदेशों से भी समर्थन मिल रहा है। मीडिया भले ही ये सूचनाएं लोगों तक न पहुंचाए, लेकिन सोशल मीडिया इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
सिलिगुड़ी में आर्ट मार्ट गैलरी के संचालक शक्ति शर्मा का कहना है, ‘‘यहां के लोग अभी भी 20 साल पीछे हैं। सरकार कोई भी व्यवस्था करे, लेकिन उसके सदस्य मनोनीत नहीं होने चाहिए। उनका चुनाव होना चाहिए। हर बार क्षेत्र के लिए फंड तो आता है, लेकिन यह जनता तक नहीं पहुंचता। हालांकि अलग राज्य के लिए अभी हम तैयार नहीं हैं, लेकिन अगर हमें गोरखालैंड मिलता है तो सुरक्षा के लिहाज से यह देश के लिए फायदेमंद होगा।’’ मिरिक में रहने वाली मंजुना तमांग कहती हैं, ‘‘मुझे लगता है कि हमें ऐसे नेताओं की जरूरत है जो सही रास्ते पर आगे ले जा सकें। आंदोलन से जुड़े कुछ लोगों से हमें डर लगता है।’’
दो ऐतिहासिक फैसलों के बावजूद दार्जिलिंग की समस्या का हल नहीं निकलने के पीछे सबसे बड़ी वजह शायद यही है। आंदोलन की अगुआई करने वाले नेताओं ने लोगों को ‘गोरखालैंड’ का सपना तो दिखाया, लेकिन आगे का रास्ता नहीं सुझाया। बहरहाल, उत्तर बंगाल के लोग भी देश के अन्य राज्यों की तरह उद्योग, रोजगार और अन्य बुनियादी सुविधाएं चाहते हैं। ल्ल
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