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विस्तारवादी चीन प्राचीन रेशम मार्ग पर जो दावा जता रहा है, वास्तविकता उसके उलट है। पुराने नक्शे और तथ्य बताते हैं कि हान वंश के काल में भी चीन पुराने रेशम मार्ग से कोसों दूर था। इसलिए भारत को चीन के नारे ‘वन बेल्ट, वन रोड’ की जगह ‘वन कल्चर, वन रीजन’ का नारा देना चाहिए
रवि शंकर
भारत और चीन के संबंधों में एक बार फिर कड़वाहट उभरती दिख रही है। चीन ने कैलास-मानसरोवर जाने के रास्ते नाथू ला दर्रे का रास्ता बंद कर दिया है। भारत के प्रति चीन के साम्राज्यवादी रवैये की यह पहली घटना नहीं है। इससे पहले चीन ने पूरे मध्य एशिया पर अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए ओबोर की बात शुरू की थी। ओबोर यानी ‘वन बेल्ट, वन रोड’। वन रोड यानी सिल्क रोड। यह बात आश्चर्यजनक है कि चीन ने एक ‘रूट’ को ‘रोड’ बना दिया। यह कोई एक सड़क नहीं थी, बल्कि एक मार्ग था। इसमें कई सारी सड़कें थीं। यह एक पूरा इलाका था जिसमें छोटे-छोटे ढेर सारे बाजार थे और ढेर सारी सड़कें थीं। यह मार्ग विश्व के एक बड़े इलाके को आपस में जोड़ता था जिसमें चीन और रोम के अलावा भारत और कई देश आते थे। इसका कोई प्रारंभ बिंदु नहीं था जैसा कि आज चीन को इसका प्रारंभ बिंदु स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। इसका कोई अंतिम स्थल भी नहीं था जैसा कि आज रोम को इसका अंतिम स्थल बता दिया जाता है। रेशम मार्ग एक खास संस्कृति का अनुगामी था। यह संस्कृति थी भारत की। वास्तव में यह पूरा इलाका भारतीय संस्कृति के आदर्शों को मानने वाला था।
इसलिए ‘वन बेल्ट, वन रोड’ का चीनी नारा झूठा है। इसका सही नारा होना चाहिए ओसोर यानी ‘वन कल्चर, वन रीजन’। यह नारा भारत को देना चाहिए। ओबोर का चीनी नारा स्वभावत: साम्राज्यवादी तथा शोषणकारी पूंजीवादी प्रतीत होता है, जबकि ओसोर का भारतीय नारा मानवीय, शांतिकारक और सद्भाव तथा संवाद पैदा करने वाला होगा।
इस बात को समझने के लिए हमें सिल्क रोड की वास्तविकता, इतिहास और भूगोल को जानना होगा और इस पूरे इलाके की संस्कृति, राजनीति और भौगोलिक स्थिति पर ध्यान देना होगा। इस पूरे इलाके में भारत और चीन के ऐतिहासिक प्रभावों का अध्ययन करना होगा। तभी हम समझ पाएंगे कि ओबोर का नारा साम्राज्यवादी और ओसोर का नारा मानवतावादी है।
रेशम मार्ग हो या फिर सिल्क रोड, यह नाम ही मिथ्या है। इस मार्ग को यह नाम 1877 में एक जर्मन भूगोलवेत्ता फर्डिनेंड वन रिक्थोफेन ने दिया। सिल्क रोड शब्द का प्रयोग करने वाला दूसरा व्यक्ति भी एक जर्मन भूगोलवेत्ता था। आॅगस्ट हरमन नामक इस भूगोलवेत्ता ने वर्ष 1915 में एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था, ‘द सिल्क रोड्स फ्रॉम चाइना टू द रोमन एंपायर।’ जेम्स ए मिलवार्ड अपनी पुस्तक ‘द सिल्क रोड, ए वेरी शॉर्ट इंट्रोडक्शन’ में लिखते हैं, ‘‘इसने एक और भ्रामक समझ को बढ़ावा दिया जो कि आज भी इसके साथ जुड़ी हुई है। इसके अनुसार इस मार्ग का महत्व केवल चीन और भूमध्यसागरीय घाटी यानी पूरब और पश्चिम को जोड़ने में है। परंतु केवल मार्ग के दो छोर पर ध्यान देने से कई बिन्दु गायब हो जाते हैं। सबसे पहले तो यह कि इस यूरेशीय अंतरदेशीय व्यापार में सिल्क यानी रेशम का इतना अधिक महत्व नहीं रहा है। वास्तव में इस मार्ग पर अनेक सामान, जिसमें पालतू घोड़ों, सूती वस्त्र, कागज और बारूद महत्वपूर्ण हैं, और विचारों का आदान-प्रदान होता रहा है जिनका रेशम से कहीं अधिक व्यापक प्रभाव पड़ा।’’ मिलवार्ड आगे बताते हैं कि ‘हमें यह नहीं समझना चाहिए कि सिल्क रोड में केवल पूरब-पश्चिम का व्यापार शामिल था जो कि इस महाद्वीप के मध्य के मैदानी इलाकों में फैला था। ऐसा करके हम उन क्षेत्रों की उपेक्षा कर देंगे जिनमें प्रमुखत: उत्तरी भारत और आज का पाकिस्तान आते हैं और जो न केवल इस व्यापार का मुख्य केंद्र थे, बल्कि जिसका सूती वस्त्रों तथा बौद्ध विचारों के रूप में सामान तथा विचारों के यूरेशियन आदान-प्रदान में महत्वपूर्ण योगदान था।’
प्रश्न उठता है कि क्या इससे पहले इस मार्ग का अस्तित्व नहीं था या फिर इस मार्ग का कोई नाम नहीं था? यदि हम अस्तित्व की बात करें तो इस मार्ग का अस्तित्व तो था। आखिर तभी तो रिक्थोफेन को इसका नामकरण करने की सूझी। तो क्या इस मार्ग का कोई नाम नहीं था? यूरोपियनों की बात करें तो संभव है कि उन्हें इसका नाम न पता हो, परंतु अगर हम भारत की बात करें तो भारत में इसका नाम था। यह नाम था उत्तरापथ। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत इस मार्ग का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण खिलाड़ी रहा है। चीन का तो इस पूरे व्यापार में बहुत ही छोटा-सा हिस्सा हुआ करता था। मुख्य व्यापार भारत का था और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मुख्य राजनीतिक संरक्षण भी वर्षों तक भारत का ही रहा है। इस मार्ग से होने वाले व्यापार की प्रमुख वस्तुएं थीं, सभी प्रकार के वस्त्र, जिसमें सूती वस्त्र बड़ी मात्रा में थे, मसाले, नील, शक्कर, चावल और घोड़े-गाय जैसे पशु आदि। यदि हम अलबरूनी से लेकर प्लीनी द जूनियर तथा सीनियर तक के प्राचीन वर्णनों को पढ़ें, तो हमें ज्ञात होगा कि मिस्र और रोम के लिए भारत के सूती वस्त्र तथा मसाले बड़े आकर्षण का विषय थे। इन दोनों ही वस्तुओं की पूरी दुनिया में बहुत मांग थी। प्लीनी से लेकर बर्नियर तक लिखते हैं कि भारतीय मसालों के कारण पूरी दुनिया का सोना और चांदी भारत में आकर एकत्र हो जा रहे हैं।
कहा जा सकता है कि भारत इस व्यापार में सामान की आपूर्ति भले ही करता रहा हो, परंतु व्यापार पर तो चीन और अन्य देशों का ही कब्जा रहा होगा। परंतु यह बात भी सच नहीं है। अत्यंत प्रारंभिक काल से ही इस पूरे इलाके में भारतीय व्यापारियों के लंबे काफिलों का एकाधिकार रहा है। स्थानीय शासक उनका काफी सम्मान करते थे, जिनके कारण उनकी अर्थव्यवस्था सुदृढ़ रहती थी और करों का संग्रह बढ़ता था। बुखारा के उज्बेक खानों ने अपने प्रशासन में एक पद ही बना दिया था- ‘यसावुल ई हिंदुआन’ यानी हिंदुओं का रक्षक। इसका काम था हिंदू व्यापारियों के कल्याण की चिंता करना और बहुसंख्यक असहिष्णु मुसलमान समुदाय को दिए गए कर्ज की वसूली में उनकी सहायता करना। फारसी सफाविद साम्राज्य (1501-1722) ने भी समान रूप से हिंदू व्यापारियों और उनके काफिलों की रक्षा की और मुस्लिम लोगों के बीच रहते हुए उन्हें अपने रीति-रिवाजों का पालन करने की छूट दी। समझने की बात यह है कि ऐसा केवल व्यापार के कारण नहीं होता था। उन पर अभी तक इस्लाम की कट्टरवादिता का प्रभाव अधिक नहीं हो पाया था और वे भारतीय उदात्त परंपरा के अनुसार ही व्यवहार कर रहे थे। जब शासकों पर भी इस्लामी कट्टरता का प्रभाव बढ़ा तो केवल ईरान के इस्फाहान में 25,000 हिंदू व्यापारी मारे गए।
यहां ध्यान देने की बात यह भी है कि बुखारा उज्बेकिस्तान में आता है, जो कभी भी चीन का हिस्सा नहीं रहा। वास्तव में यदि हम कथित सिल्क रोड का नक्शा देखें तो इसका अधिकांश हिस्सा चीन के बाहर ही है, चीन के अंदर तो इसका कठिनाई से 10 प्रतिशत भाग ही होगा। चीन के बाहर रहे भाग पर भारतीय व्यापारियों का अधिकार रहा है। सातवीं-आठवीं शताब्दी में इस्लाम के प्रादुर्भाव और विस्तार से पहले तक इस पूरे इलाके में भारतीय राजाओं का ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शासन रहा। इस्लाम के विस्तार के बाद जब यहां की जनता और शासकों का मतांतरण हो गया, तब भी इस पूरे इलाके में लंबे समय तक एक प्रकार का सांप्रदायिक सद्भाव बना रहा है। इसका एक बड़ा कारण रहा है भारतीय उदात्त जीवन मूल्यों का इस पूरे इलाके में प्रभाव। पहले सनातन भारतीय परंपरा और फिर उसी परंपरा को आगे बढ़ाती बौद्ध परंपरा के प्रभाव में मध्य एशिया और यूरेशिया के पूरे इलाके में शांति और सद्भाव का वह वातावरण बना रहा जिसमें व्यापार खूब फला-फूला।
ध्यान देने की बात यह है कि जिसे आज कथित सिल्क रोड की चीनी पहचान से जाना-पहचाना जा रहा है, वह पूरा इलाका कभी चीन में रहा ही नहीं है। चीनी तुर्किस्तान के नाम से प्रसिद्ध सिक्यिांग आदि जो इलाके आज चीन में हैं, वे भी वर्ष 1945-50 के पहले कभी चीन में नहीं रहे। यदि हम विभिन्न शताब्दियों में चीन के नक्शे को देखें तो 220 ईसा पूर्व के हान राजवंश से लेकर चौदहवीं शताब्दी के युवान राजवंश तक ये सारे इलाके भारतीय प्रभावक्षेत्र में ही रहे हैं। युवान राजवंश वास्तव में चीनी राजवंश नहीं है, वह मंगोल राजवंश है और उस काल में चीन मंगोलों का गुलाम था।
इसलिए चीन जिस इतिहास के बल पर कथित सिल्क रोड पर अपने प्रभावक्षेत्र की बात कर रहा है, वहां वास्तव में गुलाम चीन के मंगोल राजवंश का प्रभाव रहा है। हमें यह भी जानना चाहिए कि मंगोल दिखने में भले ही चीनी जैसे हों, उनकी संस्कृति पर चीनियों की बजाय भारतीय प्रभाव काफी गहरा और प्रत्यक्ष दिखता है। मध्य एशिया के इस व्यापारिक पथ, उत्तरापथ पर कभी भी भारतीयों और हिंदुओं को किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा और वे चीन से लेकर पश्चिमोत्तर में रूस, मध्य में ईरान, अरब और दक्षिण-पश्चिम में भूमध्यसागरीय यूरोपीय देशों और अफ्रीका तक निर्बाध व्यापार करते रहे। इस पूरे इलाके में भारतीय हिंदू प्रभाव के अनेक सूत्र पुरातात्विक खुदाई में भी प्राप्त होते रहे हैं।
सिल्क रोड को एक रोड के रूप में देखने से यही समस्या आती है। इसे हमें एक क्षेत्र के रूप में ही देखना होगा। जब हम इसे एक क्षेत्र के रूप में देखेंगे तो केवल व्यापार महत्वपूर्ण नहीं रह जाएगा, बल्कि विचारों और संस्कृतियों का परस्पर जुड़ाव तथा विनिमय अधिक महत्व की वस्तु होंगे और इसमें चीन का योगदान शून्य ही है। जो भी योगदान है, वह भारत का है। वैलेरी हानसेन अपनी पुस्तक ‘द सिल्क रोड: ए न्यू हिस्ट्री’ में लिखती हैं, ‘‘इन कागजातों से मुख्य खिलाड़ियों, व्यापार की सामग्रियों, काफिलों के आकार और इस व्यापार के मार्ग में पड़ने वाले स्थानीय लोगों पर होने वाले प्रभाव को समझना संभव हो पाता है। ये सिल्क रोड के वृहत्तर प्रभावों को भी स्पष्ट करते हैं, विशेषकर आस्था संबंधी विश्वासों और तकनीक को, जिन्हें युद्ध-जर्जर इलाकों से भाग कर आए हुए विस्थापित लोग अपने साथ लेकर आए। ़.़भारत में जन्मे बौद्ध मत, जो चीन में काफी लोकप्रिय हो चुका था, का निश्चित ही सबसे अधिक प्रभाव था, परंतु बेबीलोन के मैनिकेइज्म, जरथ्रुष्टवादियों तथा सीरिया के पूर्वी ईसाई चर्च का भी थोड़ा-बहुत प्रभाव था।’’ हानसेन लिखती हैं कि इस्लाम के उदय के पहले तक इस पूरे इलाके के विभिन्न समुदायों के लोग एक-दूसरे की आस्थाओं के प्रति आश्चर्यजनक रूप से सहिष्णु थे। शासक व्यक्तिगत रूप से किसी मत को छोड़कर कोई दूसरा मत स्वीकार करते थे और अपनी प्रजा को उनका अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित भी करते थे, परंतु वे अन्य मतावलंबियों को भी उनके रिवाजों का पालन करने की पूरी छूट देते थे। यह सहिष्णु परंपरा भारत की है और यहीं से पूरे यूरेशिया में फैली थी।
इसी सद्भाव और मानवीय व्यवहारों की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए भारत को सार्क की तर्ज पर ओसोर बनाने की पहल करनी चाहिए। अपने इतिहास और परंपरा के एकत्व के आधार पर भारत तथा मध्य और दक्षिण एशिया के अनेक देशों के लिए यह एक साझा मंच हो सकता है जहां सांस्कृतिक आदान-प्रदान तथा व्यापार की संभावनाओं पर विचार किया जा सकता है। यह मंच पूर्व सोवियत संघ के साम्राज्यवाद से मुक्त हुए देशों को फिर से चीनी साम्राज्यवाद में फंसने से बचा सकता है। ओसोर आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई का भी मंच बन सकता है। आईएसआईएस ने खुरासान मॉडयूल की जो बात की है, वह पूरे मध्य एशिया को हिंसा और अस्थिरता की ओर धकेल सकती है। यह मंच इस पूरे इलाके से आतंकवाद, हिंसा और सांप्रदायिक वैमनस्य को समाप्त करने के लिए काम कर सकता है। यही इस इलाके की विशेषता रही है।
(लेखक सभ्यता अध्ययन केंद्र, नई दिल्ली में शोध निदेशक हैं)
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