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खबर उस खबर की जो खबरों के हमले में 26 जून के अखबारों में भीतर के पन्ने पर दब-सी गई थी। इस दिन अखबार, ट्विटर ट्रेंड और टीवी पर खास विमर्शों में सिक्किम सीमा पर चीनी धींगामुश्ती की चर्चाएं छाई रहीं। लेकिन बीजिंग से प्रकाशित चीन का सरकारी दैनिक ‘ग्लोबल टाइम्स’ इस वक्त कुछ और ही राग अलाप रहा था। अखबार को सिक्किम से दूर भारत और अफगानिस्तान के बीच हवाई गलियारे में भारत की ‘हठधर्मिता’ नजर आ रही थी। सोचने वाली बात है कि ऐसा क्यों हुआ कि चीन को दो देशों के बीच स्पष्ट निर्धारित सीमा में अपने सैनिकों की गलती और झड़प नहीं दिखी किन्तु भारत व अफगानिस्तान जैसे दो पड़ोसी देशों का मेल-मिलाप बुरी तरह अखरा! ‘बीजिंग टाइम्स’ की खबर में जो उजागर हुआ है वह है चीनी दोमुहांपन। असल में अरुणाचल
प्रदेश या सिक्किम तो बहाना है, ड्रेगन के पेट में ऐंठन की वजह कुछ और है।
वजह है सशक्त होता भारत। चीन विश्व के इस सबसे बड़े बाजार को छोड़ने की कल्पना तक नहीं कर सकता। किन्तु साथ ही, आत्मनिर्भर होता, नए वैश्विक समीकरण गढ़ते हुए खड़ा होता भविष्य का भारत उसे बेचैन करता है। ऐसे में चीन की उलझी मुद्रा को एक खास मौके पर दर्शाए गए आक्रोश के रूप में समझा जाना चाहिए। यह मौका है भारत और अमेरिका के शीर्ष नेतृत्व के बीच अत्यंत सफल और स्पष्ट संदेश देने वाली मुलाकात का। भारतीय प्रधानमंत्री के अमेरिका दौरे के बीच दोनों देशों की ओर से जारी संयुक्त बयान में ‘बुनियादी ढांचे के पारदर्शी विकास और संप्रभुता व क्षेत्रीय अखंडता के सम्मान’ का जो आह्वान किया गया है वह निस्संदेह चीनी हेकड़ी पर सवाल खड़ा करता है। यदि चीन की ‘वन बेल्ट, वन रोड’ योजना वैश्विक आधारभूत ढांचा तैयार करने वाली पहल है तो इसमें पारदर्शिता कहां है? यदि यह भारत की अनुमति और भागीदारी के बिना गिलगित-बाल्टिस्तान से सिर्फ पाकिस्तान को बगल में दबाकर निकलने की मंशा है तो यह क्षेत्रीय संप्रभुता और अखंडता का सम्मान है अथवा किसी अन्य देश के साथ षड्यंत्र?
वैसे, भारत-अमेरिकी मित्रता ऐसा इकलौता समीकरण नहीं है जिस पर ड्रेगन त्यौरियां चढ़ा रहा है। भारत और जापान द्वारा अफ्रीकी देशों के व्यापक हित में ‘एशिया-अफ्रीका विकास गलियारा’ बनाए जाने पर सहमति से भी चीन आशंकित है। यदि ऐसा होता है तो ‘ओबोर’ का क्या भविष्य होगा? उस सपने का क्या होगा जिसके लिए चीन बहुत बड़ा आर्थिक दांव खेल चुका है? यह ठीक है कि अभी चीन और भारत की अर्थव्यवस्था या उत्पादन क्षमता की तुलना नहीं की जा सकती परंतु यह तथ्य भी इतना ही ठीक है कि चीजें सदा चीन के पक्ष में नहीं रहने वालीं हैं। आर्थिक वृद्धि के पैमानों पर दोनों देशों के भविष्य के संकेत उभरने शुरू हो गए हैं। दूरंदेश चीन की पैंतरेबाजी और उलझन को इसी संदर्भ में समझना चाहिए। दिलचस्प बात देखिए, सिक्किम-भूटान के जिस सीमांत क्षेत्र डोंगलॉन्ग में चीन द्वारा सड़क निर्माण को लेकर यह तनातनी हुई, उसके बारे में इस पड़ौसी का कहना है कि निर्माण कार्य वैध है और यह क्षेत्र न तो भूटान का है और न भारत का। प्रश्न उठता है कि क्या चीन ने इसी कसौटी का पालन दक्षिण चीन सागर में दावेदारी अथवा अपने महत्वाकांक्षी ‘ओबोर’ गलियारे के निर्माण के दौरान किया है? क्या गिलगित और बाल्टिस्तान क्षेत्र पर चीन या पाकिस्तान का कोई अधिकार बनता है? भारतीय दावेदारी वाले क्षेत्र में अवैध कब्जेदार पाकिस्तान को साथ लेकर भारत की प्रभुसत्ता और अखंडता को ललकारने का हक चीन को किसने दिया?
चीनी विदेश विभाग के प्रवक्ता ‘लु कांग’ यदि डोंगलॉन्ग क्षेत्र के लिए 1890 में अंग्रेजों के साथ तिब्बत की संधि और इस क्षेत्र के प्राचीन नाम का तर्क उछालते हैं तो उन्हें याद रखना चाहिए कि क्षेत्रों के प्राचीन नाम केवल किसी एक भूखंड तक सीमित नहीं हैं और एशिया में आधुनिक देशों की स्थापना से पूर्व की ब्रिटिश संधियां भी सिर्फ चीनी दांवपेच के इलाकों तक सीमित नहीं हैं। भारत और चीन दो प्राचीन देश हैं और दोनों के पास ब्रिटिश दंश का लंबा इतिहास भी साझा है।
गौर करने वाली बात है कि हर बढ़ते कदम पर चीन ने मित्र खोए हैं। भारत की मित्रता खोकर तिब्बत को हड़पना, दक्षिणी चीन सागर में जापान-अमेरिका सहित सबको नाराज करते हुए दादागिरी, नेपाल की जनता को नाराज करते हुए राजनीतिक व्यवस्था में दखल, शांत भूटान को भींचने की कोशिश, अरुणाचल और सिक्किम पर गिद्ध दृष्टि… ड्रेगन को लगता है कि वह कुछ भी कर सकता है किन्तु उसे यह भी समझना चाहिए कि अपने हर पैंतरे के साथ वह विश्व व्यवस्था में सहयोगी समीकरण भी खोता जा रहा है। वह ऊपरी तौर पर भले मजबूत दिखे, लेकिन उसके पास उसकी बात को मजबूती देने वाली आधार-भूमि नहीं है। वास्तविक सहयोग के बिना केवल लालच के झुनझुनों और मतलब की यारियों के साथ चीन भविष्य में कितना रास्ता तय कर सकेगा, यह देखना महत्वपूर्ण है।
डोंगलॉन्ग की ढिठाई अफगानिस्तान और भारत को डरा देगी या एनएसजी में भारत की राह रोकने का पैंतरा उसकी बढ़त बनाए रखेगा—चीन को इस तरह के भ्रमों से बाहर आना चाहिए। दुनिया भ्रम, छद्म और आतंक से मुक्त होने के समीकरण गढ़ रही है। ऐसे में हेकड़ी और तिकड़मों का हल्लाबोल गूंजे भले कितना, ज्यादा चलने वाला नहीं है।
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