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-अरुण कुमार सिंह-
आपको याद होगा 2015 का वह समय जब कुछ साहित्यकार और कलाकार देश में कथित तौर पर बढ़ती असहिष्णुता का आरोप लगाकर अपने-अपने पुरस्कार वापस कर रहे थे। इस पुरस्कार वापसी गिरोह का नेतृत्व अपने को प्रगतिशील कहने वाले नौकरशाह और साहित्यकार डॉ. अशोक वाजपेयी कर रहे थे। लेकिन वे खुद कितने सहनशील और नियम-कानून को माऩने वाले हैं, इसकी कलई खोलते अनेक मामले उजागर हो रहे हैं। वे भोपाल स्थित भारत भवन के न्यासी सचिव और ललित कला अकादमी के अध्यक्ष जैसे अनेक पदों पर रहे हैं। भोपाल और दिल्ली में कुछ कलाकारों और साहित्यकारों से बात करने पर वाजपेयी के अनेक किस्से बाहर आए। कुछ ने कहा कि वाजपेयी जहां भी रहे, उन्होंने विरोधी विचारधारा वालों को ठिकाने लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, तो कुछ ने कहा कि उन्होंने अपने पद का गलत इस्तेमाल करके अपना सिक्का चलवाया। उल्लेखनीय है कि वाजपेयी 2008 से 2011 तक ललित कला अकादमी के अध्यक्ष थे। अध्यक्ष के नाते उन्होंने सरकारी पैसे से जमकर विदेशों का दौरा किया। यही नहीं, नियम-कायदों को ताक पर रखकर वे अपनी यात्रा में पत्नी को भी ले गए और उसका खर्च भी पल्ले से नहीं दिया, बल्कि अकादमी से वसूला। बता दें कि ललित कला अकादमी के वर्तमान प्रशासक ने 30 मार्च, 2017 को वाजपेयी से जुड़े मामलों की जांच के लिए एक समिति का गठन किया था। इस समिति के अध्यक्ष हैं प्रसिद्ध नाटककार और नौकरशाह रहे डॉ. दयाप्रकाश सिन्हा। समिति के सदस्यों में शामिल हैं— राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय के महानिदेशक अद्वैत गणनायक, साहित्य अकादमी के सचिव के.एस. राव, संगीत नाटक अकादमी की सचिव डॉ. रीता स्वामी चौधरी, अमूर्त विरासत के सलाहकार बोर्ड की सदस्य सचिव आर. के. उषा, प्रसिद्ध कलाकार प्रेम सिंह और संस्कृति मंत्रालय के आप्त सचिव कंवरजीत सिंह।
इस समिति ने अपनी रपट में सिफारिश की है कि ललित कला अकादमी के पिछले प्रशासकों ने जिन 23 कलाकारों को काली सूची में डाला था, उन्हें उस सूची से बाहर किया जाए। उसने यह भी कहा है कि इन कलाकारोंे के विरुद्ध गलत तरीके से कार्रवाई की गई थी। समिति ने रपट में अशोक वाजपेयी के संदर्भ में कहा है कि उन्होंने ललित कला अकादमी के नियमों का उल्लंघन कर विदेश यात्राएं की हैं। समिति ने कहा है कि 2011 में वेनिस में आयोजित हुई कला प्रदर्शनी के निरीक्षण के बहाने उन्होंने अप्रैल, 2009 में ही वहां की यात्रा की। यही नहीं, उन्हीं दिनों वे पेरिस, जेनेवा, ब्रूसेल्स, लंदन आदि जगहों पर भी गए। इसके लिए 1, 82,780 रु. खर्च किए गए। उन्होंने वेनिस की दूसरी यात्रा दिसंबर, 2010 में और तीसरी यात्रा मई-जून, 2011 में की। 2011 में उनके साथ उनकी पत्नी रश्मि वाजपेयी भी थीं। उनका भी खर्च अकादमी के खाते से किया गया।
रपट में यह भी कहा गया है कि नियमानुसार वाजपेयी को एयर इंडिया से यात्रा करनी चाहिए थी, लेकिन उन्होंने ब्रिटिश एयरलाइंस से यात्रा की और इसके लिए आवश्यक अनुमति भी नहीं ली। उन पर यह भी आरोप है कि उन्होंने हवाई टिकट ललित कला अकादमी के अधिकृत एजेंट से न लेकर किसी और एजेंट से लिया। ललित कला अकादमी के प्रशासक सी.एस. कृष्णा शेट्टी ने बताया कि समिति की रपट संस्कृति मंत्रालय को भेज दी गई है। अब मंत्रालय जो निर्देश देगा, उस पर अमल किया जाएगा। उधर वाजपेयी ने इन आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया है। उनकी मंडली भी उनके साथ खड़ी है। शीर्ष आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने वाजपेयी की विदेश यात्राओं पर कुछ भी कहने से इनकार कर दिया। उनका तर्क था कि कि ऐसी यात्रा करने वाले केवल अशोक ही नहीं हैं। वाजपेयी के बचाव में साहित्यकार और नाटककार असगर वजाहत कहते हैं, ''वाजपेयी भारत सरकार में बड़े अधिकारी रहे हैं। उन्हें सरकारी नियमों की पूरी जानकारी है। इसलिए वे ऐसी गलती नहीं कर सकते।''
कब्जा करने का स्वभाव
वजाहत जैसे लोग उनके बचाव में भले ही कितने तर्क-कुतर्क करें, वाजपेयी के कारनामों की सूची बहुत लंबी है। उल्लेखनीय है कि उन पर मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की विशेष 'कृपा' रही है। अर्जुन सिंह के समय ही भोपाल में 1982 में भारत भवन की स्थापना हुई थी। इन दोनों ने अपने आपको भारत भवन का आजीवन न्यासी बना लिया था। ठीक वैसे ही जैसे दिल्ली में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में कपिला वात्स्यायन ने अपने को आजीवन न्यासी बना लिया था। यानी कोई भी सरकार आए, वे आजीवन भारत भवन के कर्ताधर्ता बने रहना चाहते थे। लेकिन 1991 में सुंदरलाल पटवा के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनते ही उनकी मंशा धराशायी हो गई। पटवा सरकार ने भारत भवन न्यास के संविधान में संशोधन कर आजीवन न्यासी प्रावधान को समाप्त कर दिया। यह भी कह सकते हैं कि भाजपा सरकार ने भारत भवन का प्रजातंत्रीकरण कर दिया। वाजपेयी के समय भारत भवन में वित्तीय अनियमितताएं भी हुई थीं। इस पर सीएजी की रपट आने के बाद काफी हंगामा हुआ था। दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक डॉ. अवनिजेश अवस्थी के अनुसार, उन दिनों वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने वाजपेयी की आलोचना में 'जनसत्ता' में एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था-'चलो उतारें आरती।' इसके बाद वाजपेयी ने प्रभाष जोशी को पत्र लिखकर कहा था कि 'हम भी मुंह में जबान रखते हैं।' इसके बाद जनसत्ता में ही एक रपट प्रकाशित हुई थी, जिसमें बड़ी बेबाकी से लिखा गया था कि वे जबान रखते ही नहीं हैं, बल्कि तेज चलाते भी हैं।
भाजपा से शत्रुता
पटवा सरकार के भारत भवन में उनके आजीवन न्यासी का पद खत्म करने के साथ ही वाजपेयी भाजपा के मुखर विरोधी हो गए। आज भी वे भाजपा का विरोध करने के लिए नए-नए हथकंडे अपनाते हैं। ये वाजपेयी ही थे, जिन्होंने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा का कुलपति रहते हुए देश के सभी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को पत्र लिखकर गुजरात दंगों के लिए नरेंद्र मोदी, गुजरात सरकार और भाजपा की आलोचना करने को कहा था। अप्रैल, 2014 में दिल्ली के प्रेस क्लब में कुछ साहित्यकारों के साथ वाजपेयी ने एक बैठक की। इसमें साहित्यकारों ने लोकसभा चुनाव में भाजपा के विरोध का निर्णय लिया। इसके बाद 9 अप्रैल, 2014 को दैनिक 'जनसत्ता' में इन साहित्यकारों ने एक अपील प्रकाशित करवाकर देश के मतदाताओं से भाजपा को वोट न देने की बात कही। हालांकि मतदाताओं ने उनकी इस अपील को ठुकराकर भाजपा को ऐतिहासिक बहुमत दिया।
पुरस्कार वापसी का सच
मई, 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनते ही उसे बदनाम करने के लिए वाजपेयी और उनकी मंडली बहाने खोजने लगी। बहुत दिनों तक तो उन्हें कुछ नहीं मिला। दुर्भाग्य से उन्हीं दिनों दादरी (उ.प्र.) में एक शर्मनाक घटना हुई और कर्नाटक में कन्नड़ लेखक कलबुर्गी की हत्या हो गई। उत्तर प्रदेश में उन दिनों सपा की सरकार थी और कर्नाटक में कांग्रेस की, जो अभी भी है। इस लिहाज से उन घटनाओं के लिए दोनों राज्य सरकारें जिम्मेदार थीं। लेकिन वाजपेयी और उनकी मंडली ने बहुत ही चतुराई से इन घटनाओं के लिए केंद्र सरकार को दोषी ठहराया और कहा जाने लगा कि देश में असिहष्णुता बढ़ गई है। इसके बाद पुरस्कार वापस करने का 'नाटक' शुरू हो गया। यह 'नाटक' बिहार विधानसभा चुनाव के बाद खत्म हुआ था। इस पर लोग यह भी कहने लगे थे कि बिहार में चुनाव को देखते हुए ही वाजपेयी ने पुरस्कार वापसी का 'खेल' शुरू किया था, ताकि माहौल जदयू और राजद के पक्ष में और भाजपा के विरोध में बने। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि बिहार में नई सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दिल्ली में वाजपेयी और कुछ अन्य साहित्यकारों को सम्मानित किया था।
पद का दुरुपयोग
वैसे पद का दुरुपयोग करने में वाजपेयी को महारत हासिल है। 1988 में वे भारत भवन के न्यासी सचिव और वहां से निकलने वाली पत्रिका 'पूर्वग्रह' के संपादक भी थे। इस पत्रिका में वे अपनी पत्नी रश्मि वाजपेयी, छोटे भाई उदयन वाजपेयी, ससुर नेमिचंद जैन सहित अपने लेख भी छापते थे। इन लोगों को पारिश्रमिक देने के साथ-साथ वे अपने लिए भी पारिश्रमिक तय करते थे और लेते भी थे। (जबकि नेमिचंद जैन द्वारा शुरू की गई और रश्मि वाजपेयी द्वारा चलाई जा रही पत्रिका 'नटरंग' में लेखकों को कोई पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है। इसलिए कई लेखकों ने उस पत्रिका का बहिष्कार किया हुआ है।)
यह भ्रष्टाचार रोकथाम कानून का सरासर उल्लंघन था। उल्लेखनीय है कि सरकारी कर्मचारियों या अधिकारियों के लिए सरकार ने एक आचार संहिता बनाई हुई है। इसके अनुसार कोई भी कर्मचारी या अधिकारी सरकारी खजाने से अपने आपको या किसी पारिवारिक सदस्य को आर्थिक लाभ नहीं दे सकता। यदि वह ऐसा करता है तो यह दंडनीय अपराध होता है। साक्ष्य तो कह रहे हैं कि वाजपेयी ने वषार्ें तक यह अपराध किया है।
दफ्तरी ढकोसला
पारिश्रमिक लेने और देने के संदर्भ में उनकी पत्नी और उनके बीच हुआ पत्राचार बहुत ही मजेदार है। 1988 में पूर्वग्रह के अंक-83 में रश्मि वाजपेयी की एक रचना प्रकाशित हुई थी। इसके लिए वाजपेयी ने उन्हें कुछ राशि पारिश्रमिक के रूप में भेजी थी। इस पर रश्मि वाजपेयी ने अशोक वाजपेयी को 8 जून, 1988 को एक पत्र लिखा था। इस पत्र में उन्होंने लिखा है, ''त्रैमासिक 'पूर्वग्रह' के अंक 83 में प्रकाशित अपनी रचना के लिए पारिश्रमिक की अग्रिम पावती मिली…। पूर्वग्रह जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका मेरे लेख के लिए यह राशि तय करे, यह शोभा नहीं देता, जबकि अन्य पत्रिकाएं इससे कहीं अधिक देती हैं।'' प्रत्युत्तर में अशोक वाजपेयी ने 28 जून, 1988 को पत्नी के नाम एक पत्र लिखा और उनसे यह राशि स्वीकार करने का निवेदन किया। इस पर रश्मि ने 30 जून, 1988 को एक और अन्य पत्र लिखा। उसमें उन्होंने लिखा है, ''पारिश्रमिक की यह राशि मेरी प्रतिष्ठा के विरुद्ध है। इस राशि को आप भारत भवन या पूर्वग्रह के दानखाते में जमा कराने को स्वतंत्र हैं।'' केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के उपाध्यक्ष डॉ. कमल किशोर गोयनका कहते हैं,''यदि यह (पारिश्रमिक देना) सही है तो किसी भी प्रकाशक, संपादक या लेखक की नैतिकता के विरुद्ध है। मैं चाहंूगा कि स्वयं वाजपेयी इस संबंध में स्पष्टीकरण दें।'' जबकि असगर वजाहत कहते हैं, ''इस पर कुछ भी कहने से पहले यह देखना होगा कि 'पूर्वग्रह' के लेखकों को पारिश्रमिक देने के लिए क्या नियम हैं। यदि नियम है कि संपादक अपने रिश्तेदार लेखकों को पारिश्रमिक नहीं दे सकता तब तो यह गलत है और यदि ऐसा नहीं है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है।'
दबाव बनाकर लिया पुरस्कार
अशोक वाजपेयी 1992 से 1997 तक संस्कृति मंत्रालय में संयुक्त सचिव थे। उन्हीं दिनों उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। कहा जाता है कि यह पुरस्कार उन्होंने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए संबंधित लोगों पर दबाव डाल कर लिया था। उस समय यू.आर. अनंतमूर्ति (22 अगस्त, 2014 को उनका निधन हो चुका है) साहित्य अकादमी के अध्यक्ष थे। यह बात सबको विदित है कि अनंतमूर्ति और वाजपेयी में गहरी दोस्ती थी। इसलिए वाजपेयी को पुरस्कार मिलने पर उस समय भी कुछ लोगों ने ऊंगली उठाई थी। अनंतमूर्ति की एक और पहचान है। उन्होंने अप्रैल, 2014 में घोषणा की थी कि यदि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो वे देश छोड़कर चले जाएंगे।
साहित्य अकादमी से चिढ़
अनेक साहित्यकारोंे का मानना है कि वाजपेयी साहित्य अकादमी से भी चिढ़े रहते हैं। दरअसल, 1998 मंे उन्होंने साहित्य अकादमी अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ा था, लेकिन साहित्यकारों ने उनका साथ नहीं दिया। इसलिए वे बुरी तरह हार गए थे। इसके बाद से ही वे साहित्य अकादमी के घोर आलोचक हो गए।
संवेदनहीन और अवसरवादी
वैसे अनेक वरिष्ठ साहित्यकार वाजपेयी को संवेदनहीन, घोर अवसरवादी और भारतीय संस्कृति का विरोधी मानते हैं। अवनिजेश अवस्थी कहते हैं, ''कविता की वापसी का नारा लगाने वाले और कविता को साहित्य की केंद्रीय विधा मानने की जिद पकड़े रखने वाले वाजपेयी की समस्त संवदेनाएं उस समय उजागर हो गई थीं जब भोपाल गैस त्रासदी में हजारों लोग मारे गए थे और लाखों लोग बीमार और विकलांग हो गए थे, लेकिन वाजपेयी भारत भवन में विश्व कविता समारोह करने के लिए तर्क दे रहे थे कि मरने वाले के साथ कोई मर नहीं जाता।'' भोपाल में रहने वाले लेखक डॉ. देवेंद्र दीपक कहते हैं, ''वाजपेयी जब तक भारत भवन में रहे, तब तक वहां किसी कार्यक्रम में सरस्वती वंदना नहीं हुई।'' प्रो. हरि जोशी तो वाजपेयी के लिए 'चालू' जैसे शब्द का प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं,''अवसरवादी वाजपेयी हमेशा एक समूह को लेकर चले और उस समूह में वामपंथी ही शामिल हैं। अपनी चौकड़ी के लोगों को प्रश्रय देना, उनको लाभान्वित कराना उनका पुराना धंधा है।''
अपनों को आश्रय
वाजपेयी ने बिना हिचक अपने गुट के लोगों के गलत कार्यों का समर्थन किया और जहां तक हुआ, उन्हें प्रोत्साहित करने का भी प्रयास किया। प्रो. हरि जोशी कहते हैं, ''बात 1981-82 की है। उन दिनों वाजपेयी मध्य प्रदेश में शिक्षा सचिव थे। इस नाते उन्होंने 10वीं के छात्रों के लिए हिंदी की पुस्तकें खरीदी थीं। वे सारी पुस्तकें वामपंथी लेखकों की थीं और उनमें गाली-गलौज की भाषा लिखी हुई थी। उन दिनों सागर के विधायक शिव कुमार श्रीवास्तव और कुृछ अन्य विधायकों ने इस मुद्दे को विधानसभा में उठाया था। इसके बाद वाजपेयी के विरुद्ध अवमानना प्रस्ताव पारित हुआ था। उनकी ओर से मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को माफी मांगनी पड़ी थी।''
नौकरी छोड़ने की वजह
वाजपेयी मध्य प्रदेश संवर्ग के सेवानिवृत्त आईएएस हैं। नौकरी के अंतिम दिनों में वे केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय में संयुक्त सचिव के पद पर कार्यरत थे। उनकी कार्यशैली से असंतुष्ट होकर तत्कालीन संस्कृति सचिव ने उनके कार्य का विषम वार्षिक मूल्यांकन किया था। इससे क्षुब्ध होकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी। इसके बाद वे अनेक संस्थानों से जुड़ने के लिए जोड़-तोड़ करते रहे हैं।
गैर-सरकारी संगठनों से जुड़ाव
इन दिनों वाजपेयी दो गैर-सरकारी संगठनों से जुड़े हुए हैं। ये संगठन हैं- नटरंग प्रतिष्ठान और रजा फाउंडेशन। वाजपेयी नटरंग प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं। इसके न्यासियों में डॉ. नामवर सिंह, बंसी कौल, ओमप्रकाश जैन, कीर्ति जैन, संजीव भार्गव आदि शामिल हैं। 2003 में संगीत नाटक अकादमी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर नटरंग प्रतिष्ठान को संस्कृति मंत्रालय से एक करोड़ रु. से ज्यादा का अनुदान मिला था। रजा फाउंडेशन का नामकरण चित्रकार सैयद हैदर रजा के नाम पर किया गया है। मध्य प्रदेश के मंडला जिले में जन्मे रजा पिछले कई दशक से पेरिस में रहते थे। 2016 में उनका निधन हुआ है। वे भी खांटी वामपंथी थे और मकबूल फिदा हुसैन की तरह ही भारतीय संस्कृति पर चोट करते रहते थे।
रजा फाउंडेशन के तीन न्यासी थे-सैयद हैदर रजा, अशोक वाजपेयी और अरुण वढेरा। अरुण वढेरा कला-कृतियों को बेचने का काम करते हैं और 'वढेरा आर्ट गैलरी' के मालिक हैं।
रजा फाउंडेशन के नाम पर वाजपेयी सरकारों से भी पैसे लेते रहे हैं। 2013 में उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को एक पत्र लिखकर प्रस्ताव दिया था कि साहित्य अकादमी की सहायता से रजा फाउंडेशन 'विश्व कविता समारोह' आयोजित करना चाहता है। इसके लिए साहित्य अकादमी रजा फाउंडेशन को दो करोड़ रुपए दे। लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय के दबाव के बावजूद साहित्य अकादमी ने उनके प्रस्ताव को नहीं माना।
ललित कला अकादमी के एक अन्य अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि यदि सही तरीके से जांच हो तो लोगों को अशोक वाजपेयी के और भी कारनामे पता चलेंगे। उम्मीद है कि यह असलियत जल्दी ही बाहर आएगी।
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