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-शंकर शरण-
हाल में देश के 65 सेवानिवृत्त नौकरशाहों के नाम से एक सार्वजनिक अपील जारी की गई है। यह पूरी अपील और उन के नीचे लिखे नाम देखकर विश्वास से कहा जा सकता है कि इसे मूलत: हर्ष मंदर जैसे किसी ने लिखा-लिखवाया तथा अरुणा राय जैसे एकाध ने कुछ जोड़ा-घटाया है। बाकी लोगों ने बस दस्तखत कर दिए या फोन पर अपनी सहमति दे दी। इस प्रकार, मार्च 2002 से गोधरा में रामसेवकों को जिंदा जलाने की घटना और प्रतिक्रियात्मक दंगोंे के समय से जो एकतरफा, मुस्लिमपरस्त और हिन्दू-विरोधी राजनीतिक प्रचार चला था, उसी का एक नया पन्ना यह पर्चा भी है।
जिन लोगों ने लगातार उस प्रचार को पढ़ा, समझा है, वे सरलता से यह देख सकते हैं कि इस पर्चे में हू-ब-हू वही आरोप हैं जो 2002 से 2014 तक लगातार लगाए गए। झूठे और अतिरंजित आरोप। संविधान और सेकुलरिज्म का ऐसा चुनिंदा हवाला, जिसका अर्थ केवल मुस्लिमपरस्ती होता है। भारत में हिन्दुओं के अनगिनत सामूहिक संहारों तक का नोटिस नहीं लिया गया, और किसी एक इशरत जहां को लहरा कर पूरे मुस्लिम समुदाय को पीडि़त, आतंकित बताया जाता रहा। चाहे इशरत कोई आतंकी ही क्यों न हो!
बस, इस पर्चे में इशरत की जगह अखलाक नाम रख दिया गया है। दूसरे, विदेशी पैसे से चलने वाले एक गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) के पेट पर पड़ रही लात को जोड़ा गया है। बाकी, सारी बातें वही हैं जो हर्ष मंदर, अरुंधति राय या तीस्ता सीतलवाड़ के किसी भी पुराने लेख या भाषण में मिल जाएंगी।
चूंकि यह देश बहुत बड़ा है, और पढ़े-लिखे मृगों की संख्या भी बड़ी है, इसलिए किसी भी पर्चे पर हामी भरने वाले या दस्तखत करने वाले दर्जनों बड़े लोग मिल जाते हैं। चाहे उन्हें सेकुलरिज्म या अल्पसंख्यक चिंता की राजनीति का क-ख-ग भी नहीं मालूम हो, लेकिन कोई भी सुंदर चेहरा या मीठी आवाज उनसे ऐसे पर्चों पर सहमति ले सकती है।
वैसे भी, इस सामूहिक पत्र को छपवाना यहां पुरानी, वामपंथी, हिन्दू-विरोधी राजनीतिबाजों की ट्रेड-मार्क तकनीक है। इसमें लिखी बातें भी पूरी तरह लफ्फाजी शैली में हैं, जो वामपंथियों और उग्र-सेकुलरवादियों की खासियत है। कोई अधिकारी ऐसी भाषा नहीं लिखता, लिख ही नहीं सकता। उन्हें प्राय: संक्षिप्त, जिम्मेदारी टालने वाली, बिना बात के बातें लिखने वाली भाषा का अभ्यास होता है। इसलिए यह पर्चा कटिबद्ध, घाघ और कट्टरवादी राजनीतिबाजों का लिखा हुआ है। यह किसी भी हाल में अन्य नागरिक समूह या सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारियों का भी अपना सोचा-विचारा हुआ नहीं है।
इस में 'निष्पक्षता, तटस्थता और भारतीय संविधान के प्रति निष्ठा' का दावा किया गया है। लेकिन केवल और केवल मुसलमानों के उत्पीड़न की बात लिखी गई है। क्या जिहादी आतंकवाद का उल्लेख न करना निष्पक्षता है, जिससे यहां सर्वाधिक लोग पीडि़त हुए हैं? जयपुर, कोलकाता, हैदराबाद, दिल्ली में सलमान रुश्दी, तस्लीमा, तारिक फतह जैसे लेखकों पर मुस्लिम गिरोहों द्वारा किए गए हमले और धमकियों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले की गिनती में न लेेना तटस्थता है? राष्ट्र-गान, योगाभ्यास या तीन तलाक जैसे विविध नागरिक मामलों में तरह-तरह के मुस्लिम नेता देश के संविधान की खिल्ली उड़ाते हुए इस्लामी शरीयत का दबाव डालते रहे हैं। यह सब भारत में बार-बार दोहराई जाने वाली मजहबी असहिष्णुता का प्रदर्शन है। मगर इस पर्चे में 'रिलीजियस इन्टॉलरेंस' के रोने में इनमें से किसी का जिक्र नहीं है। क्या यही निष्पक्षता है?
पर्चे में गो-रक्षकों के बेखटके कार्य करने (गौरक्षक्स फंक्शन विद इम्प्यूनिटी) को अपराध की तरह रखा गया है। यह सबसे बड़ा प्रमाण है कि इस पर्चे को इस्लामपरस्त कट्टरवादियों ने लिखा है, किसी जिम्मेदार सेवानिवृत्त अधिकारी ने नहीं, क्योंकि भारतीय संविधान की धारा 48 के अनुसार गो-रक्षा राज्य के संवैधानिक कर्तव्यों में से एक है। तब इस पर्चे में 'गोरक्षकों के कार्य' को अपराध के रूप में कैसे धड़ल्ले से लिख डाला गया?
केवल इसलिए, क्योंकि आम वामपंथी पर्चेबाज बहुत कम जानने वाले और सीमित शब्दावली के लोग होते हैं। उन्हें घोर पक्षपात, बने-बनाए आरोप, गालियां, निष्कर्ष और उनके दोहराव के सिवा कुछ अधिक नहीं आता। इसीलिए उनका तैश और आत्मविश्वास भी जबरदस्त होता है। यह पर्चा उसी का नमूना है। अन्यथा एक ओर भारतीय संविधान में निष्ठा जताना, और दूसरी ओर भारत में ही गो-रक्षा कार्य को आपराधिक मान लेने की कोई और कैफियत नहीं हो सकती।
इसमें जेएनयू और हैदराबाद विश्वविद्यालयों में 'समानता, सामाजिक न्याय और स्वतंत्रता के बारे में असुविधाजनक सवाल पूछने वालेे' छात्रों और प्राध्यापकों पर 'प्रशासन के हमले' की शिकायत भी की गई है। मगर जरा सोचें, भारत के टुकड़े करने के लिए खुला आवाहन करना असुविधाजनक सवाल पूछना है या देश-विरोधी राजनीति? यह साफ दिखाता है कि पर्चे के पीछे कौन लोग हैं और उनका उद्देश्य कितना गर्हित है। वे जेएनयू और हैदराबाद विश्वविद्यालयों में सक्रिय भारत-विरोधी और हिन्दू-विरोधी राजनीतिक गुटों के प्रति सहानुभूति पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि वास्तव में, जेएनयू में कम- से-कम तीन बार प्रशासन को ही उन वामपंथी गुटों के दबाव और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा है, जब उन्हें अपने कार्यालय में बंद कर दिया गया। यही नहीं, वैसे अध्यापकों को बोलने से रोका गया जो देशभक्ति के साथ राष्ट्रवाद की व्याख्या कर रहे थे।
इस प्रकार, यह सामूहिक पत्र मिथ्या तथ्यों और तर्कों के साथ एक राजनीतिक पर्चा है। हमारे सरकारी अधिकारी अच्छी तरह जानते हैं कि 'असहमति और विरोध को देशद्रोह' नहीं माना जाता, न ही वर्तमान सरकार ने ऐसा कुछ किया है। जबकि पर्चे में यह आरोप भी लगाया गया है। सच तो यह है कि 'राष्ट्रीय झंडे को लाश लपेटने का कपड़ा' बताने वाली और देशद्रोह का खुला झंडा लहराने वाली अरुंधति राय और कई हमख्याल प्रोफेसर भी मजे से घूम-फिर रहे हंै और लिख-बोल रहे हैं। न तो सरकार, न किसी राष्ट्रवादी संगठन ने उन पर किसी प्रतिबंध की बात की है। जबकि दूसरी ओर, हाल में भी यहां सलमान रुश्दी और तस्लीमा नसरीन को मुस्लिम गिरोहों ने दो-दो बार बोलने से रोका और आयोजकों को धमकाया। लेकिन इस पर्चे में स्वतंत्र अभिव्यक्ति और चिंतन पर सर्द प्रभाव ('चिलिंग इम्पैक्ट ऑन फ्री स्पीच एंड थॉट')' की लफ्फाजी में इन बड़े लेेखकों, लेखिकाओं की अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के दमन का कोई नोटिस नहीं लिया गया है! इस तरह चुनी गई बातें और मनमाने निष्कर्ष इस्लामपरस्ती, भारत-विरोध और हिन्दू-विरोध नहीं तो और क्या है? उन सेवानिवृत्त अधिकारियों को शर्म आनी चाहिए, जिन्होंने बिना सोचे-विचारे इस राजनीतिक पर्चे पर हस्ताक्षर कर दिए। वे उस संदिग्ध एनजीओ लॉबी के प्रपंच के औजार बन गए, जिनके गंदे कारोबार में विदेशी धन की आमद पर कुछ रोक लगी है। इस पर्चे में कई 'एनजीओ और सिविल सोसाइटी पर विदेशी अनुदान नियमन कानून और आय कर के उल्लंघन के आरोप' पर अलग से, एक पैराग्राफ में चिंता व्यक्त की गई है। मजे की बात कि यह माना गया है कि इन कानूनों का उल्लंघन करने वाले एनजीओ भी हैं, किंतु बिना किसी का नाम लिए इसमें शिकायत की गई है कि जो सरकार-विरोधी रुख अपनाते हैं, उनको सताया जा रहा है। ध्यान दें, यह कथन स्वयं-स्वीकृति है कि विदेशी धन लेेने वालेे ऐसे एनजीओ राजनीतिक गतिविधियों में संलग्न हैं! नहीं तो एक साथ विदेशी पैसा लेने और सरकार का विरोध करना किस तरह देखा जाए? उक्त कानून में इसका साफ उल्लेख है कि विदेशी चंदा लेेने वालेे एनजीओ राजनीतिक गतिविधियों में नहीं शामिल होंगे। लेकिन पिछलेे बीस वर्ष से, बार-बार ऐसे समाचार आए कि अनेक कथित प्रतिष्ठित एनजीओ ही सर्वाधिक उग्रता से गुजरात दंगों के पीछे देश-विदेश में राजनीतिक प्रचार चला रहे थे। सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट या तीस्ता सीतलवाड़ का सबरंग आदि इस में सबसे अधिक कुख्यात हुए। उनकी राजनीतिक गतिविधियां जगजाहिर हैं। तो ऐसे 'प्रतिष्ठित' एनजीओ को निर्बाध विदेशी धन मिलता रहे, यह इस पर्चे की एक खुली मांग है।
यह अनायास नहीं कि इस पर्चे के असली रचनाकार इन्हीं एनजीओ के मंचों पर बार-बार सुशोभित होते रहे हैं। उन्होंने चतुराईपूर्वक यह छिपा लिया कि स्वयं कांग्रेस सरकार ने इन कानूनों को बनाया था और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के समय अनेक एनजीओ को काली सूची में डाला गया। वर्तमान सरकार ने उसी काननू को जरा सख्ती और निष्पक्षता से लागू किया है।
अंत में, इस पर्चे में 'उग्र राष्ट्रवाद' तथा 'तानाशाही' और 'बहुसंख्यकवाद की वृद्धि' का भी आरोप लगाया गया है। यह शब्दावली भी विशुद्ध रूप से वामपंथी, कट्टरवादी जमात की है। आम तौर पर कोई अधिकारी 'अति राष्ट्रवाद' या 'बहुलतावादी' जैसी अवधारणाएं नहीं जानता, क्योंकि यह उन वामपंथी बुद्धिजीवियों की उपज है जो सत्ता से दूर और जनसमर्थन से वंचित हैं। इसीलिए, जनता को प्रभावित करने में विफल होने पर वे लोकतंत्र को ही बुरा-भला कहते हैं, जहां उनकी नहीं चल रही। वरना, आपने इन्हीं बुद्धिजीवियों द्वारा कभी जम्मू-कश्मीर में स्थायी रूप से या 1977 से 2011 के बीच पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट 'तानाशाही' या 'बहुलतावाद' की बात सुनी?
जी नहीं, पश्चिम बंगाल में तीन दशक तक खुली पार्टी-गुंडागर्दी, हिंसा, संगठित वोट-लूट, आदि को इन्हीं बुद्धिजीवियों द्वारा सदैव अनदेखा किया जाता था। यह कहकर कि आखिर जिस मार्क्सवादी पार्टी को जनता का लगातार समर्थन हासिल है, वह जरूर सही नीतियों पर चल रही है। उसमें कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन जब भाजपा को बहुमत मिलता रहे, तो यह तानाशाही 'बहुसंख्यकवाद' हुई! निस्संदेह, यह घुमावदार, जटिल राजनीतिक शब्दावली हमारे सेवानिवृत्त अधिकारियों की नहीं है। उनमें जो राजनीतिक रूप से कटिबद्ध हैं, वे जरूर कुछ जानते हों, वरना अधिकांश को सेकुलरवाद और सहिष्णुता की लफ्फाजी में फांस कर पर्चा जारी कराया गया।
इसलिए, यह पूरा पर्चा उसी उग्र-सेकुलरवादी राजनीतिक गतिविधियों का एक नया कदम है जो 2002 से कमोबेश लगातार चल रहा है। इसका मूल सूत्र हिन्दू-विरोध और भारत-विरोध है। खुला दिमाग और खुली आंख रखने वाले इसे स्वयं पहचान सकते हैं। यदि भारत में कोई तानाशाही होती तो ऐसा पत्र जारी होना और तरह-तरह के कट्टरवादी, भाजपा-विरोधी बुद्धिजीवियों का मजे से लिखना-बोलना नहीं चल रहा होता। जेएनयू के वैसे राजनीतिक प्रचारक प्रोफेसर और छात्र यथावत अपने बरायनाम धंधे में नहीं लगे होते। वे आज भी उतने ही स्वतंत्र हैं। केवल उनकी सुख-सुविधा के कुछ सरकारी और बाहरी स्रोत थोड़े सूख गए हैं। यह उनके कष्ट का एक नया कारण जरूर बना है। किन्तु देश के राजनीतिक, शैक्षिक, बौद्धिक वातावरण में कोई सत्ता-प्रेरित तानाशाही नहीं है। जो गड़बड़ी है, वह दूसरे प्रकार की है। इस परिदृश्य को बड़ी सरलता से जांचा-परखा जा सकता है।
इन पर रहती है इनकी जबान बंद
* हिन्दू-बहुल भारत में लगभग चार लाख कश्मीरी हिन्दू विस्थापित जीवन जी रहे हैं, पर इन सेकुलरों ने इस पर कभी कुछ नहीं कहा।
* इस्रायल के हमले में मारे गए किसी फिलिस्तीनी लड़ाके के लिए शोक जताने वाले इन सेकुलरों के मुंह से किसी शहीद भारतीय सैनिक की श्रद्धांजलि में एक शब्द तक नहीं निकला।
* एक अखलाक की हत्या पर शोर मचाने वालों की जबान पश्चिम बंगाल में आए दिन हिन्दुओं पर हो रहे हमले पर बंद क्यों रहती है?
* गोरक्षकों को 'गुंडा' कहने वाले कथित बुद्धिजीवी आतंकवादी को आतंकवादी कहने से क्यों कतराते हैं?
* जिन लोगों ने 'हिन्दू आतंकवाद' को दुष्प्रचारित किया था, उन्होंने कभी 'मुस्लिम आतंकवाद' क्यों नहीं कहा?
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