|
-तरुण विजय
सत्ता और सल्तनत के रंग-ढंग बदलते रहे, लेकिन दुनिया में अगर कोई एक ऐसी जाति आज भी प्रतिरोध, संघर्ष तथा आत्मरक्षा की स्थिति में है, तो वह है हिन्दू। किसी गांव से दो लोगों को कोई भेदभाव या घृणा के आधार पर दो दिन के लिए निकाल भर दे तो बड़ा हंगामा हो जाएगा। संपादकीय पृष्ठ और संयुक्त राष्ट्र संघ तक उबल उठेंगे। पर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान से जिस कश्मीर का रक्त-तिलक हुआ और जिनकी पुण्य तिथि 23 जून तथा जयंती 6 जुलाई को हम मनाने जा रहे हैं, आज भी हिन्दू विहीन ही है। जब तक जिहादी दरिन्दों द्वारा इस्लामियत के नाम पर निकाले गए 5 लाख हिन्दू सुरक्षा और सम्मान के साथ वापस नहीं लौटते तब तक कैसा गणतंत्र और कैसी संसद। सब अधूरा ही है।
कश्मीर से सीधे केरल आ जाइए। हर दिन हम उन हिन्दुओं की हत्याओं की आंकड़े जोड़ते चले जाते हैं, जिन्हें केवल आग्रही एवं निष्ठावान हिन्दू होने के नाते मारा जा रहा है। जब कोई स्वयंसेवक सुबह काम पर जाता है तो मालूम नहीं होता कि शाम तक सुरक्षित घर लौटेगा। घर में खाना बनाकर बच्चों को परोस रही मां आशंकित रहती है कि शाखा से घर लौटकर आए उसके बेटे के पीछे-पीछे माकपाई न आ रहे हों। जो घर तोड़ देंगे, जला देंगे, बूढे़ मां-बाप को भी शायद मार दें। पश्चिम बंगाल में हिन्दू बस्तियों का उजाड़ा जाना बदस्तूर जारी है, क्योंकि ममता बंद्योपाध्याय को मुस्लिम वोट चाहिए। पाकिस्तान से 12, 14, 16 साल की हिन्दू बच्चियों के अपहरण, जबरन और निकाह की खबरें आती हैं। कौन इस पर दर्द महसूस करता है? बांग्लादेश के हिन्दू आज भी, तमाम राजकीय आत्मीय संबंधों के अरक्षित एवं आक्रांत हैं।
हिन्दुओं को अभी और कितने विध्वंस और आर्त्तनाद देखने होंगे? सिर्फ इसलिए, क्योंकि वे हिन्दू हैं? राष्ट्रपति पद के लिए श्री रामनाथ कोविंद का नामांकन तो प्राय: सभी को अच्छा लगा। लेकिन कतिपय मुस्लिम व कम्युनिस्ट, जो सोशल मीडिया के जिहादी हैं, भाजपा के इस असाधारण लोकप्रिय निर्णय से बौखला उठे और गाली-गलौज की भाषा में ट्वीट किया। राष्ट्रीय भावनाओं से अपनी कलम को मजबूत बनाने वाली नूपुर शर्मा ने धुमे अभद्रता प्रदर्शित करने वाली एक ट्वीट के लिए पत्रकार राणा अयूब के खिलाफ पुलिस रिपोर्ट दर्ज करा दी तो सदानंद धुमेे जैसे विदेशी अखबारों के स्तंभकार इसे लोकतंत्र एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला मान बैठे। विदेशों मे रहकर मन विदेशी कैसे हो जाता है, यह हम नहीं समझ पाते, क्योंकि स्वदेश में रहने वाले कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिनके मन कहीं बाहर हैं, तन भले ही भारत में हो। केरल में मारे जा रहे स्वयंसेवकों का दर्द दर्द नहीं, कश्मीर के हिन्दुओं का दर्द दर्द नहीं। लेकिन प्रणय रॉय के फर्जीवाड़े बेनकाब होने का दर्द बेहद तकलीफदेह हो जाता है, इन अमन के रखवालों के लिए। जैसे अफजल खां और स्टालिन ने अपने सूबे में कन्वर्जन अपने से भिन्न मत वालों के लिए बंद किए हुए थे, वैसे सेकुलर चैनल और अखबार वाले अपने संपादकीय पृष्ठ तथा अग्रलेख की जगह केवल और केवल हिन्दुत्व समर्थक राष्ट्रीय विचार के अनुगामियों के लिए बंद करके रखते रहे। इनके लिए अभिव्यक्ति की आजादी का एक ही अर्थ था- राष्ट्रीयता समर्थक केसरिया विचार वर्ग पर एकतरफा आक्रमण तथा हिन्दुत्व को एक गाली का रूप देना।
दार्जिलिंग में गोरखा समाज पर भाषा के नाम पर ममता का अत्याचार, वस्तुत: मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए हिन्दू समाज पर आघात ही है। गोरखा समाज पराक्रमी, देशभक्त और अत्यंत धर्मनिष्ठ है। गोरखा शब्द का जन्म ही गोरक्षा से हुआ। जो गोरक्षक था उसे गोरखा कहा गया। उन्हें अपनी भाषा, संस्कृति की रक्षा का हक क्यों नहीं होना चाहिए? यदि दार्जिलिंग मुस्लिम बहुल होता तो ममता दीदी का ऐसा रवैया कभी नहीं होता। उनका बस चले तो वह मुस्लिम वोटों के लिए सब पर उर्दू लाद दें। पर हिन्दू गोरखा समाज की भाषा उन्हें नहीं स्वीकार है। क्रिकेट में पाकिस्तान से अगर भारत नहीं जीत पाता तो यह किसके लिए खुशी का कारण होना चाहिए? जिसे खुशी हो उसे क्या कहना चाहिए? आखिर हमारा आपस में कोई रिश्ता है। उस रिश्ते का नाम भारतीयता है, इसलिए हम दूसरे से अपनापन महसूस करते हैं। अगर यह अपनापन एक-दूसरे के सुख-दुख में सुखी और दुखी नहीं होता तो फिर अपनेपन की परिभाषा ही बदलनी पड़ेगी।
कश्मीर में शहीद लेफ्टिनेंट उमर फैयाज और सब इंस्पेक्टर फिरोज डार से जिहादी दुश्मनी का कारण सिर्फ यही था कि वे भारत के तिरंगे और संविधान के लिए वफादार थे। सच यह है कि 99 फीसदी कश्मीरी मुस्लिम आज भी एक भारतीय के नाते सम्मान और सुख की जिंदगी बिताना चाहते हैं। जो थोड़े बहुत गद्दार और अपने ही खून व मिट्टी से द्रोह करने वाले हैं, उन्हें दिल्ली की मीडिया का सहारा मिलता है। हमने गद्दारों के साक्षात्कार सेकुलर अखबारों में पढ़े हैं। क्या ऐसे पत्र-पत्रिका या चैनल ने कभी किसी कश्मीरी मुस्लिमों के साक्षात्कार भी छापे हैं, जो भारत की मिट्टी की सुगंध में लिपट राष्ट्रीयता की बात करते हैं? दिल्ली की मीडिया यह दिखानी चाहती है कि कश्मीर के पत्थरबाज और हुर्रियत के गद्दार ही घाटी के प्रतिनिधि हैं, जबकि यह गलत है।
लगातार विदेशी आक्रमणकारियों से निपटते हुए हम इस मुकाम पर आ पहुंचे हैं कि राम, कृष्ण और शिव के ध्वस्त मंदिरों के पुनर्निर्माण की बात भी सेकुलर आक्रमण आमंत्रित करता है। कश्मीर में 700 से ज्यादा ऐसे सुंदर व बड़े मंदिर जिहादियों ने ध्वस्त कर दिए जिनका विवरण दस्तावेजों में है। लेकिन आज भी आत्मरक्षा की मुद्रा में खड़ा हिन्दू उन मंदिरों के पुनर्निर्माण की बात तक करने से हिचकता है। पहले वह अगल-बगल देखता है, फिर धीरे से कहता है- 'सर, वो जो कश्मीर में मंदिर ढहाए गए थे, उनके पुनर्निर्माण की तो बात कीजिए न।' …सदियों का दर्द है। संभाले नहीं संभलता। थमते-थमते थमेंगे आंसू- ये रोना है कोई हंसी तो नहीं।
टिप्पणियाँ