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'भगवा आतंकवाद' पर बीते एक दशक में हुई कथित खोजी पत्रकारिता की पोल पट्टी खुल रही है। जिन चैनलों, पत्रिकाओं और अखबारों ने नकली सबूतों और झूठे गवाहों के दम पर यह साबित करने की कोशिश की थी कि 'हिंदू संगठनों ने आतंकवादी हमले करवाए, वे अपना मुंह छिपाकर दुबके हुए हैं।' इंडिया टीवी और टाइम्स नाऊ पर यह रिपोर्ट सामने आई कि 2007 में हुए समझौता एक्सप्रेस विस्फोट के मामले में तब की सरकार में बैठे लोगों ने देश के साथ गद्दारी की। धमाकों के बाद पकड़े गए दो पाकिस्तानी संदिग्धों को छुड़वाकर इस मामले में हिंदू संगठनों को फंसाया गया। यह वही दौर था जब एनडीटीवी और कुछ कांग्रेस प्रायोजित पत्र-पत्रिकाओं में फर्जी इंटरव्यू और नकली खुलासे हुआ करते थे। यह सिलसिला 2014 के लोकसभा चुनाव तक जारी रहा था। अब जब इन इंटरव्यू और खुलासों की सच्चाई सामने आ रही है तब वे मीडिया संस्थान और पत्रकार कहां हैं? क्या इसकी जांच नहीं होनी चाहिए कि इन मीडिया संस्थानों ने हिंदुओं को आतंकवादी साबित करने की सुपारी किससे ली थी?
रिपब्लिक टीवी ने स्टिंग ऑपरेशन के जरिए दिखाया कि कैसे कुछ एनजीओ पैसे लेकर फर्जी विरोध-प्रदर्शन करते हैं। कोई बांध बने या बिजली घर, देश के लिए जरूरी हर परियोजना का विरोध करने वाले इन एनजीओ की सच्चाई सबने अपनी आंखों से देख ली। एनजीओ के इस रैकेट में चर्च सक्रिय भूमिका निभाता रहा है, लेकिन अब तक कुछ अज्ञात कारणों से मीडिया उनका नाम लेने से बचता रहा है।
बंगाल में ममता बनर्जी सरकार ने एक कट्टरपंथी मुसलमान को हुगली जिले के तारकेश्वर मंदिर एरिया बोर्ड का चेयरमैन बनाया। यह शख्स अपने चुनाव क्षेत्र को 'मिनी पाकिस्तान' कहने के लिए चर्चा में आ चुका है। स्थानीय अखबारों से यह खबर सोशल मीडिया तक पहुंची, लेकिन दिल्ली के तथाकथित मुख्यधारा मीडिया को इसमें कोई 'बड़ी बात' नजर नहीं आई। टाइम्स नाऊ चैनल ने बीते हफ्ते पहली बार यह रिपोर्ट दिखाई, उसके बाद भी तथाकथित सेकुलर मीडिया कान बंद किए पड़ा है। ममता के राज में बंगाल में तेजी से इस्लामीकरण चल रहा है। यह फैसला भी उसी की कड़ी है।
कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में हुई प्रायोजित हिंसा को खूब तूल देने वाले मीडिया ने बंगाल के दार्जिलिंग में गोरखा प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी को लेकर चुप्पी साध ली। यह प्रश्न गायब दिखा कि मालदा और दूसरी जगहों पर बांग्लादेशी घुसपैठियों पर नरमी बरतने वाली ममता सरकार गोरखा आंदोलनकारियों को लेकर इतनी निर्मम क्यों है?
उधर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को लेकर मीडिया में अजीबोगरीब बेचैनी देखने को मिली। कई बड़े पत्रकारों की तरफ से रामनाथ कोविंद पर तरह-तरह की अभद्र टीका-टिप्पणियों का सिलसिला जारी है। बिहार के राज्यपाल जैसे पद पर रहे और अनावश्यक विवादों और प्रचार से दूर रामनाथ कोविंद को 'लुटियंस पत्रकारों' ने ऐसा साबित करने की कोशिश की मानो वे किसी दूसरी दुनिया से आए हों। दिल्ली के मीडिया का यही अभिजात्य चरित्र है, जिसका शिकार गांव-देहात और गरीबी से संघर्ष करके आने वालों को होना पड़ता है।
अखलाक, पहलू खान की कड़ी में मीडिया ने इस बार राजस्थान में एक नई कहानी गढ़ी। दिल्ली के अंग्रेजी अखबारों के जरिए दावा किया गया कि स्वच्छ भारत अभियान के तहत काम करने वालों ने जफर नाम के एक शख्स को पीट-पीटकर मार डाला। सरकारी योजनाओं और फैसलों को बदनाम करने का मीडिया का यह अंदाज पुराना है। लेकिन इस बार भी पोल खुल गई। न सिर्फ प्रत्यक्षदर्शियों ने बल्कि पोस्टमार्टम की रिपोर्ट ने भी यह साबित कर दिया कि कोई मारपीट नहीं हुई और उस आदमी की मौत घर जाने के बाद हृदय गति रुकने से हुई।
इसी तरह बीते हफ्ते सभी चैनलों पर खबर चली कि सरकार ने जमीन के दस्तावेजों को आधार से जोड़ने का आदेश दिया है। महीने भर के अंदर यह काम नहीं करने वालों की जमीन-जायदाद को बेनामी घोषित कर दिया जाएगा। चैनलों ने कैबिनेट सेक्रेटरी के दस्तखत वाला एक आदेश भी दिखाया। बाद में पता चला कि यह दस्तावेज फर्जी है और किसी ने अफवाह फैलाने के उद्देश्य से इसे बंटवाया था। कुछ ही घंटों में चैनलों ने खबर वापस ले ली, लेकिन इस मामले ने मीडिया की असलियत को सामने ला दिया। वस्तुत: अखबारों और चैनलों की संपादकीय गुणवत्ता नियंत्रण प्रणाली इतनी कमजोर हो चुकी है कि वे असली और नकली का फर्क भी नहीं कर पाते। यही कारण है कि आएदिन फर्जी सूत्रों और आरटीआई के नकली जवाब के आधार पर खबरें छपती रहती हैं। जब भी ऐसा होता है, पत्रकारीय स्वतंत्रता के तमाम प्रतिष्ठान शुतुरमुर्ग की तरह अपना मुंह रेत में धंसा लेते हैं। उनमें अपनी गलती मानने तक का साहस नहीं होता। मीडिया का ये गैर-जिम्मेदार रवैया लोकतंत्र के लिए अच्छा लक्षण नहीं है।
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