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भारत को अस्थिर करने के लिए विदेशी एजेंसियां आंदोलनों को हवा देने के साथ उन्हें धन भी मुहैया कराती हैं। पहले आंदोलन के लिए चंदे जुटाए जाते थे, पर अब आंदोलनकारी महंगी गाड़ियों और हवाई जहाजों में घूमते हैं। विदेशी पैसे के दम पर फर्जी नायक खड़े किए जाते हैं ताकि वे भारत को चुनौती दे सकें
जेएनयू में महिषासुर और अफजल गुरु विमर्श पर जोर क्यों दिया जाता है? इसे समझने के लिए इन आयोजनों के वित्त पोषण के स्रोत को समझना चाहिए। महिषासुर विमर्श के आयोजक फारवर्ड प्रेस वाले हैं, जिनका फंडिंग स्रोत संभवत: इवेंजेलिस्ट क्रिश्चियन चर्च है। अफजल गुरु वाले आयोजन को फंडिंग किसने की, इसका पता चलने पर बहुत-सी चीजें स्वत: साफ हो जाएंगी। यह सच है कि बीते दस साल में विदेशी एजेंसियों को अपने जायज-नाजायज उद्देश्यों के लिए भारत में धन भेजने की खुली छूट मिली। कई एजेंसियों ने ऐसे आंदोलनों को धन मुहैया कराया, जिनका मकसद भारत को राजनीतिक रूप से अस्थिर करना था। पर नई सरकार ने विदेशी मुद्रा नियमन कानून को कड़ाई से लागू किया, जिससे ये एजेंसिया छटपटा रही हैं और अपना कामकाज समेटने को तैयार हैं। फारवर्ड प्रेस का बंद होना इसी कड़ी में देखा जा रहा है।
हम यह समझने की कोशिश नहीं करते कि पहले लोग क्यों चंदा जुटाकर आंदोलन करते थे और अब पैसे की कमी नहीं होती। इस देश में एक्टिविज्म एक बेहतरीन करियर जैसा बन चुका है। पत्रकारिता के कुछ छात्रों की पहली पसंद यही है, क्योंकि इसमें पैसा अधिक है। 50,000 रु. का वेतन तो आम बात है। हम पत्रकार खबरों के लिए कहीं जाते हैं तो पब्लिक ट्रांसपोर्ट का सहारा लेते हैं, पर आंदोलनकारियों के लिए एसयूवी गाड़ियां और फ्लाइट सहज उपलब्ध हैं। आंदोलन की दुनिया इतनी लुभावनी हो गई है कि लोग यह ध्यान ही नहीं देते कि जिस एजेंडे पर वे चल रहे हैं, वह देश हित में है या देश के खिलाफ। समाजशास्त्रियों का एक बड़ा तबका इन दिनों चंद फंडिंग एजेंसियों की जुबान में बात करने लगा है। उनकी हवा-हवाई बातों का देश की सरजमीं पर कोई अस्तित्व नहीं होता। इसका सटीक उदाहरण महिषासुर विमर्श है, जिसके विमर्शक ज्यादातर एनजीओ-यूनीवर्सिटी छाप बौद्धिक हैं। आप गांव में जाएं, किसी दलित को यह बताकर देखें कि वह क्या प्रतिक्रिया देता है। मगर उन्हें इससे मतलब नहीं है। इसे बहस का मुद्दा बनाकर एक तबके के लिए सर्वग्राह्य बना देने हेतु उनके पास ढेर सारा पैसा है। इसी तरह, यह तबका अफजल गुरु जैसे विवादास्पद नायकों को खड़ा करना चाहता है, ताकि वह भारत को चुनौती दे सके। याद रखिए, अफजल की फांसी किसी खास राजनीतिक दल का फैसला नहीं है। भारत का फैसला है और उसका विरोध भारत का विरोध है। जैसा कि कहा जाता है, अकादमिक संस्थानों में इस पर बहस हो सकती है तो इस भोलेपन में पड़ना बहुत खतरनाक है। अगर कोई बड़ी एजेंसी ऐसी बहसों में पैसा लगाती है तो उसका मकसद साफ है। वह किसी भी तरह देश को कमजोर करना चाहती है। जेएनयू में अफजल गुरु के नाम पर जो होता रहा है, वह अकादमिक बहस नहीं, बल्कि उकसावे की गतिविधि है।
सच तो यही है कि महिषासुर और अफजल किसी के नायक नहीं हैं, आम लोगों को उकसाने के लिए चुने गए हैं। इनके नाम पर जेएनयू में कोई अकादमिक बहस नहीं हो रही। हुल्लड़बाजी होती है और इसका मकसद जनमानस को ऐसे मुद्दे के प्रति बांटना है, जिससे देश को सिर्फ हानि है। यह हमारे बौद्धिक समाज का दिवालियापन है कि वह इसमें अपनी ऊर्जा खत्म कर रहा है। अगर यह भाजपा और संघ के विरोध के नाम पर भी है तो समय की बरबादी है, क्योंकि आप एक ऐसे फंदे में फंसे हैं जिससे देश का सिर्फ नुकसान ही होना है।
(पुष्य मित्र की फेसबुक वॉल से )
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