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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जर्मनी, स्पेन, रूस और फ्रांस की हाल की यात्रा ने जहां इन सभी देशों के साथ भारत के संबंधों को नई ऊंचाई दी है, वहीं आतंकवाद जैसी वैश्विक समस्या के प्रति साझी चिंता को भी रेखांकित किया है
प्रशांत बाजपेई
यूरोप में यह बदलाव का दौर दिख रहा है। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक परिवर्तनों के बीच प्रधानमंत्री मोदी जब यूरोप पहुंचे, उस समय शीत युद्ध के बाद का खुमार उतर रहा है और शीत युद्ध के पहले के चलन अब चलन से बाहर हो रहे हैं। बदलाव की राह पर भारत भी है। जिसकी बदली हुई गति और चाल को ध्यान से देखा जा रहा है। मोदी के एजेंडे में आतंकवाद, व्यापार, भूसामरिक समीकरण और रक्षा गठबंधन थे। चीन नयी राहें फोड़कर उनका इस्तेमाल रस्सियों की तरह भारत को उलझाने के लिए कर रहा है। आतंक के नए-पुराने गढ़ जहर उगल रहे हैं। अमूमन यही मुद्दे मोदी के मेजबान देशों में भी गरम हैं। मैनचेस्टर, पेरिस, बू्रसेल्स, स्टॉकहोम, वेस्टमिन्स्टर, बर्लिन, नॉरमैन्डी…शहर-दर-शहर जिहादी हमले हो रहे हैं। यूरोपीय संघ के मजबूत दुर्ग की दीवारों में दरारें उभरने लगी हैं। ब्रेक्जिट के भावी आर्थिक परिणामों को लेकर कयास लगाए जा रहे हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले से स्वाभाविक साझेदार रहे अमेरिका और यूरोप के बीच पहले जैसी गर्मजोशी नहीं रही है। पर्यावरण का मुद्दा बड़ी चुनौती है। यूरोजोन अनिश्चितता से आशंकित है। ऐसे में मोदी आतंक के विरुद्ध आक्रामक चेहरे के रूप में, तेजी से बढ़ती हुई जीडीपी का भरोसा, एफडीआई, स्मार्ट सिटी और आधारभूत ढांचे के विकास की महत्वाकांक्षा के साथ, नयी उभरी कूटनीतिक-सामरिक परिस्थितियों में, बहुप्रतीक्षित अतिथि के रूप में देखे जा रहे हैं।
चार देशों के छह दिवसीय दौरे पर प्रधानमंत्री सबसे पहले 29 मई को जर्मनी पहुंचे जहां चांसलर एंजेला मार्कल के साथ उनकी लंबी चर्चा हुई। 30 मई को वे स्पेन में राजा फेलिप और राष्ट्रपति मैरिआनो से (तीन दशकों बाद स्पेन पहुंचने वाले भारत के प्रधानमंत्री के रूप में) मिले। उनकी यात्रा का आखिरी पड़ाव फ्रांस के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति के मेहमान के रूप में रहा। दोनों नेताओं ने दुनिया के सामने दिख रही विभिन्न समस्याओं पर चर्चा की और साझे विकास को ध्यान में रखकर मुद्दों पर चलने का मन बनाया।
मोदी का यह दौरा खासा महत्वपूर्ण है। जापान की तरह जर्मनी भी भारत का मजबूत साझेदार है। तीनों देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के विस्तार और स्थायी सदस्यता के मुद्दे पर एक दूसरे का समर्थन करते आए हैं। बिलियन डॉलर्स की आर्थिक सहायता दोनों देशों से आती रही है। तकनीक तथा दूसरे मामलों में जर्मनी के उद्योग विश्व में बेहतरीन हैं, तो भारत में मौके हैं। दोनों देश मौजूदा 17.42 बिलियन डॉलर के व्यापार को और आगे ले जाना चाहते हैं। मेक इन इंडिया किसी भी संभावित निवेशक के लिए बड़ा आकर्षण है। जीएसटी और दूसरे आर्थिक सुधार तथा भारत में केंद्र सरकार के स्तर पर भ्रष्टाचार मुक्त शासन मोदी के महत्वपूर्ण आयाम हैं। भारत और यूरोपीय संघ के बीच मुक्त व्यापार समझौते की शर्तों को तय करना भी एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है। (भारत ने इसके कुछ मसौदों को अपने लिए हानिकारक बताकर इसे रद्द कर दिया था) इसके अलावा विदेश मंत्रालय का बयान बतलाता है कि दोनों नेताओं के बीच बातचीत का दायरा काफी विस्तृत रहा। प्रवक्ता ने कहा,‘‘दोनों नेताओं ने ब्रेक्जिट (ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने का फैसला) की समीक्षा और इसके भारत-जर्मनी तथा यूरोपीय संघ पर पड़ने वाले असर पर चर्चा की। आतंकवाद और मजहबी कट्टरता के फैलाव पर भी बातचीत हुई।’’ जुलाई में जर्मनी के हैमबर्ग में जी-20 सम्मेलन होने जा रहा है। संभावना है कि इस बहुपक्षीय मंच पर जर्मनी के मुद्दों और दृष्टिकोण को लेकर भी चर्चा होगी। भू-राजनैतिक और भू-सामरिक मामलों पर भी दोनों देश और करीब आ रहे हैं। हिन्द महासागर क्षेत्र जर्मनी और सारे यूरोप के लिए बेहद महत्व रखता है। यहां से मलक्का बाइपास से होकर उनका तेलमार्ग गुजरता है। दरअसल तेल निर्यातक ओपेक देशों की तेल राजनीति या ब्लैकमेलिंग का शिकार होने से बचने के लिए जर्मनी और दूसरे यूरोपीय देश अपने तेल आयात का बड़ा हिस्सा रूस और इस क्षेत्र के दूसरे देशों से मंगवाते हैं। इसलिए भारत की इस क्षेत्र में मजबूती और भारत के साथ गठजोड़ उनके लिए मायने रखता है।
चीन का ओबीओआर (वन बेल्ट वन रोड) या नव रेशम मार्ग पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर से होकर गुजरता है जो कि भारत की संप्रभुता का उल्लंघन है। हाल ही में संपन्न फोरम की बैठक, जिसमें चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग के साथ 27 अन्य राष्ट्राध्यक्षों और 130 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया, का बहिष्कार कर भारत ने अपनी दशकों पुरानी छवि के उलट कड़ा सन्देश दिया है। इस मार्ग में ग्वादर बंदरगाह से शुरू होने वाला चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर भी जुड़ता है। इस कदम पर भारत को यूरोपीय संघ का अप्रत्यक्ष समर्थन मिला, जैसा कि भारत में जर्मनी के राजदूत मार्टिन द्वारा ओबीओआर को ‘चीन केंद्रित व्यापार तंत्र’ कहने और यूरोपीय संघ द्वारा समझौते पर हस्ताक्षर न करने से जाहिर होता है। स्पेन के साथ साइबर सुरक्षा, तकनीकी सहयोग, नागरिक उड्डयन और बंदियों के आदान-प्रदान सहित सात समझौतों पर हस्ताक्षर हुए। मोदी ने स्पेन की कंपनियों को रक्षा, ऊर्जा और आधारभूत ढांचे में निवेश करने का आमंत्रण दिया। वैसे अब स्पेन, फ्रांस और जर्मनी के साथ भारत को दूसरा संतुलन भी बैठाना है। आज का यूरोप पहले की तरह अमेरिका का पिछलग्गू नहीं रहा। पर्यावरण पर हुई पेरिस की बैठक और उसके मसौदों पर अमेरिका और यूरोपीय देशों में मतभेद उभर आये हैं और ट्रम्प को खरी-खरी सुननी पड़ी है। ट्रम्प भी अपनी खीझ को खुलकर व्यक्त कर रहे हैं। वहीं पर्यावरण को लेकर मोदी की प्रतिबद्धता की यूरोप में मुक्त कंठ से प्रशंसा हुई है। लेकिन मोदी सावधान थे क्योंकि अंतरराष्ट्रीय राजनीति के मोर्चे पर उन्हें यूरोप और अमेरिका के बीच संतुलन साधते हुए ट्रम्प का साथ भी निभाना है। इसलिए पर्यावरण रक्षा के प्रति अपना आश्वासन दोहराते हुए मोदी ने कहा कि यदि पेरिस समझौता नहीं हुआ होता तब भी भारत पर्यावरण रक्षण की अपनी जिम्मेदारी निभाता। इस बीच, यूरोप की अपनी भविष्य दृष्टि है। भारत आज भले ही अमेरिका का विकल्प नहीं बन सकता लेकिन आर्थिक सामरिक रूप से बड़ी ताकत है जो भविष्य में किसी भी संभावना को साकार करने को तैयार हो रहा है।
उधर भारत के लिए चीन की चुनौती लगातार कायम है। मोदी के जर्मनी छोड़ते ही चीन के प्रधानमंत्री ली किशियांग जर्मनी जा पहुंचे। ली का बयान था कि दोनों देशों को मिलकर विश्व बाजार को ‘अस्थिर’ होने से रोकना है। सबको पता है कि चीनी प्रधानमंत्री के लिए मुख्य मुद्दा ओबीओआर है। चीन को ध्यान से सुना भी जाएगा, क्योंकि उसकी विकट आर्थिक शक्ति के चलते उसकी उपेक्षा आज कोई नहीं कर सकता। इसीलिए जर्मनी, ब्रिटेन, रूस या अमेरिका पहले चीन के साथ संतुलन साधते हैं, फिर भारत आकर उसे साधते हैं। तो जब चीनी प्रधानमंत्री अपने महत्वाकांक्षी ‘रेशम मार्ग’ की बाधाएं हटाने की कोशिश कर थे, तब मोदी पुतिन के साथ व्यापार, सुरक्षा, रक्षा उत्पादन पर बात कर रहे थे। इस साल भारत-रूस मैत्री के 70 साल पूरे हुए। दोनों के बीच आर्थिक-कूटनीतिक-रक्षा-ऊर्जा-निवेश-शिक्षा-विज्ञान आदि के परस्पर सहयोग का लंबा इतिहास है। ब्रिक्स बैंक, इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट बैंक मामलों में भी दोनों के साझा सरोकार हैं। ओबीओआर को लेकर रूस भी बहुत सहज नहीं है। चीन की चुनौती से दो-चार होता भारत रूस और यूरोप की आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए आर्थिक-सामरिक विकल्प लाना चाहता है जिसमें वह स्वयं केंद्रीय भूमिका में हो। चीन ने ओबीओआर को लेकर महत्वाकांक्षा पाली है। भारत के पास इसका बेहतरीन जवाब है-अंतरराष्ट्रीय उत्तर दक्षिण कॉरिडोर (इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ कॉरिडोर) या रूस-भारत कॉरिडोर। यह रास्ता ईरान के चाबहार बंदरगाह से अजरबैजान होता हुआ, कैस्पियन सागर क्षेत्र से होते हुए भारत और रूस को जोड़ेगा। सड़क, रेल और जहाज वाले इस मार्ग से भारत सीधे यूरोप और उत्तर-मध्य व पश्चिम एशिया से जुड़ जाएगा। वर्तमान में स्वेज नहर वाले रास्ते की तुलना में यह रास्ता आधा होगा। (स्वेज वाला मार्ग जल मार्ग है जबकि यह नया रास्ता अधिकांशत: सड़क और रेल मार्ग होगा) ये ज्यादा सुरक्षित होगा। यह रास्ता भारत को मास्को, बर्लिन, पेरिस, मैड्रिड, तुर्की, सीरिया, ईरान, इराक, कजाकिस्तान और मंगोलिया से जोड़ सकेगा।
आतंकवाद और पाकिस्तान को लेकर भारत को वैश्विक सहयोग की दरकार है। पाकिस्तान का दोस्त चीन भारत को मौलाना मसूद, सुरक्षा परिषद की सदस्यता और एनएसजी को लेकर परेशान कर रहा है। बीते कुछ वर्षों में रूस-चीन और पाकिस्तान के निकट आया है। लेकिन भारत के सामरिक-सुरक्षा संबंध यथावत हैं। सर्जिकल स्ट्राइक के समय भी रूस ने भारत का प्रखरता से समर्थन किया था। बहरहाल, भारत के पास कई अवसर हैं। अफगानिस्तान के मामले में भारत रूस और अमेरिका दोनों का विश्वास हासिल कर सकता है। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अमेरिका का हाथ खींचना एक रिक्तता पैदा करेगा। भारत नेतृत्व के लिए आगे आ सकता है। ईरान और रूस को साथ लेकर रूस-भारत कॉरिडोर या इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ कॉरिडोर पर आगे बढ़ने के परिणाम विस्मयकारी हो सकते हैं। इस यात्रा के दौरान उठने वाले मुद्दे और होने वाली घोषणाएं काफी महत्वपूर्ण रही हैं। कई सालों की हिचक के बाद पुराना भरोसा फिर बहाल हुआ जब सेंट पीटर्सबर्ग में मोदी की उपस्थिति में पुतिन ने रावलपिंडी को चौंकाते हुए बयान दिया कि पाकिस्तान के साथ रूस के करीबी सैन्य संबंध नहीं हंै और रूस आतंक के विरुद्ध भारत के साथ दृढ़ता से खड़ा है। यह एक अच्छी बढ़त है।
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