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जम्मू-कश्मीर में अपना राजनीतिक अस्तित्व बनाए रखने के लिए अब्दुल्ला परिवार किसी भी हद तक जा सकता है। श्रीनगर लोकसभा सीट पर उपचुनाव के दौरान जो हुआ, वह इस परिवार के दोहरे चेहरे को उजागर करता है
डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
गत अप्रैल माह में देश के कुछ राज्यों में विधानसभा और लोकसभा की कुछ रिक्त सीटों पर उपचुनाव हुए थे। जम्मू-कश्मीर की श्रीनगर लोकसभा सीट पर भी 9 अप्रैल को मतदान हुआ था। 2014 के लोकसभा चुनाव में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के तारिक अहमद कारा ने नेशनल कॉन्फ्रेंस के फारुख अब्दुल्ला के खिलाफ इस सीट पर जीत दर्ज की थी। फारुख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला के पुत्र हैं। शेख अब्दुल्ला के निधन के बाद फारुख राज्य के मुख्यमंत्री बने थे। इसके बाद उनके बेटे उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने।
दरअसल, अब्दुल्ला परिवार का कश्मीर घाटी की श्रीनगर सीट पर तीन पीढ़ियों से कब्जा रहा है। लेकिन 2014 में पहली बार उसे पीडीपी के हाथों हार का मुंह देखना पड़ा, जो इस परिवार के लिए बहुत अपमानजनक था। इसका बदला लेने के लिए उमर और फारुख अब्दुल्ला ने रणनीति बदली। वे किसी भी तरह इस सीट को जीतना चाहते थे और इसके लिए नेशनल कॉन्फ्रेंस ने वही हथकंडा अपनाया जो उसने 1952 में अपनाया था। उस समय उसने राज्य की संविधान सभा की सभी 75 मीटों पर जीत दर्ज करने के लिए विपक्षी दलों के पर्चे रद्द करवा दिए या उन्हें चुनाव में ही खड़ा नहीं होने दिया था। इस तरह पार्टी ने नया लोकतांत्रिक रिकॉर्ड बनाया था। 2017 में यह सब तो संभव नहीं था, इसलिए अतीत की पुनरावृत्ति दूसरे रूप में की गई। आतंकियों ने पहले से ही इस चुनाव के बहिष्कार की घोषणा कर रखी थी। अब्दुल्ला परिवार ने इसी का फायदा उठाना चाहा, जिससे विरोधी पिट जाएं और सीट पर उसका कब्जा हो जाए। अब्दुल्ला परिवार अच्छी तरह जानता था कि ऐसा यह तभी संभव हो सकता है, जब आतंकियों की भाषा में बात की जाए।
अपना ली ‘उनकी भाषा’
दुनिया की तमाम भाषाएं सीखने का क्या लाभ होता है, यह तो सभी जानते हैं। लेकिन आतंकियों की रहस्यमयी भाषा को सीखना-समझना कितना फायदेमंद हो सकता है, यह अब्दुल्ला परिवार से ज्यादा और कौन जान सकता है? लिहाजा, नेशनल कॉन्फ्रेंस के मुखिया अपना और अपनी पार्टी का रुख स्पष्ट करने में जुट गए। पिता-पुत्र मतदान से चार दिन पहले चुनाव प्रचार के दौरान श्रीनगर के गली-कूचों में घोषणा कर रहे थे कि पत्थर फेंकने वाले अपने वतन कश्मीर के लिए प्राण न्योछावर कर रहे हैं। फारुख अब्दुल्ला ने पत्थरबाजों का हौसला बढ़ाते हुए प्रधानमंत्री को ललकारा और कहा, ‘‘आपको कश्मीर में पर्यटकों की चिंता होगी, लेकिन हमारे नौजवानों को इसकी फिक्र नहीं है। ये भूखे रहकर जान दे सकते हैं, पर अपने वतन कश्मीर के लिए पत्थरबाजी बंद नहीं करेंगे। इन्होंने खुदा से वादा किया है कि ये अपने वतन कश्मीर को आजाद कराने के लिए प्राण तक न्योछावर कर देंगे। कश्मीर के युवा अब मौत से बेपरवाह हो गए हैं। उन्होंने बंदूकें थाम ली हैं, विधायक-सांसद बनने के लिए नहीं, बल्कि कश्मीर की आजादी के लिए।’’ अब्दुल्ला ने पार्टी के कारकुनों और नेताओं को इन युवकों का साथ देने का आदेश दिया। साथ ही, भारत को चुनौती दी, ‘‘कश्मीर हिन्दुस्थान की खानदानी जायदाद नहीं है जो वह इस पर अपना दावा ठोकता रहता है।’’ उन्होंने पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर पर भी भारत के दावे को चुनौती दी और कहा, ‘‘हिम्मत है तो पाकिस्तान से वह इलाका छुड़ा कर दिखाओ।’’
बहके नहीं, बहका रहे थे
फारुख इस चुनाव में हर तरह का हथकंडा आजमाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अलगाववादी नेता सैयद अहमद शाह गिलानी की गोद में बैठकर हुर्रियत की शान में कसीदे काढ़े और पार्टी के कारकुनों को हुर्रियत के साथ मिलकर चलने का आदेश भी दिया। चुनाव से कुछ दिन पहले अब्दुल्ला परिवार के इस तरह के प्रलाप पर कुछ लोगों ने कहा था कि क्या वे बहक गए हैं? पर अब्दुल्ला खानदान को जानने वाले समझ गए थे कि वे बहके नहीं हैं, बल्कि बहका रहे हैं। भविष्य की रणनीति तैयार की जा रही है। घाटी में मतदान के बहिष्कार की अनेक व्याख्याएं की जाती हैं। एक व्याख्या के अनुसार, आतंकियों के मतदान बहिष्कार का विशिष्ट संदेश व संकेत रहता है। अब्दुल्ला परिवार घाटी का पुराना राजनैतिक परिवार है और वह इन संकेतों को झट से पकड़ लेता है। चुनाव नजदीक होने के कारण फारुख और उमर को खुलकर आतंकियों के समर्थन में ंआना पड़ा। उन्होंने सुरक्षाबलों पर पत्थर फेंकने वालों को ‘आजादी का योद्धा’ कहना शुरू कर दिया। फारुख अब्दुल्ला ने पार्टी कार्यकर्ताओं से पहले ही कह दिया था कि इस बार पत्थरबाजों के जत्थों में घुस जाओ।
आतंकियों से संबंध की जांच होनी चाहिए
फारुख और उमर आतंकियों के समर्थन में कश्मीरी युवाओं के बीच कब से अपना अभियान चला रहे हैं, इसकी गहराई से जांच होनी चाहिए। पुलिस रपट के अनुसार, बीते कुछ अरसे में करीब 80 कश्मीरी युवा आतंकियों के साथ मिल गए हैं। फारुख खुद कह रहे हैं कि पत्थरबाजों और बंदूक चलाने वाले कश्मीरी युवाओं को सांसद-विधायक नहीं बनना है, तो क्या वे इसका खुलासा करेंगे कि सांसद बनने के लिए इनका इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं? क्या इन आतंकियों के साथ नेशनल कॉन्फ्रेंस की मिलीभगत है? इस पृष्ठभूमि में 9 अप्रैल की घटना को बेहतर और सही तरीके से समझा जा सकता है। उस दिन मतदान होना था और अर्द्धसैनिक बल के कुछ जवान मतदान केंद्रों की सुरक्षा में तैनात थे। एक मतदान केंद्र पर स्थिति बिगड़ गई और स्थानीय अधिकारियों के लिए इसे संभालना मुश्किल हो गया। उग्र भीड़ ने मतदान केंद्र को घेर लिया था। पत्थरबाजों की ब्रिगेड पहले से ही वहां तैनात थी। करीब 1200 लोगों की उग्र भीड़ पेट्रोल बमों से केंद्र को जलाने की कोशिश में थी। चारों तरफ से पथराव भी हो रहा था। वहां मौजूद कर्मचारियों और सुरक्षाकर्मियों की जान खतरे में थी। उन्हें सही सलामत निकालने के लिए सेना की सहायता मांगी गई। असम के मेजर लीतुल गोगोई के नेतृत्व में सैनिकों की एक टुकड़ी जब तक वहां पहुंची, स्थिति गंभीर हो चुकी थी।
भले ही उन्हें दुश्मन से निबटने में महारत हासिल थी लेकिन इस मौके पर वे अपने इस कौशल का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे, क्योंकि सामने दुश्मन नहीं, बल्कि देश के ही लोग थे। उन्हें बिना खून-खराबे मतदान केंद्र से लोगों को सुरक्षित निकालना था। लेकिन कैसे? मेजर गोगोई के सामने चुनौती की घड़ी थी और आपद धर्म चुनने का रास्ता था। एक सीधा और सरल रास्ता यह था-वे गोली चलाते और बंधक अधिकारियों को छुड़ा लेते। पर मेजर गोगोई के सामने समस्या यह थी कि अगर वे गोली चलाते तो भीड़ में छिपे आतंकी भी जवाबी फायरिंग करते। बकौल मेजर गोगोई, अगर ऐसा होता तो वहां कम से कम दर्जनभर लोग मारे जाते। दूसरा रास्ता यह था कि संभावित नरसंहार को टाला जाए। उधर, भीड़ उग्र होती जा रही थी और किसी भी क्षण कुछ भी हो सकता था। मेजर गोगोई को तत्काल ऐसा रास्ता निकालना था जिससे बिना खून-खराबे के हालात पर नियंत्रण पाया जा सके। उस समय रास्ता निकालने के लिए एमनेस्टी इंटरनेशनल, देशभर के मानवाधिकार विशेषज्ञों, स्तंभकारों और नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रतिनिधियों की बैठक बुलाने का समय नहीं था। जो कुछ करना था, उन्हें ही करना था और वह भी तत्काल।
उधर फारुख अब्दुल्ला अपने कार्यकर्ताओं से हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के साथ मिलकर आजादी के लिए संघर्ष करने की हिदायत दे चुके थे। इसलिए पत्थरबाजों की भीड़ में उनके कार्यकर्ता कितने थे, इसका अनुमान लगाना मुश्किल था। ये कार्यकर्ता दोहरी भूमिका के लिए तैयार खड़े थे। उन्हें वोट भी डालना था और पत्थर भी फेंकने थे। सहसा मेजर गोगोई के मन में एक विचार कौंधा। उन्होंने पत्थरबाजों को उकसा रहे एक युवक को पकड़ा, जो सेना की जीप के पास पहुंच गया था। उसका नाम फारुख अहमद डार था। हालांकि उसने भागने की कोशिश की थी। मेजर के कहने पर जवानों ने उसे पकड़कर जीप के बोनट पर बैठा दिया। ऐसा करते ही पत्थरबाजी बंद हो गई। भीड़ में से आतंकियों द्वारा गोली चलाने का खतरा भी टल गया, क्योंकि ऐसा करने से जीप पर बंधे फारुख की मौत हो सकती थी जो पत्थरबाजों की पलटन का हिस्सा था। इस तरह मेजर गोगोई ने बिना बल प्रयोग किए मतदान केंद्र से सभी को सुरक्षित निकाल लिया। इससे हुर्रियत कॉन्फ्रेंस, अलगाववादियों और आतंकियों की रणनीति असफल हो गई। हाँ नेशनल कॉन्फ्रेंस की रणनीति विफल हुई या नहीं, इसे फारुख-उमर बेहतर जानते होंगे।
योजना विफल होने की बौखलाहट
पर ये सभी मेजर गोगोई को इतनी आसानी से सफल कैसे होने दे सकते थे। लिहाजा, सोशल मीडिया का हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने वाली अलगाववादियों की एक ब्रिगेड सक्रिय हो गई और बोनट पर बंधे फारुख अहमद की तस्वीर वायरल कर दी गई। पत्थरबाजों की पलटन तो पहले से मैदान में थी। मानवाधिकारवादियों की तीसरी पलटन भी उतर चुकी थी, जो कथित तौर पर बुद्धिजीवियों की मानी जाती है। छत्तीसगढ़ के जंगलों में माओवादियों से लेकर जम्मू-कश्मीर में आतंकियों के मानवाधिकारों की रक्षा, उनके कुकृत्यों की सफाई देने और उसके औचित्य को सही ठहराने की भारी-भरकम जिम्मेदारी इसी पलटन पर है। पत्थरबाजों को अपना काम करते हुए कुछ हद तक खतरा भी उठाना पड़ता है। वे सुरक्षाबलों की गोली का शिकार हो सकते हैं, लेकिन मानवाधिकार ब्रिगेड के सामने ऐसा कोई खतरा नहीं होता। वे अपने काम को सुरक्षित स्थान और सुविधा सम्पन्न वातावरण में ही अंजाम देते हैं।
इस ब्रिगेड ने अपनी रणनीति से मेजर गोगोई को घेर लिया। पुलिस ने मेजर के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर ली। मानवाधिकारवादियों का समूह गोगोई को सजा देने की मांग करने लगा। उन्होंने नरसंहार को टाल दिया, यह बात गौण हो गई। बोनट पर बंधे फारुख अहमद को कितनी ‘मानसिक वेदना’ हुई, इसका लेखा-जोखा पेश किया जाने लगा। शायद फारुख को भी मालूम नहीं होगा कि उसके किस-किस अधिकार को चोट पहुंची है। लेकिन इन सब बातों के लिए मेजर गोगोई को जिम्मेदार ठहरा दिया गया और उन्हें सजा देने की मांग की जाने लगी।
दरअसल, पत्थरबाज ब्रिगेड की असफलता को मानवाधिकार ब्रिगेड सफलता में बदलना चाहती थी। उधर, नेशनल कॉन्फ्रेंस ने भी अपनी भूमिका संभाल ली। वैसे तो नेशनल कॉन्फ्रेंस शेख अब्दुल्ला के समय से ही दोहरी भूमिका में रही है। फारुख अब्दुल्ला ने तो केवल उसका नया संस्करण पेश किया। नई रणनीति के तहत नेशनल कॉन्फ्रेंस के कार्यकर्ताओं को पार्टी को वोट देने वालों को मतदान केंद्र तक जाने देना था, लेकिन दूसरे दलों को वोट डालने वालों को रोकने के लिए इन्हें पत्थरबाज बनना था और आजादी-आजादी चिल्लाना था। यानी मतदान जितना कम होता, नेशनल कॉन्फ्रेंस को उतना ही लाभ होता।
कैप्टन ने बिगाड़ी योजना
लेकिन इस पूरी रणनीति को पलीता लग जाएगा, इसकी आशंका किसी को नहीं थी। न पत्थर ब्रिगेड को, न सोशल मीडिया ब्रिगेड और न ही मानवाधिकार ब्रिगेड को। नेशनल कॉन्फ्रेंस को ही तो बिल्कुल भी अनुमान नहीं था, क्योंकि श्रीनगर लोकसभा सीट पर वह कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ रही थी। यह पलीता पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने लगाया था। उन्होंने अखबारों में बाकायदा एक लंबा लेख लिखा। इसमें उन्होंने न केवल मेजर गोगोई की सराहना की, बल्कि यह भी कहा, ‘‘यदि उनके स्थान पर मैं होता तो मैं भी यही करता। आप जम्मू-कश्मीर में सेना को हाथ पीछे बांधकर आतंकवादियों से लड़ने के लिए नहीं कह सकते।’’ कैप्टन के लेख से मानवाधिकारवादियों की ब्रिगेड में खलबली मच गई। उन्होंने रणनीति बनाते समय इस अप्रत्याशित हमले की कल्पना तक नहीं की थी। इस नुकसान की भरपाई के लिए अब किसी रुतबे वाले व्यक्ति को उतारना जरूरी हो गया था। कैप्टन का मुकाबला न तो सैयद अहमद शाह गिलानी के बयानों से हो सकता था और न ही यासीन मलिक यह काम कर सकता था। इसके लिए तो एक कद्दावर सेनानायक की जरूरत थी। रणनीति के तहत ऐसे रुतबे वाले सेनापतियों का पर्दाफाश इतनी जल्दी नहीं किया जाता और उन्हें आखिर तक परदे के पीछे रखा जाता है। लेकिन मानवाधिकार ब्रिगेड के लिए भी संकट की घड़ी उपस्थित हो गई थी। मरता क्या न करता। परदा उठाना पड़ा और कैप्टन को जवाब देने के लिए उमर अब्दुल्ला को मैदान में उतारा गया। कैप्टन के आलेख के जबाब में उमर अब्दुल्ला का आलेख अखबारों में आया। उन्होंने मेजर गोगोई पर हमला किया और फारुख अहमद पर हुए जुल्म के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया। उसके लिए मेजर गोगोई को क्या सजा दी जाए? उमर अब्दुल्ला को यह कहने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि इसकी घोषणा अखबार में नहीं, बल्कि कश्मीर घाटी की सड़कों पर पार्टी विधायक शमीमा फिरदौस के नेतृत्व में प्रदर्शन के माध्यम से मेजर गोगोई के अंत की मांग उठाकर की गई थी। कोई और देश होता तो फारुख अहमद की पृष्ठभूमि की जांच की मांग की जाती। अलगाववादियों से उसके संबंधों पर सवाल उठते। लेकिन यहां गोगोई को ही घेरा जा रहा था और फारुख को मासूम बताया जा रहा था।
चुनाव बहिष्कार के पीछे राज
मेजर गोगोई का कहना है कि फारुख अहमद पत्थरबाजों का सरगना था और उन्हें इस काम के लिए उकसा रहा था। कायदे से तो इस साक्ष्य के आधार पर फारुख के खिलाफ भी प्राथमिकी दर्ज होनी चाहिए थी। जांच होनी चाहिए। उसके बाद निर्णय होना चाहिए। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसके विपरीत मेजर गोगोई के खिलाफ पुलिस में प्राथमिकी दर्ज है। फारुख का कहना है, ‘‘यदि मैं पत्थरबाज होता तो वोट क्यों डालता?’’ यह कोई ऐसा रहस्य नहीं है जिसकी तह तक जाने के लिए ज्यादा माथापच्ची करने की जरूरत पड़े। अपना वोट डाल दिया और दूसरे लोग वोट न डाल सकें, इसलिए बरसाओ पत्थर। यही तो वह रणनीति है जिसके तहत चुनाव बहिष्कार की पद्धति अपनाकर किसी भी चहेते प्रत्याशी को जिताया जाता है। फारुख अब्दुल्ला तो पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं से स्पष्ट कह चुके थे कि पत्थरबाज कश्मीर के नायक हैं, लेकिन उन्होंने यह तो कहा नहीं कि मुझे वोट मत डालना। वोट के लिए ही तो वे चुनाव में उतरे थे। इसलिए वोट भी डालो और पत्थर भी बरसाओ, ताकि अपना प्रत्याशी जीत जाए और दूसरे प्रत्याशी के समर्थक मतदान केंद्र के पास भी न जा सकें। यदि फारुख के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज होती और साक्ष्य के लिए उसने किसे वोट डाला, इसकी जांच की भी कानून में अनुमति होती तो शायद मामला और स्पष्ट हो जाता कि वोट वाला हाथ किसके लिए और पत्थर वाला हाथ किसके लिए।
उमर अब्दुल्ला और उनकी मानवाधिकार ब्रिगेड चिल्लाती रही कि मेजर गोगोई को फारुख को जीप के बोनट पर नहीं बैठाना चाहिए था, लेकिन यह नहीं बताया कि उस हालत में इसके स्थान पर क्या करना चाहिए था? थल सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने बिल्कुल सही प्रश्न उठाया है कि यदि सीमा पर शत्रुओं और देश के भीतर देश के खिलाफ बंदूक उठाने वालों के मन में सेना का भय नहीं रहेगा तो देश का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा। बड़गाम जिले में उस दिन यही हो रहा था। स्थिति स्थानीय प्रशासन के काबू से बाहर हो गई थी। ऐसे में यदि सेना की टुकड़ी भी उस पर नियंत्रण नहीं कर पाती तो उसका अंजाम क्या हो सकता था? पत्थर चल रहे थे। भीड़ में से आतंकवादी गोली भी चला सकते थे। क्या सेना इस बात की प्रतीक्षा करती कि पहले आतंकवादी गोली चलाते, फिर कुछ सैनिक मारे जाते, तब सेना सक्रिय होती? सेना को पैलेटगन का इस्तेमाल करने से रोकने के लिए भी यही मानवाधिकार ब्रिगेड उच्चतम न्यायालय तक दौड़ लगाती रहती है। बंदूक, पैलेटगन नहीं चलाएगी तो सेना उस स्थिति में क्या आतंकियों के मनोरंजन के लिए मनोरंजक कार्यक्रमों का आयोजन करेगी?
मजेदार स्थिति यह है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस के पास तो दोनों विकल्प खुले रहते हैं। हालात देखकर वह पत्थरबाजों का विरोध भी कर सकती है और उनमें शामिल भी हो सकती है। यह मौका पाकर पाकिस्तान के पक्ष में भी खड़ी हो सकती है, जैसा आजकल फारुख अब्दुल्ला के बयानों से आभास हो रहा है, लेकिन सेना के पास यह विकल्प तो बिल्कुल नहीं है। उसे तो हर हाल में बड़गाम के उस मतदान केंद्र पर निर्दोष लोगों के प्राणों की रक्षा करनी थी। मेजर गोगोई का कसूर बस इतना है कि उन्होंने रक्षा के इस कर्तव्य की पूर्ति में फारुख जैसे पत्थरबाजों पर न पैलेटगन चलाई, न असली गन। उन्होंने तरकीब से फारुख और मतदान केंद्र में फंसे दूसरे लोगों की भी जान बचा ली। नेशनल कॉन्फ्रेंस को घाटी में अपनी राजनीति चलाने के लिए लाशों की जरूरत थी, लेकिन मेजर गोगोई ने यह मौका ही नहीं दिया। इस कसूर की सजा तो फांसी ही होनी चाहिए।
याद कीजिए, शेख अब्दुल्ला का 1952 में जम्मू के रणवीरसिंहपुरा में दिया गया भाषण। लगता है, नेशनल कांफ्रेंस वापस रणवीरसिंहपुरा के युग में लौट गई है। लेकिन नेशनल कॉन्फ्रेंस और पाकिस्तान, दोनों का दुर्भाग्य यह है कि दिल्ली में जवाहर लाल नेहरू या उनके वंशजों की सरकार नहीं है। यदि ऐसा होता तो शायद सचमुच मेजर गोगोई को ही सजा हो जाती। ल्ल
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