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उत्तर प्रदेश के कालपी में स्थित ‘लंका मीनार’ धार्मिक एवं सामाजिक सहिष्णुता की प्रतीक है। 1895 में कालपी के एक वकील मथुरा प्रसाद निगम ‘लंकेश’ अपने खर्च से बनवाई कौड़िया चूना की सुर्खी से बनी यह मीनार और मूर्तियां बुंदेली लोक कला का सुंदर उदाहरण हैं लेकिन उचित रखरखाव के अभाव में आज ये नष्ट हो रही हैं
अयोध्या प्रसाद गुप्त ‘कुमुद’
भगवान राम के देश भारत में उनके घोर शत्रु रावण का एक स्मारक है— ‘लंका मीनार’। यह धार्मिक तथा सामाजिक सहिष्णुता का प्रतीक है। देश की ऊंची मीनारों में से एक लंका मीनार उत्तर प्रदेश राज्य के जालौन जिले के कालपी में स्थित है। इसे यहां के प्रसिद्ध वकील बाबू मथुरा प्रसाद निगम ‘लंकेश’ ने एक सदी पूर्व बनवाई थी। इसकी ऊंचाई 225 फुट है, जबकि दिल्ली स्थित कुतुब मीनार की ऊंचाई 238 फुट और चित्तौड़गढ़ के विजय स्तंभ की ऊंचाई 122 फीट है (देखें -हैंडबुक आॅफ इंडिया, प्रकाशन विभाग भारत सरकार पृष्ठ 64 एवं 49)। जिला गजेटियर 1921 के अनुसार, साफ मौसम में इस मीनार से 48 मील दूर स्थित कानपुर शहर दूरबीन से साफ दिखता था। मथुरा प्रसाद ने मीनार के करीब चित्रगुप्त मंदिर, शिव मंदिर, शनि मंदिर, अयोध्यापुरी, जनकपुरी, पुष्पवाटिका, मथुरापुरी तथा पाताल लंका का भी निर्माण कराया था। कौड़िया चूना की सुर्खी से निर्मित मीनार और मूर्तियां बुंदेली लोक कला का सुंदर उदाहरण हैं।
लंका मीनार एक विशाल परिसर में ऊंची पीठिका पर स्थित है। इस परिसर को ‘लंका’ कहा जाता है। इसके प्रवेश द्वार पर दायीं ओर नाग और बायीं ओर नागिन है, जिसकी लंबाई 66 फुट है। प्रवेश द्वार के बायीं ओर चित्रगुप्त, शनिदेव एवं भगवान शिव का मंदिर है जो दक्षिण भारतीय वास्तुशैली पर बना है। बायीं ओर लंका मीनार है, जिसके करीब कुंभकर्ण की 60 फुट लंबी लेटी हुई और मेघनाद की बैठी हुई मुद्रा में प्रतिमाएं हैं। इसके अलावा, मंदिर में 27 नक्षत्रों, बारह अवतारों, चार युगों तथा सभी ग्रहों की संगमरमर की प्रतिमाएं हैं। यह देश में अपने किस्म का अनोखा मंदिर है।
लंका मीनार में 173 घुमावदार सीढ़ियां हैं। इसके शिखर पर 15 फुट ऊंची ब्रह्मा की मूर्ति है। 1934 में भूकंप के कारण मूर्ति छत्र सहित लटक गई थी, तब से यह उसी स्थिति में है। दिलचस्प बात यह है इसमें सरिया का प्रयोग नहीं हुआ है, फिर भी शिखर पर वजनी मूर्ति कैसे लटकी हुई है? एक मान्यता के अनुसार, मनुष्य की मृत्यु के पश्चात् आत्मा सात लोकों में भटकते हुए ब्रह्मलोक पहुंचती है। लंका मीनार के सात खंडों के ऊपर स्थित ब्रह्मा की मूर्ति पौराणिक प्रतीक है। मीनार की बाहरी दीवार पर चारों ओर लंका काण्ड के विभिन्न दृश्य मूर्तियों के माध्यम से उकेरे गए हैं। लेकिन इसमें राम नहीं, बल्कि रावण को केंद्र में रखकर इनका चित्रण किया गया है।
लगभग 80 फुट ऊंची रावण प्रतिमा विभिन्न तरह के अस्त्र-शस्त्रों युक्त है। उसकी अपलक दृष्टि सामने शिव मंदिर में अपने आराध्य भगवान शिव को निहारती प्रतीत होती है। लंका मीनार तथा प्राचीर पर राक्षस-राक्षसियों की अनेक मूर्तियां हैं। लंका के निकट ही अयोध्यापुरी, जनकपुरी, मथुरापुरी तथा ‘पाताल-लंका’ (पलंका) है। जनक वाटिका का प्रवेश द्वार अलंकरण युक्त है। इसकी प्राचीर पर भी रामकथा तथा कृष्णकथा से जुड़े लीला प्रसंग मूर्तियों के जरिये उकेरे गए हैं। अयोध्यापुरी में ही करीब 45 मूर्तियां हैं। मथुरा प्रसाद ने घर से थोड़ी ही दूरी पर पालाल-लंका का निर्माण कराया था, जो रामलीला कलाकारों का आवास होता था। इसमें बनी अशोक वाटिका में हनुमान द्वारा सीता को राम की मुद्रिका देते चित्रांकन प्रभावी बन पड़ा है। इनका रंग संयोजन सुंदर है, जो अब मलिन पड़ रहा है।
लंका के प्रवेश द्वार पर फन फैलाए नाग-नागिन बनाने की कथा मथुरा प्रसाद के जन्म से जुड़ी है। उनके परिवार के लोग बताते हैं कि ‘लंकेश’ का जन्म बाबनी राज्य के ग्राम बागी में नाग पंचमी के दिन हुआ था। उनकी मां कृषि कार्य से खेत में गई थीं और वहीं शिशु को जन्म दिया। शिशु के जन्म के समय बारिश होने लगी, तब नाग-नागिन के जोड़े ने अपने फन से शिशु की रक्षा की थी। बाद में यही बालक ‘लंकेश’ बना। इस प्रकार उन्होंने अपने रक्षक को महत्व देने तथा रामकथा में शेषनाग अवतार के प्रतीक लक्ष्मण, उनकी पत्नी उर्मिला को प्रतीक के रूप में चित्रांकित करने के लिए प्रवेश द्वार पर नाग-नागिन का निर्माण कराया। यहां हर वर्ष नाग पंचमी को मेला तथा दंगल होता है।
इसके निर्माण में 20 साल लगे। इसका निर्माण 1875 में शुरू हुआ और 1895 में पूरा हुआ। मंदिर के निर्माण के लिए मथुरा प्रसाद ने अंचल के प्रमुख वास्तु शिल्पियों को बुलाया था तथा उस समय के प्रसिद्ध कारीगर रहीम बक्स को इसके निर्माण का दायित्व सौंपा था। उन्होंने रावण की प्रतिमा के बगल में अपनी मूर्ति बनवाकर उस पर निर्माण वर्ष 1853 विक्रमीय लिखा। साथ में लिखा – लंकेश वर्ष – 1। इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने ‘लंकेश वर्ष’ का प्रवर्तन करना चाहा था, किन्तु वह आगे चल नहीं सका।
देश की जनता राम को नायक तथा रावण को खलनायक के रूप में मानती है। राम विजयी देव संस्कृति के प्रतीक हैं और रावण राक्षस संस्कृति का। देव-संस्कृति सदाचार की पोषक है और राक्षस संस्कृति अनाचार की। इसलिए देश में कोई अपना या अपने बच्चों का नाम रावण नहीं रखता है। लेकिन लंका मीनार के निर्माता मथुरा प्रसाद निगम ने अपना नाम ‘लंकेश’ रख लिया था। बाद में 1904 में तत्कालीन गवर्नर ने उनके परिवार के मुखिया को ‘लंकेश’ की पदवी प्रदान की थी। रावण के अभिनय में दक्ष ‘लंकेश’ खुद को रावण का अवतार मानते थे। वह प्रतिवर्ष अपने निवास पर ब्रह्म भोज देते थे। उसमें पकवान या मिष्ठानों के स्थानों पर शक्कर या खोवा (मावा) के बने पशुओं के आकार के रंगीन खिलौने, जैसे- गाय, बैल, भैंस, सुअर, शेर, हाथी, घोड़े आदि परोसे जाते थे। पीने को सुगंधित लाल शर्बत दिया जाता था। वह कहते थे – जब लंकेश के यहां भोजन करोगे तो पशु और रक्तवर्णी पेय ही मिलेंगे। बुंदेलखंड के साहित्यिक अन्वेषी पं. गौरीशंकर द्विवेदी ‘शंकर’ के अनुसार, ‘लंकेश’ ने तीन खण्डकाव्यों की रचना की थी। इनके नाम हैं- रावण दिग्विजय यात्रा, रावण-वृन्दावन यात्रा तथा रावण-शिव स्वरोदय। इसके अतिरिक्त एक दोहावली भी लिखी थी, किन्तु उन ग्रंथों को मुझे देखने का अवसर नहीं मिला।
रावण की कीर्ति रक्षा के लिए चिंतित, स्वनिर्मित व्यक्तित्व के धनी एवं रईस ‘लंकेश’ ने अपनी वकालत तथा जमींदारी की कमाई का एक बड़ा भाग व्यय करके इस परिसर का निर्माण कराया था। उस समय पूरे कालपी परगना का कुल सरकारी राजस्व 1,73,051 रुपए था, जबकि लंका मीनार पर ही करीब दो लाख की लागत आई थी (देखें मधुकर वर्ष 3, अंक-1, संपादक- पं. बनारसी दास चतुर्वेदी)। यानी पूरे कालपी राजकोष की सरकारी आय से भी ज्यादा लागत। कुतुबमीनार या विजय स्तंभ की भांति राजकोष से इसका निर्माण नहीं हुआ, बल्कि एक छोटे कस्बे के वकील ने अपने निजी कमाई इस पर खर्च की थी। इससे इसके निर्माण की अभिनव कल्पना और उसके प्रति ‘लंकेश’ के समर्पण का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। वे मौलिक सूझ-बूझ के धनी व्यक्ति थे। कालपी की रामलीला में वह रावण का प्रशंसनीय अभिनय करते थे। रावण-अंगद संवाद में उनके हिन्दी तथा संस्कृत काव्य संवाद काफी चर्चित थे। उसी मंच पर मंदोदरी का अभिनय करने वाली घसीटीबाई नामक विदुषी मुस्लिम महिला उनके जीवन से जुड़ गई थी। उसे रामायण कण्ठस्थ था। उसके अनुरोध पर उन्होंने लंका के निकट ही ‘मकदूम शाह’ का मकबरा तथा उसके मरणोपरान्त उसकी स्मृति में एक मस्जिद एवं कुएं का निर्माण कराया था।
लंका देखने के उत्सुक जन कालपी सड़क या रेलमार्ग पहुंच सकते हैं। कानपुर-झांसी रेलमार्ग पर कालपी प्रमुख रेलवे स्टेशन है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग-25 पर स्थित है। कालपी के पूर्वी भाग में बना लंका मीनार का उत्तुंग शिखर पर्यटकों को सहज ही आकर्षित कर लेता है। बुंदेलखण्ड का प्रवेश द्वार कालपी देश में हाथ से बनने वाले कागज का प्रमुख उत्पादन केंद्र है। यहां बाल व्यास मंदिर, कालपी का चंदेल दुर्ग (भग्नावशेष), बीरबल का रंगमहल, चौरासी गुम्बज, पाहूलाल मंदिर, बड़ा गणेश मंदिर आदि अन्य उल्लेखनीय दर्शनीय स्थल हैं। यमुना की ऊंची तथा सीधी कगार पर बना ‘वन विश्राम गृह’ प्रदेश के विशिष्ट विश्राम गृहों में है। 1857 की क्रान्ति का नियंत्रण कक्ष तथा कोषागार रहा है, जिसके अंदर भूमिगत आयुध निर्माण भी होता था। इसी के निकट लोक निर्माण विभाग का निरीक्षण भवन है।
देश के इस महत्वपूर्ण पुरावशेष, हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द तथा सहिष्णुता के प्रतीक लंका मीनार को पर्यटकों के बीच लोकप्रिय बनाने का योजनाबद्घ तरीके से प्रयास किया जाना चाहिए। केंद्रीय एवं राज्य पर्यटन विभाग को इसका प्रचार-प्रसार तथा रखरखाव करना चाहिए। इसके अलावा, इस परिवार में बनी मूर्तियों का सर्वेक्षण, अभिलेखीकरण तथा बुंदेली कला एवं शिल्प की दृष्टि से उनका विशेष अध्ययन इस विरासत के संरक्षण की दृष्टि से अति आवश्यक है। ल्ल
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