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सहारनपुर की घटना के बाद पुलिस ने सुझाव दिया है कि गांवों में ग्राम रक्षा समितियां बनाई जाएं और छोटे-मोटे मामलों को वही समितियां निबटाएं। इन समितियों में सरकारी विभागों के प्रतिनिधि, जन प्रतिनिधि और गांव के प्रमुख लोगों को शामिल किया जाना चाहिए
शंभूनाथ शुक्ल
सहारनपुर में हिंसा के बाद पुलिस ने एक और तंत्र विकसित करने की योजना बनाई है। अगर इस तंत्र पर काम किया गया तो शायद गांवों की समस्याएं ग्राम स्तर पर ही सुलझा ली जाएंगी और इसके जरिए वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को सही सूचनाएं भी मिलती रहेंगी। खासकर शब्बीरपुर की घटना के बाद इस पर काम करना शुरू किया गया है। यह वही पुराना तंत्र है जिसके जरिए पुलिस अपनी मुखबिरी को तेज किया करती थी। मसलन चौकीदारी व्यवस्था की बहाली और बीट कांस्टेबल की भूमिका को सबल बनाना। सहारनपुर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) सुभाष दुबे ने इस हेतु शासन के पास एक खाका भेजा है। अमल में आने पर यह खाका कारगर हो सकता है। दुबे के अनुसार गांव स्तर पर ही गांवों की समस्याएं हल करने का एक जरिया है गांवों में उन सारे पुर्जों को कसना जो कि गांव की संरचना में अहम भूमिका अदा करते हैं। मालूम हो कि न केवल आज बल्कि प्राचीन भारत में भी ग्राम सभ्यता नगर सभ्यता से श्रेष्ठ समझी जाती थी, क्योंकि गांव आत्मनिर्भर थे और उन्हें अपने झगड़े सुलटाने अथवा किसी समस्या को शहर तक लेकर जाने की जहमत नहीं उठानी पड़ती थी। लेकिन जिस तरह से शहरी सभ्यता ने अपने गुण-दोष गांवों पर थोपे, तब से सारे समीकरण ही गड़बड़ा गए हैं। इस संदर्भ में दुबे का यह सुझाव वाकई असरकारक होगा और तब शायद गांवों को शहर का मुखापेक्षी होकर नहीं रहना पड़ेगा।
एसएसपी दुबे की इस महत्वाकांक्षी योजना का लक्ष्य है कि गांव के लोग अपनी समस्याएं मिल-बैठकर सुलझाएं और उनके बीच कुछ सरकारी आदमी भी रहें, ताकि प्रशासन को भी गांव की पल-पल की जानकारी रहे। उनके अनुसार हर ग्राम पंचायत में कुछ सरकारी कर्मचारी होते हैं और उनकी संख्या लगभग 10 होती है। इनमें से एक लेखपाल, एक पंचायत सचिव, आशा कार्यकर्ता, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, प्राथमिक विद्यालय अध्यापक, एएनएम और दो बीट कांस्टेबल आदि। इसके अलावा ग्राम पंचायत में कुछ चुने हुए जन प्रतिनिधि होते हैं। ग्राम प्रधान के अलावा ग्राम पंचायत सदस्य और पूर्व प्रधान। हो सकता है कि उस इलाके का सांसद या विधायक अथवा जिला या प्रखंड पदाधिकारी भी उसी गांव का हो तो वह भी इस ग्राम रक्षा समिति का सदस्य होगा। ये तो हो गए सरकारी तथा जनप्रतिनिधि। इसके अलावा कम से कम दस ऐच्छिक प्रतिनिधि रखे जाएं। मसलन हर समुदाय या जाति का एक-एक सदस्य। तब यह संख्या पचास के आसपास पहुंच जाएगी। इन सबको यह अधिकार दिया जाए कि वे महीने में कम से कम एक बार अथवा दो बार ग्राम रक्षा समिति की बैठक बुलाएं और उसमें इन सबकी उपस्थिति अनिवार्य हो। इससे ग्राम स्तर की सारी समस्याएं स्वयंमेव हल हो जाएंगी। ये लोग यह बैठक या तो किसी सरकारी भवन मसलन स्कूल या पंचायत भवन में करें अथवा किसी अन्य सामुदायिक भवन में। यह भी हो सकता है कि हर सदस्य बारी-बारी से अपने घर पर ही यह बैठक बुलाए। इससे परस्पर सामाजिकता बढ़ेगी और आय के स्रोत भी विकसित होंगे। मसलन ये लोग सामुदायिक भवन में शादी-विवाह आदि कार्यक्रम करवा सकते हैं और इसके लिए कुछ अतिरिक्त शुल्क भी ले सकते हैं अथवा शुल्क ऐच्छिक कर दिया जाए। मगर इसमें शक नहीं कि इससे परस्पर सामुदायिकता का विकास होगा।
सहारनपुर में नौ मई को एक समाज विशेष के युवकों ने जिस तरह से पूरे शहर को आतंक की चपेट में ले लिया था, उसे समाप्त करने के लिए प्रशासन ने घटना के अगले ही रोज सर्किट हाउस में एक बैठक बुलाई थी, जिसमें सभी समाज के लोग आए और राजनीतिक दलों के नेता भी। जिलाधिकारी एनपी सिंह ने इसमें बहुत अच्छी बात कही। उन्होंने कहा कि राणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले योद्धा तो कोल-भील थे। वे कोई राजपूत योद्धा नहीं थे। उलटे अकबर का सेनापति जरूर मानसिंह था जो कि राणा प्रताप का ही सजातीय था। इसके अलावा राणा प्रताप की सेना का नायक सूरी जाति का एक अफगान था। और उसने अपने मालिक की रक्षा के लिए जान दे दी। राणा प्रताप की आर्थिक मदद वाले भामाशाह वैश्य थे। इसलिए किसी जाति से किसी को जोड़ना अथवा जातीय नायक बनाना एक तरह की फिजूल की कसरत है। जिलाधिकारी के इस आह्वान का असर पड़ा। और सब ने एक स्वर में स्वीकार किया कि घटना चाहे पांच मई की शब्बीरपुर की हो अथवा नौ मई की रामनगर वाली, दोनों ही घटनाएं निंदनीय हैं। इनके पीछे फालतू का अहम था और जाति की धमक थी। प्रशासन की इस पहल को सबने सराहा। यहां तक कि उस स्वघोषित सेना ‘भीम आर्मी’ के लोगों ने भी।
मगर परेशानी यह है कि जो राजनीतिक दल और नेता गुप्त रूप से इस तरह की अशांति को हवा दे रहे हैं, उन पर यदि कार्रवाई नहीं हुई तो यह सारी कवायद बेमायने हो जाएगी। पता चला है कि एक सुरक्षित सीट के पूर्व विधायक इस भीम आर्मी को उकसाने का काम कर रहे थे। अब ऐसे में अगर ग्राम रक्षा और कल्याण समितियां बनती हैं तो यकीनन एक नई परंपरा पनपेगी और गांवों को तमाम गैर जिम्मेदाराना हरकतों से बचाया जा सकेगा।
सहारनपुर में जो जातीय उबाल आया, उसके पीछे पिछले महीने आंबेडकर जयंती पर हुई घटना को भी देखना होगा। उस समय बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर जयंती पर निकाले गए जुलूस पर कट्टरवादी मुसलमानों ने पथराव किया था। उसका हिंदू समाज के सभी वर्गों ने विरोध किया था। इससे यह संदेश गया था कि अगर हिंदू समाज एक हो जाता है तो वह इतना ताकतवर हो जाएगा कि आने वाले किसी भी चुनाव में उसे हराना असंभव होगा। कहा जाता है कि इससे कुछ मुसलमान नेता बहुत चिंतित हो गए और इसकी काट उन्होंने तलाशी अनुसूचित वर्ग को बाकी सवर्ण समाज से अलग करने में। राजपूत और अनुसूचित वर्ग के बीच ताजा टकराव इसी का नतीजा था। मगर शुक्र है कि अनुसूचित वर्ग का एक बड़ा समुदाय इस सचाई को समझता है और राजपूतों ने तो पहले ही दिन इसे समझ लिया था। इसीलिए पांच मई की रात को उस राजपूत युवक का फटाफट अंतिम संस्कार कर दिया गया जो उसी दिन शब्बीरपुर कांड में मारा गया था। हालांकि हिंदू समाज में रात को अंत्येष्टि मना है पर राजपूत समाज इसके लिए राजी हो गया।
यह एक शुभ संकेत था मगर निहित स्वार्थी तत्वों ने अनुसूचित वर्ग के लोगों को भड़काया। भीम आर्मी के व्हाटस ग्रुप और फेसबुक के जरिए लोगों को संदेश भेजा गया कि अगर वे एक नहीं हुए और नौ मई को गांधी पार्क में न जुटे तो राजपूत समाज अपने युवक की मौत का बदला जरूर लेगा। इसी गलतफहमी का नतीजा रहा नौ मई का कांड। जब प्रशासन ने उन्हें गांधी पार्क में सभा नहीं करने दी, क्योंकि सभा की अनुमति उन्होंने ली ही नहीं थी और उसके बाद बवाल हुआ। मगर अब समझ में आ रहा है कि झगड़े से कोई हल नहीं निकलने वाला, क्योंकि अनुसूचित वर्ग के लोग गांवों में मजदूरी करते हैं और बटाई पर खेती भी ठाकुरों से ही लेते हैं। अब यदि तनातनी बढ़ती है तो ठाकुर मजदूर कहां से लाएंगे और अनुसूचित वर्ग के लोग जोतने-बोने के लिए खेत कहां से लाएंगे। अगर यह समझ विकसित हुई तो यकीनन जल्द ही सहारनपुर की आंच काबू में आ जाएगी। ऐसे में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक दुबे का फार्मूला सोने पर सुहागे का काम करेगा। ग्राम रक्षा और कल्याण समिति जितनी जल्दी काम करने लगेंगी, उतना ही शुभ होगा। ल्ल
राणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले योद्धा तो कोल-भील थे। वे कोई राजपूत योद्धा नहीं थे। उलटे अकबर का सेनापति जरूर मानसिंह था जो कि राणा प्रताप का ही सजातीय था। इसके अलावा राणा प्रताप की सेना का नायक सूरी जाति का एक अफगान था। और उसने अपने मालिक की रक्षा के लिए जान दे दी। राणा प्रताप को आर्थिक मदद करने वाले भामाशाह वैश्य थे। इसलिए किसी जाति से किसी को जोड़ना अथवा जातीय नायक बनाना एक तरह की फिजूल की कसरत है।
-एनपी सिंह, जिलाधिकारी, सहारनपुर
गांव स्तर पर ही गांवों की समस्याएं हल करने का एक जरिया है कि गांवों में उन सारे पुर्जों को कसना जो कि गांव की संरचना में अहम भूमिका अदा करते हैं।
-सुभाष दुबे, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, सहारनपुर
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